Friday, February 19, 2010

सुलगते शब्दों की सुगन्ध

''साधु हो या सांप नहीं अंतर कोई,
जलता जंगल दोनों को साथ जलाता है।
कुछ ऐसी ही है आग हमारी बस्ती में...''

यह किसी कविता की लाचार लाइनें नहीं हकीकत है। देश जंगल में बदल रहा है और जंगल जल रहा है। इस आग के गुणनफल की गुणात्मक विवेचना तो करेंगे ही पर शेषफल तो राख ही होगा। अब तय करो हे संपादकों, लेखकों, पाठकों और नागरिकों कि आपके शब्द 'राख' हों या 'आग'। मैं अपना मत व्यक्त करता हूं, सहमत हो तो साथ देना।

शब्द अगर ज्वलनशील होंगे तो आग में दहकेंगे। दहकेंगे तो महकेंगे। महकेंगे तो महसूस होंगे। कुछ शब्द महसूस होंगे तो शेष बचे मनहूस भी। उन्हें खारिज कर दो। जलते जंगल के धुएं और जलते शब्दों के धुंध के उस पार 'सच' है। देखो! हम सुलगते शब्दों के लेखक, संपादक, संवाहक और सौदागर हैं। हम आग हैं, राख नहीं। हमारी जलती निगाहें हर धुंध और धुएं की जामा तलाशी ले रही हैं। जनतंत्र का जनाजा निकालते लोगों की जामा तलाशी लेना भी हमारा संकल्प है। हम संकल्प की ही बातें करें तो बेहतर होगा। विकल्प तो विवशता है। विवशता विनाश की दहलीज है।
फ्रांस के राजा लुई चौदहवें की पत्नी थीं मैरी एन्टोइनेट। अप्रतिम सुंदर किन्तु सच से अनभिज्ञ। भूखे बिलखते लोगों ने जब राज प्रासाद घेरा तो मैरी एन्टोइनेट ने पूछा यह लोग हा-हाकार क्यों कर रहे हैं? उसकी परिचारिका ने बताया कि लोगों को रोटी नहीं मिल रही। बड़ी मासूमियत से मैरी एन्टोइनेट ने कहा- ''जब लोगों को रोटी नहीं मिल रही तो केक क्यों नहीं खा लेते हैं।'' इसी बात से पैदा हुए झंझावात को फ्रांस की क्रांति कहते हैं। जनता फ्रांस के किले में घुस पड़ी मैरी एन्टोयनेट का सिर मुड़वा कर जूते मारते हुए, उस पर थूकते हुए, फ्रांस की गलियों-सड़कों में उसका जुलूस निकाला गया। भारत में भी फ्रांस की तरह की कई रानी-राजा मैरी एन्टोइनेट नुमा व्यवहार कर रहे हैं पर फ्रांस की क्रांति सुलगाने वाले रूसो, वॉल्टेयर सरीखे लेखक, पत्रकार हैं ही नहीं, जो किसी समाज को चेतन, ज्वलनशील बनाते हों।
उत्तर भारतीयों को जो खतरा मेलबोर्न में है वही मुंबई में। पीट-पीट कर भगाए जा रहे हैं। स्वाभिमान की कसौटी पर सवाल यह नहीं कि हम बार-बार लगातार पीटे जा रहे हैं। सवाल यह है कि यह पिटाई स्वदेसी है या विदेशी? जम्मू-कश्मीर से विस्थापित कश्मीरी पंडितों की सुध किसी को नहीं। उनके पुर्नवास की परवाह में अब कोई परेशान भी नहीं क्योंकि वहां अब उनका वोट बैंक भी शेष नहीं बचा।
दिल्ली की महिला मुख्यमंत्री कहती हैं लड़कियां शाम के बाद घर से न निकलें वरना अपनी असुरक्षा की वह स्वयं जिम्मेदार होंगी। देश का प्रधानमंत्री कहता है मंहगाई के लिए कृषिमंत्री जिम्मेदार हैं। कृषि मंत्री शरद पवार कहते हैं, चीनी महंगी हो गई तो मैं क्या करूं? कब सस्ती होगी? यह पूछे जाने पर कहते हैं मैं क्यों बताऊं, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं। साथ में यह सलाह भी देते हैं कि चीनी महंगी होने से कई फायदे हैं। चीनी महंगी हो गई तो अब आप मजबूरन इसे कम खाएंगे और इससे आपकी डायबिटीज होने की संभावना कम हो जाएगी। रेलमंत्री कहती हैं कि रेल में यात्रा करना यदि अब असुरक्षित हो गया है तो रेल से मत चलो। हवाई जहाज के भी सामान्य दर्जे को शशि थरूर का गरूर 'मवेशी क्लास' बताता है।
इस गणतंत्र पर जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में तिरंगा ही नहीं फहराया गया। क्यों? जवाब देखिए। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला फरमाते हैं कि यह करके हम चुप हो चले अलगाववादियों को उकसाना नहीं चाहते थे। मतलब कि अब देश के किसी कोने में तिरंगा फहराना भी देशद्रोहियों के रहमो करम पर निर्भर है। श्रीनगर में गणतंत्र पर गद्‌दारों की गुस्ताखी ठीक उस समय हो रही थी कि जब लालकिले पर जम्मू-कश्मीर के एक आतंकवादी गुलाम मुहम्मद मीर को देश की सर्वोच्च सत्ता पद्मश्री से सम्मानित कर रही थी।
जहां प्रतिभा और पराक्रम से नहीं महज परिक्रमा से ही देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनते हों। जहां देश पर मरने के लिए जातीय आरक्षण की मांग कभी न उठी हो लेकिन देश को मारने के लिए हर आदमी आरक्षण चाह रहा हो। जहां जज जिद्‌दी, विधायिका बांझ, शातिर सुख में और सूरमा सूली पर हों वहां के लोकतंत्र में लोकलाज भला कहां से होगी। ऐसे में पत्रकारिता से अपेक्षाएं थीं पर अब पत्रकारिता और चाटुकारिता के बीच की गली से होकर शब्दों की जो शवयात्रा निकल पड़ी है उसका आखिरी पड़ाव है दाह संस्कार। पर इस दाह से भी क्या 'शब्द' संस्कारित होंगे और सुलगने लगेंगे? यही अन्तर है 'सुलगने' और 'दहकने' में। अंतरचेतना से जो जलता है उसे 'सुलगना' कहते हैं और बाहरी आग जिसे जला दे उसे 'दहकना' कहते हैं।
हम सुलगते शब्दों के शिल्पी हैं, संपादक और सौदागर भी। क्या आप में सच की वह धार्यता है? यदि हां, तो आओ दो कदम तुम भी आगे बढ़ो, हमारे कदम से कदम, कंधे से कंधा मिलाओ, हाथ से हाथ मिलाओ। हां, अगर आपको दाह संस्कार के लिए तैयार दहकते शब्दों की दरकार है तो हाथ न मिलाना या तो आप सुलग जाओगे या मैं शीतल हो जाऊंगा। मुझे अभी जलना है मेरे मित्र। अगर मिसाल नहीं बन सका, अगर मशाल भी नहीं बन सका तो अगरबत्ती की तरह ही जल लूंगा। अगरबत्ती की तरह जलते हुए भले ही प्रकाश न फैला सकूं, सुगन्ध फैलाने का हक है मुझे। कोई नहीं छीन सकता सुलगते हुए शब्दों की सुगन्ध।
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in February 27, 2010 Issue)

2 comments:

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 20.02.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/

shama said...

मुझे अभी जलना है मेरे मित्र। अगर मिसाल नहीं बन सका, अगर मशाल भी नहीं बन सका तो अगरबत्ती की तरह ही जल लूंगा। अगरबत्ती की तरह जलते हुए भले ही प्रकाश न फैला सकूं, सुगन्ध फैलाने का हक है मुझे। कोई नहीं छीन सकता सुलगते हुए शब्दों की सुगन्ध।
Bahut sundar!