Friday, November 30, 2012

यहाँ राष्ट्र के भक्षण के हर अवसर पर आरक्षण है

"मैं चाहता था कि राष्ट्र योग्य हाथों में हो
पर तेतीस प्रतिशत दलितों का कोटा है
सताईस प्रतिशत पिछड़ों का कोटा है
आबादी के हिसाब से तो पारसी जैन और सिख ही असली अल्पसंख्यक हैं पर
बरबादी करने की क्षमता से दूसरे नंबर के बहुसंख्यक
मुसलमानों को भी
अल्पसंख्यक मान लिया जाए

यह तो गिनती थी बौद्धिक विकलांगों की
यद्यपि शरीर में बुद्धि भी शामिल है
पर यह सिद्दांत भी न्याय की बात करता है अतः उनपर लागू नहीं होता
अभी बुद्धि के अलावा शेष शारीरिक विकलांग शेष हैं
द्रोणाचार्य और एकलव्य के प्रति हर प्राश्चित का प्रतिशत है
हर भक्षण करने वाले को संरक्षण है
परभक्षी को आरक्षण है
सत्ता वंशानुगत है
पदोन्नति क्रमानुगत है
नौकरी जुगत है
योग्यता गतानुगत है
बुद्धि विगत है
हम अच्छी नश्ल के गाय भेस कुत्ते घोड़े पालते हैं पर आदमी नहीं
याद रहे हर विशेषण शोषण का समानुपातिक हक़ होता है
यहाँ राष्ट्र के भक्षण के हर अवसर पर आरक्षण है ."
----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, November 29, 2012

शायद उनकी नज़रों में मैं पाकीज़ा नहीं

"मैं मेहनत करती हूँ
मेरी आत्मा में खरोंचें हैं
पैरों में विबाईयाँ
शायद उनकी नज़रों में मैं पाकीज़ा नहीं
कि लोग मुझसे भी कहें --
आपके पाँव बहुत सुन्दर हैं
इन्हें जमीन पर मत रखना ."
----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, November 27, 2012

विदा होती हूँ मैं ...


"रात की तन्हाई में नदी में डूबती कश्ती देखी कभी तुमने ?
मेरी आँखों में जलते चरागों में डूबती है रात खाली हाथ   
ख्वाब है कोई नहीं अब उस हकीकत का
जो लोक लाजों के भय से दफ्न है दिल में मेरे
यह हकीकत है कि इक बरात मेरे घर पे आयेगी मुझे लेने
जो सच था वह अफ़साना मुझे अफ़सोस देता है
आंसुओं को पी यहाँ मुस्का रही हूँ मैं
और हकीकत यह भी है कि देह मेरी दे दी गयी है
फ़साना छोड़ दो यह फैसला पापा का है मेरी शादी का
मैं जाती हूँ देह रख लो
सहेज कर दहेज़ रख लो
यह घर मेरा कहाँ था ?
वह घर भी तो पराया है
तुम्हारी प्रतिष्टा का हर प्राचीर
प्यार को व्यापार बना कर खुश हुआ होगा
न दहलीज मेरी थी, यहाँ न देह मेरी थी
देह पर मेरी यहाँ कभी संस्कार काबिज था, कभी परिवार काबिज था
कभी पति था मेरा उसका अधिकार काबिज था  
देह तेरी हो मगर यह रूह मेरी है
विदा होती हूँ मैं ..." ---- राजीव चतुर्वेदी

यह आईना दिखाता अनुरोध है !!

"सिख यानी कि सरदार जांबाज मेहनत कर अपना भाग्य खुद बदलने वाले स्वाभमानी लोगों का पंथ है ...मुगलों के दौर में यह उनसे संघर्ष करते रहे जिसमें इनकी कुर्बानी के अंतहीन किस्से हैं ...अंग्रेजों के दौर में यह आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर जूझे ...यह दुनिया में कई जगह ताकतवर स्थिति में हैं और देश का नाम ऊंचा कर रहे है ...अंग्रेजों ने सुनियोजित तरीके से इनको उपहास का विषय बनाया ...इन पर चुटकुलों का प्रचलन हुआ जो आज भी जारी है ...सिख अल्प संख्यक समुदाय है वैसे ही जैसे मुसलमान ...अल्पसंख्यक तो यह मुसलमानों से भी ज्यादा हैं पर भारत को अपना समझते हैं ...भारत के लिए जान देते हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहते फिर भी हम इस महान सम्प्रदाय को निशाने पर ले कर चुटकुले गढ़ते हैं इनकी मजाक बनाते हैं क्योंकि यह सहिष्णु है ...चुटकुले हिन्दूओं को ले कर क्यों नहीं ? चुटकुले मुसलमानों को ले कर क्यों नहीं ?--क्योंकि वह असहिष्णु हैं ? जैनियों पारसीयों को ले कर क्यों नहीं ? ----कृपया इस महान पंथ को याद करे ...गुरु तेग बहादुर ...गुरु गोविन्द सिंह ...भगत सिंह ...ऊधम सिंह जैसे महान सपूतों के सम्प्रदाय की मजाक न बनाएं--- यह आईना दिखाता अनुरोध है !!" --- राजीव चतुर्वेदी

आम आदमी को "आम" की तरह ख़ास आदमी चूसता रहा है


"आम आदमी को "आम" की तरह ख़ास आदमी चूसता रहा है ...मुग़ल कालीन जुमला है "कत्ले आम" यानी यहाँ भी आम आदमी का ही क़त्ल होता था ...अंग्रेजों के समय भी आम आदमी ही गुलाम था ...नेहरू से मनमोहन तक भी आम आदमी की खैर नहीं रही ...रोबर्ट्स बढेरा को भी बनाना रिपब्लिक घोटाले की डकार लेते हुए मेंगो रिपब्लिक लगने लगा कार्टून की दुनिया में आर के लक्ष्मण के "आम आदमी" की हैसियत काक के कार्टूनों में भी नहीं बदली ...आम आदमी पर वामपंथी कविता सुनते ख़ास आदमी ने भी द्वंदात्मक भौतिकवाद दनादन बघारा ...आम आदमी की चिंता में संसद के ख़ास आदमी अक्सर खाँसते हैं ...अब केजरीवाल को भी आम आदमी को आम की तरह चूसना है ...अरे भाई आम आदमी वह है जिसे केरोसीन के तेल का मोल पता हो ...राशन की दूकान की कतार में कातर सा खडा हो ...आलू की कीमत से जो आहात होता हो ...जो बच्चों के साथ खिलोनो की दूकान से कतरा कर निकलता हो ...जो बच्चों को समझाता हो कार बालों को डाईबिटीज़ हो जाती है क्योंकि वह पैदल नहीं चलते ...आम आदमी अंगरेजी नहीं बोलता ...आम आदमी के बच्चे मुनिस्पिल स्कूल में पढ़ते है। वहां टाट -पट्टी पर बैठ कर इमला लिखते हैं ...वह जब कभी रोडवेज़ बस से चलता है ...उसका इनकम टेक्स से उसका कोई वास्ता नहीं होता किन्तु वह इनकम टेक्स अधिकारी से भी उतना ही डरता है जितना और सभी घूसखोर अधिकारियों से डरता है क्योंकि घूस देने पर उसके सपनो का एक कोना तो टूट ही जाता है ...आम आदमी देश की मिट्टी से जुडा होता है वह खेत की मिट्टी देख कर बता देता है कि यह बलुअर है या दोमट ...आम आदमी मिट्टी देख कर बता देता है इस मिट्टी में कौन सी फसल होगी बिलकुल वैसे ही जैसे कोई केजरीवाल बताता हो इस मिट्टी में कौन सा वोट उगेगा ?" --- राजीव चतुर्वेदी

Monday, November 12, 2012

शोकगीत में उगी हुई यह कविता तुम्हें कैसी लगी ?

"हमेशा की तरह इस बार भी त्यौहार पर मुझे लोग पूछेंगे
बता देना --वह अब यहाँ नहीं रहता
दर -ओ -दीवार में भी नहीं
दिल -ओ -दिमाग में भी नहीं
यहाँ तो मर गया था वह
जनाजा जिम्मेदारी से वह खुद ही ले गया अपना, जरूरत के लिफ़ाफ़े में
वह किश्तों में मर रहा है फिर भी ज़िंदा है 
हमारे लिए तो वह मर चुका है
तुम्हारे लिए ज़िंदा हो तो तलाश लो
ज़िंदा होगा कहीं अपने वीराने में
वह मर तो गया था बहुत पहले
पर सुना है सांस लेता है अभी
लोगों का मन रखने को हंसता भी है
प्यार के अभिवादन में मुस्कुराता भी है
वह मिजाज से रंगीन नहीं ग़मगीन सा था
वह कभी भी दीपावली पर पटाके नहीं चलाता था
उसे शोर नहीं पसंद ...संगीत पर भी वह नहीं थिरकता
दैहिक सुन्दरता उसे मुग्ध नहीं करती
दार्शनिक सुन्दरता वह समझता है
मरा हुआ आदमी शांत होता है न
पर संवेदना से वह सहम सा जाता है
शायद इसीलिए लोग उसे ज़िंदा मानते हैं ...औरों से ज्यादा ज़िंदा
उसके वीराने में कोई दस्तक दे ...यह उसे पसंद नहीं था पहले
उसकी मौजूदगी ऐसी थी जैसे शवयात्रा में कोई खिलखिला कर हंस पड़े
पर वह मर चुका है
उसके मरने की खबर सुन कर कुछ लोग खुश हैं 
वह मर कर भी उनको खुशी दे गया
जो दुखी हैं वह इसलिए कि अब वह और खुशी नहीं दे सकेगा
वह अन्दर से तिलमिलाता
और बाहर से खिलखिलाता
अपनी शवयात्रा में शामिल है
सुना है वह बहुत साहसी है ...मरने से नहीं डरता
मर चुका आदमी भला मरने से डरेगा भी क्यों ?
मैंने उसे छोड़ दिया तो कौन सी बड़ी बात है
शरीर को आत्मा भी तो छोड़ देती है एक रोज
वह डूब रहा है अपने ही सन्नाटे में
बाहर के सन्नाटे से शोकाकुल है वह
वह अजीब है
डूबता हुआ आदमी, तैरता है तुम्हारी यादों में
जैसे लाश तैरती हो नदी में
जैसे आस तैरती हो सदी में
शोकगीत में उगी हुई यह कविता तुम्हें कैसी लगी ?
मरने के पहले वह बहुत कुछ जानना चाहता था, ...यह भी."
  ---- राजीव चतुर्वेदी 

अतः आज हम मनाते हैं महिला मुक्ति दिवस

" !! भगवान् कृष्ण ने आज नरकासुर का वध करके उसके शोषण से 16000 महिलाओं को मुक्त कराया था। नरकासुर का राज्य वर्तमान भारत के पूर्वोत्तर राज्यों (असाम /सिक्किम /मेघालय मणिपुर ) में था। यह हमला करके महिलाओं को उठा लेजाता था। कृष्ण महिला समानता और स्वतंत्रता के पक्षधर थे। जब उनको नरकासुर की करतूतों का पता चला तो उन्होंने लगभग कमांडो की शैली में कार्यवाही करते हुए नरकासुर का वध किया था। किन्तु न भूलें अभी नरकासुर के और भी छोटे, बड़े, मझोले संस्करण समाज में मौजूद हैं। अभी भी नरकासुर के क्षेत्र से विश्व की सब से ज्यादा बाल वेश्याएं आ रही हैं। अभी भी वहां देह व्यापार के सबसे बड़े अड्डे हैं। अभी भी भारतीय समाज में दहेज़खोर हैं ...अभी भी महिलाओं को मुकम्मल मुक्ति नहीं मिली है। क्या आज के दिन हम भगवान् कृष्ण से कोइ प्रेरणा लेंगे ? नरकासुर केनाम से ही इस दिन को नरक चतुर्दसी कहते हैं। नारी शोषण की मानसिकता का आज वध हुआ था अतः आज हम मनाते हैं महिला मुक्ति दिवस !! "---राजीव चतुर्वेदी


Sunday, November 11, 2012

धन्य त्रियोदसी


"!! धन्यवाद ज्ञापन ही "धन्य त्रियोदसी" यानी कि धनतेरस का उद्देश्य है. आज के दिन ही एक लम्बे निर्वासन के बाद भगवान् राम जो नैतिकता / मर्यादा के प्रतीक माने जाते हैं अपने स्थान पर वापस आये थे. इसे प्रतीकात्मक रूप से बोला जाए तो today after a long exile virtues ( नैतिकता / मर्यादा ) returned home. This story relates to Ram's exile and his return to Ayodhya. इस धन्यभाव के  "धन्य" का अपभ्रंश हो कर "धन" होगया . अब धन प्रधान समाज में धनतेरस है. सरकारी दफ्तरों मैं , अदालत के पेशकारों मैं , सत्ता के दलालों मैं , साहूकारों की गद्दी पर धनतेरस है और असली भारत धन को तरस रहा है उसकी "धन तरस" है . !!---- धन्य त्रियोदसी की शुभ और मंगल कामना।" --- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, November 6, 2012

सपने भी सहमे हैं इन बच्चों के

"सपने भी सहमे हैं इन बच्चों के अपनों की बात करें भी क्यों ?
मानवता के अक्षांश अबोधों को क्या मालुम
यह सदी सुबोधों की कुछ शातिर सी भी है
और अबोधों की बस्ती पर इन सिद्धों की नज़र गिद्ध सी है
देशांतर के दिशाबोध से हर सुबोध संपन्न बना है
यहाँ अबोधों के बच्चों को अब गुलाम बनना ही होगा
जूझ रहे जीवन में इनके जूठन एक सहारा होगी
लालकिले के प्राचीरों से धारावी की धरा भी देखो
समझ सको तो समझ ये जाना
संभ्रांतों को मिली स्वतंत्रता अब सवाल है
भारत का जन -गण-मन तो अब भी फाटे हाल है." ---- राजीव चतुर्वेदी

Monday, November 5, 2012

मैं भी मुस्कुराना चाहता था

"मैं भी मुस्कुराना चाहता था,
यह एक पंक्ति की बात तुम्हें कविता तो नहीं लगी होगी
कविता के ठेकेदारों के लिए यह कविता है भी नहीं
यह कहानी भी नहीं है ...उपन्यास भी नहीं कि इसका कोई बाजार हो
यह बड़े आदमी के साथ घटी कोई छोटी सी घटना भी तो नहीं है कि
इतिहास कहा जाये
इस लिए इतिहासविदों के लिए इतिहास भी नहीं है
यह किसी बेजान दारूवाला की दारू जैसी भविष्यवाणी भी नहीं
यह समाज शास्त्र भी नहीं ...अर्थशास्त्र भी
नहीं
भौतिक ..रसायन ..भूगोल ...या बायलोजी भी नहीं ...सायक्लोजी भी नहीं
यह एक व्यक्ति की इच्छा है वोट बैंक की नहीं अतः राजनीति भी नहीं
संविधान के किसी भी प्राविधान में मुस्कुराना तो मौलिक अधिकार भी नहीं
इस लिए यह असंवैधानिक इच्छा है
इस मुश्किल हालात में मुस्कुराने का हक़ तो था मुझे
मैं भी मुस्कुराना चाहता था
मैं जानता हूँ तुम्हें यह कविता नहीं लगेगी
पर फिर भी
मैं मुस्कुराना चाहता था ."
--- राजीव चतुर्वेदी

...वरना मैं चुप हो जाऊंगा

"हर कविता मेरा आंसू है,-क्या तुम पर उसका साँचा है?
यह बात बताना तुम मुझको वरना मैं चुप हो जाऊंगा."
---- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, November 4, 2012

जब मौत मेरी हमसफ़र हो तो डरूं किससे यहाँ ?

"जिन्दगी के कई सफ़र में मौत मेरी घात में थी,
जब मौत मेरी हमसफ़र हो तो डरूं किससे यहाँ ?"
                 --- राजीव चतुर्वेदी

यह स्मृति है... स्मृत का क्या ?

"बाबा के मरने के बाद भी
मैं सुन सकता हूँ उनकी खांसती आवाज
और उस आवाज़ के बीच में गाय का रम्भाना
वह मरफ़ी का ट्रांजिस्टर और उसके साथ भजन गुनगुनाना
पाकिस्तान के हमले की बुलेटिन पर बुदबुदाती विबशता
दूर शहर में बंगले में नाती, गमले के पौधे
और गाँव में गाय को पानी पिलाने की चिंता
वह गाँव में दोपहर को पंहुचता सुबह का अखबार
जिसको पढ़ कर बांचे जाते थे समाचार और समाज के सरोकार
जिन्दगी की शाम को सुबह का इंतज़ार
उम्र के अंतिम दौर में दादी का अपने सुहाग के दीर्घायु होने का अब भी शर्माता सा सपना
वह रात को सोते समय दूध का गिलास
वह सुबह ..वह आँगन ...वह तुलसी का घरोंदा
वह भूरा और कलुआ जैसा जूठन पर अधिकार जताता कुत्ता
जिसकी आँखों में हिंसा कम और प्यार ज्यादा था
अब तो दादी- बाबा की बस स्मृति शेष है
बाबा की बरसी पर पिता और चाचाओं ने बेच दिया था बाबा का मकान
वह बूढा बैल, श्यामा गाय, शीसम का तखत,
उम्र की दीमग से सहेज कर रखी
दादी के यहाँ से दहेज़ में आयी मेज
जूट के पट्टे पर झूला सा झुलाती वह आराम कुर्सी
वह लोभी आढ़तिया अब भी अपनी गद्दी पर लेटा है
पापा के पढने को दादी की हंसुली गिरवी रखी जहां थी
वह तोता भी उड़ गया कहीं
वह पिजड़ा भी अब खाली है
यह स्मृति है... स्मृत का क्या ?
अब तो स्मृत ही शेष बची है
चलो यहाँ      
कल अपनी भी बारी होगी
कुछ ऐसी ही तैयारी होगी." ----राजीव चतुर्वेदी