Tuesday, May 29, 2012

भगवान् वही बन पाया जिसके हाथों में हथियार बहुत थे

"क़यामत तो उस दिन होगी
जिस दिन पूरी कायनात के क़त्ल हो चुके लोग एक साथ खड़े हो जायेंगे
और चीख कर पूछेंगे ---
भगवान् तू क्यों था कातिलों पर मेहरवान
किसी खुदा का खौफ अब मुझको नहीं
खून से सना यह खुदा तेरा है मेरा नहीं

फूल कली मकरंदों की तुम बात न करना,
इस कोलाहल में हत्यारे हमको हैं प्यारे
भगवान् वही बन पाया जिसके हाथों में हथियार बहुत थे
ह्त्या का अधिकार उसे था
शान्ति कभी पूजी थी हमने ?--- यह बतलाओ
भय का यह भूगोल समझ लो
सफदरजंग बड़ा कातिल था उसके नाम अस्पताल है
अल्लाह उनके लिए महान है घर- घर उनके सूफियान है
इतिहासों में दर्ज इमारत को तुम देखो
हर मजहब की दर्ज इबारत को तुम देखो
मजहब का हर हर्फ़ लहू से लिखने वालो
आंधी की दहशत से दीपक सहमे तो हैं
सच्चाई की शहतीरों पर तहरीरों को दर्ज करो तुम
क़त्ल हो चुके लोगों की रूहें चीख रही हैं
मंदिर की आवाज़े मस्जिद की नवाज की नैतिकता नृशंस है कितनी
कातिल को भगवान् बताने वालो बोलो ---यह मजहब तेरा है
मेरा कैसे होगा ?---मैं तो क़त्ल हुआ था
मेरे खून के धब्बे धर्म तुम्हें लगते हैं
शब्द हैं तेरे , संसद तेरी, शास्त्र तुम्हारे, शर्त तुम्हारी, सूत्र हैं तेरे ,शरियत तेरी
तुम शातिर हो, सूफियान हो, अल्लाह तुम हो, भगवान् हो
मैं ज्ञानी हूँ, मैं ही दानी बब्रूवाहन का आवाहन कौन करेगा ?
हर प्रबुद्ध के युद्ध को देखो ...हर टूटी प्रतिमा जो टूटी प्रेम की प्रतिमा सी दिखती है
क़त्ल कर दिए बच्चों पर जो बिलख रही हर औरत मुझको फातिमा सी दिखती है
क़त्ल हो चुके कर्ण से पूछो
धर्म -कर्म के बीच की दूरी आज उत्तरा के आंसू में उत्तर खोज रही है.
क़यामत तो उस दिन होगी
जिस दिन पूरी कायनात के क़त्ल हो चुके लोग एक साथ खड़े हो जायेंगे
और चीख कर पूछेंगे ---
भगवान् तू क्यों था कातिलों पर मेहरवान
किसी खुदा का खौफ अब मुझको नहीं
खून से सना यह खुदा तेरा है मेरा नहीं." ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, May 27, 2012

"मैं नहीं हूँ अब वहां
हो सके तो अक्स को अहसास दो
आहात है वह." -----राजीव चतुर्वेदी 

Saturday, May 26, 2012

महात्मा गांधी की हत्या की सच्चाई


 इस लेख को पढकर आपके आंखे खुल जायेगी कुछ धर्म के ठेकेदार अपना उल्लू सीधा करने के लिये किस तरह इतिहास को तोड़ मरोड़कर पेश कर रहे है वो भी देखे , महात्मा गांधी की हत्या की सच्चाई आपके सामने ला रहा हूं। अब तक आप जो नही जान पाये वो आज जाने ----
"गांधी ह्त्या के पीछे ये मतान्ध हिन्दुवादी तीन कारण बताते है
* पहला मिथ यह है कि गांधीजी मुसलमानों तथा पाकिस्तान के पक्षपाती थे।*दूसरा 'मिथ' यह है कि गांधीजी की हत्या 55 करोड रुपयों के कारण की गयी * तीसरा 'मिथ' यह है गांधी की हत्या करनेवाले बहादुर, देशभक्त और प्रामाणिक व्यक्ति थे। परन्तु सत्य यह है कि ये तीनों 'मिथ' बिलकुल गलत हैं। आइये इन तीनो कारणो की सच्चाई बताते है
नाथूराम और उसके साथियों ने जान-बूझकर, षड्यंत्रपूर्वक ठण्डे कलेजे से गांधीजी की हत्या की थी।
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'पन्नास कोटीचे बली' नाथूराम का अदालत में दिया हुआ बचावनामा है, और 'गांधी आणि मी' गोपाल गोडसे की, आजीवन कैद की सजा होने के बाद लिखी गयी पुस्तक है। ये दोनों पुस्तकें पढने के बाद मुझे महसूस हुआ कि नाथूराम गोडसे धर्मजनूनी जरूर था, मगर पागल नहीं था। हम जिसको सिरफिरा कहते हैं, ऐसा तो वह हरगिज नहीं था।
मुसलमानों ने भारत का विभाजन करवाया, फिर भी मुसलमानों, उनके संगठन मुस्लिम लीग तथा नवनिर्मित पाकिस्तान के प्रति गांधीजी ने नरम रुख अपनाया था, ऐसी दलीलें उन पुस्तकों में तथा अन्यत्र भी हिन्दुत्ववादी देते रहे हैं। उनकी नजर में, तब तो हद ही हो गयी, जब गांधीजी ने पाकिस्तान को, उसके हिस्से के, 55 करोड रुपये देने की जिद की, और उपवास की धमकी तक दे डाली। पाकिस्तान में हिन्दुओं पर अत्याचार तथा कश्मीर पर हमला करनेवालों को 55 करोड रुपये देने की बात से उनेजित होकर नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या की थी, ऐसा उन पुस्तकों में कहा गया है। आम तौर पर गांधीजी की हत्या के सम्बन्ध में, आम लोगों की भी धारणा ऐसी ही है। अनेक इतिहासकार और पत्रकार भी ऐसा ही मानते हैं। इतिहास की पाठय़पुस्तकों में भी हत्या का यही कारण बताया जाता है।
     गोडसे-बन्धुओं की पुस्तकों को पढने के बाद हत्या का सही कारण जानने के लिए मैंने अन्य अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। प्यारेलाल लिखित 'द लास्ट फेज', गांधी हत्या का केस जिनकी अदालत में चला था उन न्यायमूर्ति खोसला की लिखी पुस्तक, ग्वालियर के बचाव पक्ष के वकील एडवोकेट इनामदार के संस्मरण, और गोडसे- बन्धुओं का प्रतिवाद करनेवाली कई दूसरी पुस्तकें पढने के बाद मुझे यकीन हो गया कि गांधीजी की हत्या 55 करोड रुपये के प्रकरण से उनेजित होकर नहीं की गयी थी। भारत का विभाजन और 55 करोड रुपये का प्रश्न खडा हुआ, उसके बहुत पहले ही इस टोली ने गांधीजी की हत्या करने का निश्चय कर लिया था और कई बार गांधीजी की हत्या करने के प्रयास भी किये
गये थे।
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पाकिस्तान को 55 करोड़ देने के प्रश्न पर की हत्या ?? ये बात पूरी तरह झूठ है
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55 करोड रुपये का प्रश्न तो 12 जनवरी, 1948 को यानी गांधीजी की हत्या के 18 दिन पहले प्रस्तुत हुआ था। इससे पहले, चार बार गांधीजी की- हत्या के प्रयास हिन्दुत्ववादियों ने क्यों किये थे, इसका उनर उनको देना चाहिए।
नाथूराम गोडसे उस समय पूना से 'अग्रणील् नाम की मराठी पत्रिका निकालता था। गांधीजी की 125 वर्ष जीने की इच्छा जाहिर होने के बाद 'अग्रणी' के एक अंक में नाथूराम ने लिखा- 'पर जीने कौन देगा ?' यानी कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा ? गांधीजी की हत्या से डेढ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य है। यह कथन साबित करता है कि वे गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से प्रयासरत थे। 'अग्रणी' का यह अंक शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध है।
फिर 55 करोड़ का सवाल कहा से आया ?
प्रथम बार हत्या का प्रयास :
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गांधी-हत्या के प्रयास 1934 से ही !गांधीजी भारत आये उसके बाद उनकी हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934 को किया गया। पूना में गांधीजी एक सभा को सम्बोधित करने के लिए जा रहे थे, तब उनकी मोटर पर बम फेंका गया था। गांधीजी पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच गये। हत्या का यह प्रयास हिन्दुत्ववादियों के एक गुट ने किया था। बम फेंकने वाले के जूते में गांधीजी तथा नेहरू के चित्र पाये गये थे, ऐसा पुलिसगरिपोर्ट में दर्ज है। 1934 में तो पाकिस्तान नाम की कोई चीज क्षितिज पर थी नहीं, 55 करोड रुपयों का सवाल ही कहा! से पैदा होता ?
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गांधीजी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 में पंचगनी में किया गया।
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जुलाई 1944 में गांधीजी बीमारी के बाद आराम करने के लिए पंचगनी गये थे। तब पूना से 20 युवकों का एक गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा। दिनभर वे गांधी-विरोधी नारे लगाते रहे। इस गुट के नेता नाथूराम गोडसे को गांधीजी ने बात करने के लिए बुलाया। मगर नाथूराम ने गांधीजी से मिलने के लिए इन्कार कर दिया। शाम को प्रार्थना सभा में नाथूराम हाथ में छुरा लेकर गांधीजी की तरफ लपका। पूना के सूरती-लॉज के मालिक मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी नाम के युवक ने नाथूराम को पकड लिया। पुलिस-रिकार्ड में नाथूराम का नाम नहीं है, परन्तु मशिशंकर पुरोहित तथा भीलारे गुरुजी ने गांधी-हत्या की जा!च करने वाले कपूर-कमीशन के समक्ष स्पष्ट शब्दों में नाथूराम का नाम इस घटना पर अपना बयान देते समय लिया था। भीलारे गुरुजी अभी जिन्दा हैं। 1944 में तो पाकिस्तान बन जाएगा, इसका खुद मुहम्मद अली जिन्ना को भी भरोसा नहीं था। ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि 1946 तक मुहम्मद अली जिन्ना प्रस्तावित पाकिस्तान का उपयोग सना में अधिक भागीदारी हासिल करने के लिए ही करते रहे थे। जब पाकिस्तान का नामोनिशान भी नहीं था, तब क्यों नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या का प्रयास किया था ?
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गांधीजी की हत्या का तीसरा प्रयास
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भी इसी वर्ष 1944 सितम्बर में, वर्धा में, किया गया था। गांधीजी मुहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करने के लिए बम्बई जाने वाले थे। गांधीजी बम्बई न जा सके, इसके लिए पूना से एक गुट वर्धा पहु!चा। उसका नेतृत्व नाथूराम कर रहा था। उस गुट के थने के नाम के व्यक्ति के पास से छुरा बरामद हुआ था। यह बात पुलिस-रिपोर्ट में दर्ज है। यह छुरा गांधीजी की मोटर के टायर को पंक्चर करने के लिए लाया गया था, ऐसा बयान थने ने अपने बचाव में दिया था।
" यह बहुत ही उनेजित स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ चिंता होती थी। गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला। (महात्मा गांधी : पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड, पृष्ठ 114)
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गांधीजी की हत्या का चौथा प्रयास
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29 जून, 1946 को किया गया था। गांधीजी विशेष टेंन से बम्बई से पूना जा रहे थे, उस समय नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच में रेल पटरी पर बडा पत्थर रखा गया था। उस रात को डांइवर की सूझ-बूझ के कारण गांधीजी बच गये।
हिन्दुत्ववादियों की आँख में गांधीजी किरकिरी की तरह खटकते थे। 55 करोड रुपयों की तो बात ही क्या, पाकिस्तान किसी के सपने में नहीं था, तब से ये गांधीजी की हत्या करने के प्रयास में जुट गये थे। दुखद तथ्य यह है कि भारत में गांधीजी की हत्या के जो प्रयास हुए हैं, उनमें सबमें अधिक पूना के लोग ही शामिल थे। इस प्रकार के तीन प्रयासों में, और अन्त में हत्या में, खुद नाथूराम गोडसे शामिल था। 55 करोड रुपये का प्रश्न तो 12 जनवरी, 1948 को यानी गांधीजी की हत्या के 18 दिन पहले प्रस्तुत हुआ था। इससे पहले, चार बार गांधीजी की- हत्या के प्रयास हिन्दुत्ववादियों ने क्यों किये थे, इसका उनर उनको देना चाहिए।
पाकिस्तान का निर्माण किसने किया ?
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1937 में हिन्दू महासभा के अहमदाबाद-अधिवेशन में खुद सावरकर ने द्विराष्टंवाद के सिद्धान्त का समर्थन किया था। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के लिए प्रस्ताव किया, उससे तीन वर्ष पूर्व ही सावरकर ने हिन्दू और मुसलमान, ये दो अलग-अलग राष्टींयताए! हैं, यह प्रतिपादित किया था। जब दो साम्प्रदायिक ताकतें एक-दूसरे के खिलाफ काम करने लगती हैं, तब दोनों एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होती हैं, और वह होता है आत्मविनाश का। हिन्दू सम्प्रदायवादियों ने ऐसा करके अंग्रेजों और भारत-विभाजन चाहने वाले मुसलमानों को फायदा ही पहु!चाया था।
मतान्ध हिन्दुत्व वादियो ने किया 1942 की आजादी के आन्दोलन का विरोध
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इन महान देशप्रेमियों ने 1942 की आजादी के आन्दोलन में तो भाग नहीं ही लिया था, उल्टे ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर यह जानकारी भी दी थी कि हम आन्दोलन का समर्थन नहीं करते हैं। गांधीजी आये, उसके पहले राष्टींय राजनीति का नेतृत्व उनके पास ही था। लेकिन तब भी उन्होंने उन दिनों कोई बडा पराव्म नहीं किया था, यह हम सबकी जानकारी में है ही। गांधी के आने के बाद भी इन लोगों ने राष्टंहित में कोई मामूली काम करने की भी जहमत नहीं उठाई।
गुरु गोलवलकर ने ऐडाल्फ हिटलर का अभिनन्दन किया, फिर भी अंग्रेजों ने उनको गिरफ्तार नहीं किया। रु गोलवलकर की लिखी
"We, Our Nationhood Defined" शीर्षक पुस्तक तो हिटलर की भी तारीफ करने वाली एक गन्दी पुस्तक है। यद्यपि आर.एस.एस. ने इस पुस्तक का प्रकाशन अब बन्द कर दिया है, लेकिन इस पुस्तक में व्यक्त विचारों में संघ की आस्था अब नहीं रही, ऐसी घोषणा आर. स. स. ने आज तक नहीं की है।
कारण यह कि अंग्रेज मानते थे कि ये दो कौडी के निकम्मे लोग हैं। ये लोग तो तला पापड भी नहीं तोड सकते ! अंग्रेजों का यह आकलन था उनकी ताकत के बारे में।

भारत-विभाजन के लिए जितने जिम्मेदार मुस्लिम लीग तथा अंग्रेज हैं, उतने ही ये मतान्ध हिन्दुत्ववादी भी जिम्मेदार हैं।
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आजाद भारत में हिन्दू ही हुकूमत करेंगे, ऐसा शोर मचाकर हिन्दुत्ववादियों ने विभाजनवादी मुसलमानों के लिए एक ठोस आधार दे दिया था। ये विभाजनवादी लोग मुहम्मद अली जिन्ना, सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी आदि का भय दिखाकर उनका चालाकीपूर्वक उपयोग करते थे। हिन्दुत्ववादी अभी भी अपनी बेवकूफियों पर गर्व का अनुभव करते हैं। अंग्रेजों को जिन्हें कभी जेल में रखने की जरूरत ही नहीं पडी, उन गोलवलकर की अदृश्य ताकत का उपयोग अंग्रेज गांधीजी के खिलाफ करते थे। शहाबुद्दीन राठौड की भाषा में कहें तो उस समय की राष्टींय राजनीति में यो लोग जयचन्द थे। भारत का विभाजन गांधी के कारण नहीं हुआ है, इन लोगों के कारण हुआ है। गांधीजी ने तो अन्त तक भारत विभाजन का विरोध किया था।
गांधीजी ने अलग राष्ट्र नही पाकिस्तान को स्टेट माना था।
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(देखें प्यारेलाल लिखित 'लास्ट फेज') गांधीजी सर्वसमावेशक उदार राष्टंवादी थे। इसीलिए उन्होंने सब कौमों को अपनाया था, मात्र मुसलमानों को ही नहीं। प्रत्येक छोटी अस्मिता व्यापक राष्टींयता में मिल जाय, यह चाहते थे गांधीजी। एक राष्टींय नेता की यह दूरदृष्टि थी।
विभाजन रोकने के लिए इन लोगों ने क्या किया ?
। गांधीजी को भारत-विभाजन रोकना चाहिए था, यह मांग ये लोग किस मु!ह से करते हैं ? गांधीजी को विभाजन रोकने के लिए उपवास करना चाहिए था, ऐसी अपेक्षा करने का इनको क्या नैतिक-अधिकार है ? जिसको आप देश के लिए कलंक समझते हैं, जिसका वध करना जरूरी मानते हैं, उसी से आप ऐसी अपेक्षाए! भी रखते हैं?
आपने क्यों नहीं विभाजन को रोकने के लिए कुछ किया ? सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर ने विभाजन के विरुद्ध क्यों नहीं आमरण उपवास किया ? क्यों नहीं इसके लिए उन्होंने हिन्दुओं का व्यापक आन्दोलन चलाया ? जिसको गालिया! देते हों, उसी से देश बचाने की गुहार भी लगाते हो ? और जब गांधीजी अकेले पड जाने के कारण देश का विभाजन रोक नहीं पाये, तब आप उनको राक्षस मानकर उनका वध करने की साजिश रचते हो ? इसको मर्दानगी कहेंगे या नपुंसकता ?
गोपाल गोडसे तथा अन्य दूसरे अनेक मतान्ध हिन्दुत्ववादी विद्वानों के समक्ष ऐसे सवाल उठाये गये हैं, लेकिन किसी के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। इन सबके बावजूद भी ये अपनी डिंगे हांकने से बाज नहीं आते हैं। सत्य को जानते हुए भी जो असत्य का प्रचार करे, उसको धूर्त ही कहेंगे। ये मतान्ध हिन्दुत्ववादी पहले दर्जे के धूर्त हैं।
भारत-विभाजन के लिए गांधीजी जिम्मेदार नहीं थे। भारत-विभाजन के लिए कई ऐतिहासिक तथा सामयिक तन्व एवं ताकतें जिम्मेदार थी। ब!टवारा चाहने वाले मुसलमान जिम्मेदार थे, अंग्रेज जिम्मेदार थे तथा उनके कारनामों के लिए अनुकूल राह बनाने-दिखाने वाले मतान्ध हिन्दुत्ववादी जिम्मेदार थे।
ये मतान्ध हिन्दुत्ववादी लगातार जो तीन झूठ बोल रहे हैं, उन झूठों की पोल इस लेख को पढने के बाद खुल गई होगी ।
गांधी-हत्या की प्रेरक शक्तिया और गोडसे जैसे हिन्दू राष्ट्रवादियों को पहचानें
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गांधी की हत्या के साथ 55 करोड रुपयों का कोई सम्बन्ध नहीं हैं, इस बात की स्पष्टता के बाद अब हिन्दुत्ववादियों द्वारा प्रस्थापित तीसरे, 'मिथ' की भी चर्चा कर लें। यह तीसरा, 'मिथ' है कि गांधीजी के हत्यारे प्रामाणिक देशभक्त और बहादूर थे।
जैसा कि इनके द्वारा प्रचारित किया जाता है। 'मी नाथूराम गोडसे बोलतोय' नाटक में नाथूराम की ऐसी ही छवि उभारने की कोशिश की गयी है। जो लोग असत्य तथा अर्धसत्य का सहारा लेते हैं क्या उनको प्रामाणिक और बहादुर कहा जा सकता है ? जो लोग सन्दर्भ को तोड-मरोड कर झूठ फैलाते हैं उनको बदमाश कहते हैं या बहादूर ? इन लोगों ने गांधीजी की हत्या का असली कारण बताने का साहस किया होता तो जरूर उनको प्रामाणिक कहा जा सकता था। गांधीजी की हत्या के लिए किये गये पिछले निष्फल प्रयासों की जिम्मेदारी भी कबूल की होती, तो भी कुछ भिन्न बात होती। एक अहिंसानिष्ठ निःशस्त्र व्यक्ति की हत्या करना कोई मर्दानगी नहीं, कोरी नपुंसकता है। जो लोग तार्किक रीति से अपनी बात दूसरों को समझा नहीं सकते, वे ही लोग हिंसा का सहारा लेते हैं। हिंसा बुजदिलों का मार्ग है, शूरवीरों का नहीं। अपनी निष्फलता और हताशा में ही हिन्दुत्ववादियों ने गांधीजी की हत्या की थी।

जिस व्यक्ति के कारण अपने अस्तित्व पर संकट आता है, वह व्यक्ति कांटे की तरह चुभने लगता है और तब उस कांटे को निकलाने का प्रयत्न होता है। हिन्दुत्ववादी समाचार-पत्रों में गांधीजी की कटु आलोचनाए! छपती थी। गांधीजी को अभद्र गालिया! देने वाली छोटीगछोटी पत्र-पत्रिकाए!,प्रचारगपुस्तिकाए! तो इतनी छपवाते थे कि यदि उनका संग्रह किया जाता तो एक कमरा ही भर जाता। कुछ महान देशभक्त तो इतने शूरवीर थे कि अपना नाम भी छापने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी।

गांधी-द्वेष और मुस्लिम-द्वेष से ये हिन्दू राष्टंवादी इतने पीडित थे कि राष्टंहित किसमें है यह उनकी समझ में ही नहीं आता था। उनके पेट में दर्द तो इस बात का था कि गांधीजी के आने के बाद नेतृत्व उनके हाथ से चला गया था। इतना ही नहीं, उनकी 'हिन्दूगब्राण्डराजनीति' भी कालबाह्य हो चुकी थी। ब्रांणवादी राष्टंवाद की जगह ले ली थी उदार गांधीवादी राष्टंवाद ने। जाति-पा!ति, पंथ, लिंग आदि भेदभावों को भूलकर जनता गांधीजी के पीछे चलने लगी थी। राजनीति की बुनियाद से साम्प्रदायिकता को हटाकर, गांधीजी ने उसकी जगह अध्यात्म को प्रस्थापित कर दिया था। अध्यात्म की बुनियाद पर मानवतावादी राजनीति की इस नयी धारा ने गांधीजी को महात्मा बना दिया और हिन्दुत्ववादी क्षीण होतेगहोते हासिये पर चले गये थे। जो बहुत महन्वाकांक्षी नहीं थे ऐसे कई साम्प्रदायिक लोग राजनीति से अलग हो गये। जनूनी और महन्वाकांक्षी सम्प्रदायवादियों की हालत पतली हो गयी। वे गांधीजी के साथ जा नहीं सकते थे और जनता उनके साथ आने के लिए तैयार नहीं थी।

नाथूराम गोडसे का आर.एस.एस. से सम्बन्ध नहीं रहा है, ऐसा घोषित करने की भीख आर.एस.एस. के नेताओं ने नाथूराम से ही मांगी थी। हकीकत यह है कि गांधी-हत्या के पाच वर्ष पहले तक नाथूराम आर.एस.एस. का प्रचारक था।

ये लोग योजनाबद्ध तरीके से सरदार पटेल को हिन्दुत्ववादी साबित करने की नीच हरकतें कर रहे थे।
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आर.एस.एस. पर से प्रतिबन्ध उठाया जा सके, इसके लिए सरदार पटेल ने नाथूराम को ऐसा घोषित करने के लिए कहा था, यह दावा गोपाल गोडसे करते हैं। इस प्रकार सरदार पटेल हिन्दुत्ववादी थे, और आर.एस.एस. से मिले हुए थे.
ऐसा गन्दा संकेत ये दो लोग बेशर्मी से करते हैं। आरम्भ में गुरु गोलवलकर की लिखी 'Our Nationhood Defined" पुस्तक का उल्लेख किया गया है। इस पुस्तक का प्रकाशन 1939 में हुआ था। इस पुस्तक के कारण जब आर.एस.एस. के लिए कठिनाइया! बढने लगी, तब तुरन्त उससे छुटकारा पाने के लिए गुरु गोलवलकर ने इस पुस्तक के लेखक का नाम बदलकर बाबाराव सावरकर कर दिया। दूसरे के नाम की पुस्तक अपने नाम पर प्रकाशित कराने की बात हमने सुनी है। परन्तु इस आदमी ने तो अपनी चमडी बचाने के लिए अपनी ही पुस्तक दूसरे के नाम कर दी। ऐसे कायर और कपटी आदमी को क्या प्रामाणिक, बहादुर और देशभक्त कहा जा सकता है ? गोपाल गोडसे ने जेल से छूटने के लिए भारत सरकार को एकगदो बार नहीं, 22 बार अर्जी दी थी और ऐसे लोग अपने को शूरवीर कहते हैं।

नाथूराम ने गांधीजी की हत्या करने के प्रयास अधिकतर प्रार्थना-सभाओंमें ही किये। जब सब लोग प्रार्थना में लीन हों, उस वक्त ये 'नरबा!कुरे' गांधीजी की हत्या करना चाहते थे। पूजा-प्रार्थना कर रहे आदमी पर हमला नहीं करना चाहिए, ऐसा हिन्दुत्ववादियों के प्रिय हिन्दू-युद्ध शास्त्र में कहा गया है। ये नामर्द तो अपनी संस्कृति का भी अनुसरण नहीं कर सकते। हजारों लोगों की उपस्थिति वाली, गांधीजी की प्रार्थना-सभा में बम फेंकने में भी इन लोगों को शर्म नहीं आयी। जिन लोगों के लिए निर्दोष व्यक्तियों की जान की कोई कीमत नहीं, उनको क्या प्रामाणिक, बहादुर और देशभक्त कहा जा सकता है ?????"   -----कमल राजपुरोहित

Wednesday, May 23, 2012

अखबारों में बिखरी हर आह दर्ज करो अब दस्तावेजों में



" अखबारों में बिखरी हर आह दर्ज करो अब दस्तावेजों में,
सपनो की शवयात्रा का अब शोर यहाँ क्यों करते हो ? 
यह संसद है शमसान हमारे सपनो की,
अगले चुनाव का इंतज़ार क्यों करते हो ?
राष्ट्रगान की धुन में घुन सा राष्ट्रपति,
इन चाटुकार का चर्चा तुम क्यों करते हो ?
लाल किले के कंगूरों पर चमगादड़ से लटके हैं
यदि आज़ादी अपनी है तो इनका इंतज़ार क्यों करते हो ?
काले धन को खा कर गोरे जो बन बैठे हैं लोग यहाँ
इन देश द्रोहियों का आदर  तुम क्यों करते हो ?
 बेटा
किसान का सैनिक बन मरता है सीमा पर जा जा कर
नौकरशाही के गद्दारों के अधिकारों से तुम क्यों डरते हो ?" -----राजीव चतुर्वेदी 

उसमें तू अपनी जिन्दगी के उजाले न तलाश

"शब्द जो मेरी कलम से छलके थे श्याही बन कर,
उसमें तू अपनी जिन्दगी के उजाले न तलाश.
शाम को सूरज ढला था खेत की जिस मेंड़ पर,
आने वाली पीढ़ियों के उसमें निबाले न तलाश.
हांफती सी जिन्दगी के रास्ते सुनसान से हैं,
इस सफ़र की शाम को पैरों में छाले न तलाश. "
                                     ------राजीव चतुर्वेदी

Saturday, May 19, 2012

जब राष्ट्रीय चरित्र का अवमूल्यन होता है तो राष्ट्रीय मुद्रा का भी अवमूल्यन हो ही जाता है



"जब राष्ट्रीय चरित्र का अवमूल्यन होता है तो राष्ट्रीय मुद्रा (रुपये) का भी अवमूल्यन हो ही जाता है. चूंकि मनमोहन सिंह को हमने कभी कहीं से नहीं चुना पर वह राज्य सभा में अपना गौहाटी (आसाम) का फर्जी पता दे कर पिछले दरवाजे से घुस गए हैं या यों कहें कि सेंध फोड़ कर घुस गए हैं. वह हमारे जनादेश से नहीं अमेरिका की कृपा से हमारे प्रधान मंत्री हैं इसलिए अमेरिका के आगे नतमस्तक मुद्रा में हैं. जब हमारा प्रधानमंत्री अमेरिका के आगे लुडक जाता है और न्यूनतम स्तर पर खड़ा होता है तो हमारी मुद्रा भी डॉलर के सामने लुडक जायेगी और न्यूनतम स्तर पर खाड़ी होगी."
                                                                                                                ---- राजीव चतुर्वेदी
"रुपये का अवमूल्यन सबूत है कि भारत से पैसे (धन ) का पलायन हो रहा है. इसके दो ही कारण है हमारा विदेशी वस्तुओं के प्रति बढ़ता मोह कि जिसके कारण भारत विदेशी वस्तुओं का बड़ा बाज़ार बन गया है और आयात निर्यात संतुलन बिगड़ गया है और दूसरे भारतीय धन जिसे घूसखोर नौकर शाहों और नेताओं ने देश के बाहर निवेश कर रखा है या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है. राष्ट्र की पैंदी में छेद कर दिया गया है जिससे राष्ट्रीय पूंजी का रिसाव बहुत तेज हो रहा है.  इन दोनों ही कामों के लिए वर्तमान मनमोहन सरकार दोषी ही नहीं देशद्रोह की अपराधी भी है. "  ----राजीव चतुर्वेदी   

शहनाईयाँ क्यों सो गयीं इस रात को



"शहनाईयाँ क्यों सो गयीं इस रात को
मर्सीये मर्जी से क्यों गाने लगे,
राजपथ के रास्ते क्यों रुक गए
जनपथों पर लोग क्यों जाने लगे
इस शहर में लोग तो भयभीत थे
फिर अचानक भूख क्यों गुनगुनाने लगे
मैंने तो पूछा था अपने वोटों का हिसाब
वो नोटों का हिसाब क्यों बतलाने लगे
घर का चौका चीखता है खौफ से, खाली कनस्तर कांखता है
हमारी कंगाली का हिसाब शब्दों की जुगाली से संसद में वो बतलाने लगे
राजपथ के रास्ते क्यों रुक गए
जनपथों पर लोग क्यों जाने लगे
इस शहर में लोग तो भयभीत थे
फिर अचानक भूख क्यों गुनगुनाने लगे."
-----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, May 17, 2012

कथित किन्तु व्यथित साहित्यिक परिदृश्य




"पतिताओं की कविताओं पर
वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...
यहाँ लफंगे जन-गण-मन का जश्न मनाते मैंने देखे
हर कायर शायर बन कर संसद पर फायर कर देता है
और शातिरों की हर शर्तें सत्यों को संगीत सुनाती मैंने देखीं
कर्तव्यों के वक्तव्यों में बकवासों के रूप बहुत हैं
यहाँ गली का हर आवारा ईलू -ईलू काव्य कर रहा
प्रोफाइल पर उसकी फर्जी फोटो देख मुग्ध है इतना
देह को उसके भांप रहा है, दर्शन में वह नाप रहा है, शब्दों से वह काँप रहा है
पतिताओं की कविताओं पर
वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...
और यहाँ पर प्रौढ़ उम्र में प्रणय निवेदन करती कविता
सत्य यहाँ शातिर सा दिखता अधिकारों के श्रृंगारों में
कुछ की हिन्दी रति से नहीं विरत हो पाई रीतिकाल में फंसी पड़ी है
श्रृंगारों का श्रेय ले रहे अंगारों की आढ़त उनकी
आत्म मुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगे की ख्वाहिश धरती की पैमाइश की है
करुणा की कविता कातर सी कांख रही है
यहाँ ग्रुपों में बंटा सा अम्बर आडम्बर से अटा पड़ा है
लिख पाओ तो मुझे बताना,
पढ़ पाओ तो मुझे सुनाना, -- कविता की परिभाषा क्या है ? " ---- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, May 16, 2012

हम जुदा क्यों हो गए ?



"रास्तों का इस तरह इस्तेमाल कुछ हमने किया,
हमसफ़र बनने चले थे हम जुदा क्यों हो गए ?"
           
              ----राजीव चतुर्वेदी
"वह एक कश्ती थी साहिल को तलाशा करती थी,
मैं एक तीर सा हवाओं में उड़ा फिर गुम हो गया .
                  ----राजीव चतुर्वेदी

छल चुके हैं लोग मुझको छाँह मैं बैठे हुए

"न गुरूर है ,न गुमान , न गुमनाम ही हूँ,
चल पड़ा हूँ आँख में दीपक जलाए आश का
पैर में जूते नहीं मैं राह को पहने चला हूँ,
छल चुके हैं लोग मुझको छाँह मैं बैठे हुए
रास्ता लंबा है मेरे टूटते विश्वास का ." ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, May 13, 2012

मां न बनने का सामान जब मिलता हो दुकानों पर




" मां न बनने का सामान जब मिलता हो दुकानों पर
तख्तियां भी टंग गयी हों गली कूचे और मकानों पर
उसी तेरी बदनाम बस्ती में तब से रोज आया हूँ
जहां मुझको फेंक गयी थी मां मैं तुझको खोज आया हूँ
कभी कातिल लोक लाजों का तकाजा मुझसे मत करना
जहां से लोग जाते हैं वो रस्ते छोड़ आया हूँ."-------- राजीव चतुर्वेदी


Saturday, May 12, 2012

मैंने तो सूरज से शर्तें पूछी थीं


"मैंने तो सूरज से शर्तें पूछी थीं ,
इन बातों से बल्बों को क्यों रंज हुआ ?
उसकी सुन्दरता ही कुछ ऐसी थी,
हर लक्मे की डिब्बी शर्मा जाती थी
वह गहनों में भी बहनों जैसी लगती थी
हर सौन्दर्य प्रसाधन को उससे क्यों रंज हुआ ?
मैंने तो बस सागर से पानी की परिभाषा ही पूछी थी,
ख़बरें सुन कर हर गागर को क्यों रंज हुआ ?  
कोर्ट कचहरी के बाहर जो दूकाने थी
मैंने उनसे पूछा यह  न्याय कहाँ बिकता है,
मेरी बातें सुन कर सब सदमें में थे,
हर व्यापारी को इस पर फिर क्यों रंज हुआ ?
आत्मा बिखरी है हर घर के दालानों में,
प्यार बिका करता है अब दूकानों में 
भूख तरसती है अब खलियानों में
सेठ मुनाफ़ा गिनता है गोदामों में
मैंने तो बस कह डाला था देश हमारा भी है
यह सुन कर वह नेता था, उसको क्यों रंज हुआ ? 
मैंने तो सूरज से शर्तें पूछी थीं ,
इन बातों से बल्बों को क्यों रंज हुआ ?
उसकी सुन्दरता ही कुछ ऐसी थी,
हर लक्मे की डिब्बी शर्मा जाती थी
वह गहनों में भी बहनों जैसी लगती थी
हर सौन्दर्य प्रसाधन को उससे क्यों रंज हुआ ?"
---- राजीव चतुर्वेदी

हवाओं का रुख बदलने से पतंगों को है मलाल


"राह में सूरज गलीचा क्यों बिछा कर गुम हुआ,
रात को चन्दा ने चतुराई से पूछा यह सवाल.
सत्य के संकेत आंधी में कहाँ थे उड़ गए
हवाओं का रुख बदलने से पतंगों को है मलाल."
                                     ---- राजीव चतुर्वेदी

अपनी जिन्दगी का मध्यांतर तलाशती इन पीढ़ियों से पूछ लो

"बच्चों के ज्योमेट्री बोक्स में न सपनो को नापने के यंत्र हैं न सच को,
क्यों पढ़ाते हैं इन्हें और क्या पढ़ाते हैं इन्हें ?
यंत्र से षड्यंत्र को हम बताते हैं इन्हें
झूठ की पैमाइश की ख्वाहिश लिए
दुनिया के अक्षांश और देशांतर के बीच
अपनी जिन्दगी का मध्यांतर तलाशती इन पीढ़ियों से पूछ लो
सच तो सच है वह शिक्षा की इन दुकानों पर बिकता नहीं है
इस अथक सी दौड़ में मिथक का यह बुलबुला
हमारी उम्र से ज्यादा यहाँ टिकता नहीं है." ----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, May 10, 2012

सभ्यता सदमें में है और सोचती है

"सभ्यता सदमें में है और सोचती है
गुजरी पीढ़ियों से पूछना सीढियां क्यों कम थीं उस दौर में
मकान कच्चे और लोग सच्चे थे वहां
जाने क्यों उस दौर ने फिर करवट सी ली
आज सड़कें चौड़ी और दिल संकरे से हो गए हैं
साहस कुछ सीमित सा हुआ है क्रूरता बढ़ती गयी है
मंदिरों में भीड़ कम पर जेलों में रेलमपेल है
जो दिल में रहा करते थे कभी जजबात अब जेब में क्यों कैद हैं
सभ्यता सदमें में है और सोचती है
गुजरी पीढ़ियों से पूछना सीढियां क्यों कम थीं उस दौर में
मकान कच्चे और लोग सच्चे थे वहां
जाने क्यों उस दौर ने फिर करवट सी ली." ---- राजीव चतुर्वेदी

Friday, May 4, 2012

हम गुजरते हैं यहाँ परिदृश्य से

"बुलंद इमारत से गिरती हुयी इबारत देख पाओ देख लो,
शब्द सहमे हैं, संवेदनाएं शून्य, सदमें में है सत्य सभी
कल्पनाएँ कांपती हैं मन के चौखट पर यहाँ
भावना को भौतिकी से नापते लोगों से पूछो
आज जो ठहरा यहाँ था वह मुसाफिर कल न आयेगा यहाँ
जिन्दगी के इस सफ़र के वह मुसाफिर हम ही हैं
हम गुजरते हैं यहाँ परिदृश्य से,--- क्या कहूं मैं और ?" ----राजीव चतुर्वेदी

वह चिड़िया थी फिर भी टूटते पुल को देख सदमें में थी


" वह चिड़िया थी
फिर भी टूटते पुल को देख सदमें में थी
घोंसला टूटा था उसका बारहा ,---होसला टूटा न था
वेदना ...संवेदना के शब्द तो थे शेष मेरे पास
अर्थ के अवशेष भी दिखते नहीं थे
... वह चहकती थी दहकती वेदना से
हम थे शातिर शिल्प थे संवेदना के
मैं खडा हूँ इस पार शब्दों को लिए
और वह उस पार अहसासों के घोंसले में घर बसाए
टूटते पुल देख कर सदमें में हैं
इस पार खड़े शब्द और उस पार खड़े उत्तर
बीच में अहसास की नदी बहती है आस -पास
वह चिड़िया थी
फिर भी टूटते पुल को देख सदमें में थी ." ----राजीव चतुर्वेदी

दृष्टिकोणों के किवाड़ों पर जो सांकल थी यहाँ सिद्धांत की



"जुगनुओं को रोशनी की जब जरूरत थी यहाँ, ---तुम नहीं थे,
दृष्टिकोणों के किवाड़ों पर जो सांकल थी यहाँ सिद्धांत की
उसकी आहट
बौखलाहट
सन्नाटा सृजन का टूटता तो टूटता कैसे ?
शब्द शामिल थे कलह की कूटरचना में
कल्पनाएँ कालबाधित सी कलम से हर कलामों तक क़त्ल होती यहाँ थीं
आहत आस्था की आह को कुछ कह उठे कविता
इस सहमते सत्य के संकेत पढ़ कर जो घुमड़ता था कभी मेरे भी सीने में
अगर पहुंचा नहीं है आज तक तेरे दिलों तक वह
तो समझलो सत्य का साहित्य लिखने की यह कोशिशें कविता नहीं हैं
वास्तविक कविता के कठिन से दौर को जब दर्ज करके आँख मेरी बुझ रही होगी
तुम्हारी आँख भी यह जान कर कुछ नम तो होगी  
जुगनुओं को रोशनी की जब जरूरत थी यहाँ, ---तुम नहीं थे,
दृष्टिकोणों के किवाड़ों पर जो सांकल थी यहाँ सिद्धांत की
उसकी आहट
बौखलाहट
सन्नाटा सृजन का टूटता तो टूटता कैसे ?" ----राजीव चतुर्वेदी 






Thursday, May 3, 2012

वह जो नीहारिका नाराज हो कर गिर रही है



"वह जो नीहारिका नाराज हो कर गिर रही है,
उससे कह दो आज धरती बांह फैलाए हुए है."
       
           -----राजीव चतुर्वेदी

उसे आंसू किसने कहा ?

"आँख से जो गिरा था मेरी उसे आंसू किसने कहा ?
तश्वीर थी मेरे घर के लोगों की और कुछ मेरे वह दोस्त थे.
न मैं नुमाइश कर सका न तुम पे था पैमाइश का सऊर,
  जख्म थे गहरे मेरे और ख्वाब खून आलूद थे ."  ----- राजीव चतुर्वेदी
(खून आलूद = रक्त रंजित )

Wednesday, May 2, 2012

एक सूरज आज फिर से रोशनी के साथ आया है



"
एक सूरज जो कल ही डूबा था तुम्हारे सामने
आज फिर से रोशनी के साथ आया है
अदालत वख्त की हो या विधानों की बताओ तुम कहोगे क्या ?  
फलक पर दर्ज होते इस उजाले पर फेंक लो जितनी भी स्याही 
तुहारे दिल की तारीकी की दहशत देख कर
तुम ही डूब जाना  अपने चुल्लू भर गुनाहों में

एक सूरज जो कल ही डूबा था तुम्हारे सामने
आज फिर से रोशनी के साथ आया है." ---- राजीव चतुर्वेदी




Tuesday, May 1, 2012

मई दिवस पर गर्व से कहो हम पाखंडी हैं

"मई दिवस पर गर्व से कहो हम पाखंडी हैं ! हमने बचपन में गाय पर निबंध लिखे और बड़े हो कर खूब आधुनिकतम कसाईखाने खोले परिणाम गाय की हालत चिंताजनक है. पोस्टमेन पर निबंध लिखे तो उसकी भी हालत पस्त है. "यत्र नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" की रटंत की और हर छः माह में नौ दिन (नौ देवी पर) कन्या पूजीं तो विश्व की हर सातवीं बाल वैश्या भारत की बेटी है और हर साल ५० हजार से ज्यादा दहेज़ हत्याएं हो रही हैं. इसी क्रम में मजदूर की बारी भी हर साल मई दिवस के बहाने आ ही जाती है. साल दर साल पर मजदूर पर प्रवचन देने वाले मस्त और मजदूर पस्त है. मजदूर दिवस वामपंथी एकाधिकार से ग्रस्त जुमला है. तीस साल तक पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार रही पर जानवर की जगह आदमी को जोत कर रिक्शा कोलकाता में चलता ही रहा--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र का मजदूर था और उसका वोट बैंक नहीं था. देवगोडा जब प्रधानमंत्री थे तब वाममोर्चे के प्रखर नेता चतुरानन मिश्र कृषि मंत्री थे तब कृषि मजदूरों के लिए क्या किया गया ?--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र का मजदूर था और उसका वोट बैंक नहीं था. कोलकाता में वामपंथी सरकार के दौरान तीस साल तक विश्व के सबसे बड़े वैश्यालय (बहू बाजार / सोना गाछी ) धड़ल्ले से चलते रहे और वहां बाल वेश्याएं खुले आम बिकती रही.--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र की मजदूर थी इसलिए मजबूर थीं उनका वोट बैंक नहीं था. बाल श्रमिकों का भी कोई वोट बैंक नहीं है. लड़ाई ट्रेड यूनियनों के झंडे तले लामबंद होते वोट बैंक की है ताकी उद्योग जगत से धन वसूली की जा सके वरना सच-सच बतलाना महाराष्ट्र में दत्ता सामंत को किसने मरवाया ? दरअसल लड़ाई श्रम के आदर और सम्मान की नहीं, श्रमिक को हथियार बनाने की है. सच तो यह है कि नब्बे प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र का मजदूर है और वह इस लिये मजबूर है कि उसका कोई वोट बैंक नहीं. यह मई दिवस के बहाने तो वोट बैंक का इष्ट साधा जा रहा है." ----राजीव चतुर्वेदी               
"सो जाते हैं सड़कों पर अखबार बिछा कर,
हम मजदूर हैं नीद की गोली नहीं खाते."  (---मुनब्बर राना )  






यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?



" यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं
आओ... चली आओ ह्रदय के पास, सुन लो धड़कने मेरी
सुर्ख से कुछ शब्द हैं मेरे पास तुम्हारी मांग में भरता हूँ मैं सिन्दूर सा
हर आचरण का व्याकरण है इन शब्दों की चादर में,... ओढ़ लो तुम भी
तुम्हारे माथे का जो चुम्बन लिया था कभी मैंने, उसे बिंदी समझ लेना
यहीं से यात्रा प्रारंभ होती है, चलो विश्राम कर लें
यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे, ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं ." -----राजीव चतुर्वेदी