Friday, March 19, 2010

कुम्भ और दम्भ के बीच

उस दिन एक अजीब नजारा था। एक ओर कुम्भ में संन्यासी थे तो दूसरी ओर राजनीति के सत्यानाशी। इन संन्यासी और सत्यानाशी के बीच अविनाशी विक्रम संवत का नया साल शुरू हुआ। इधर संन्यासी और उधर राजनीति के सत्यानाशियों के बीच पिसती हुई आम जनता का महाविनाश हुआ है। इस बीच एक निरपेक्ष सहमा सा समाचार यह भी है कि जम्मू-कश्मीर की राजधानी में तिरंगा झण्डा सामूहिक समारोह में जलाया गया। इस सारी स्थितियों के साक्षी समय की बाट जोह रहे हम सहमे गवाह हैं।
 
एक दिन एक खबर आई। खबर पाकिस्तान प्रायोजित थी। लाहौर में भारत के आतंकियों ने हमला किया। फिर दूसरी खबर आई कि पाकिस्तान दौरे पर गई श्रीलंकाई टीम पर गोली बरसाने वाले भारतीय थे। तीसरी खबर आई कि हिन्दू आतंकवाद फैलाने के लिए साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित गिरफ्तार हुए। पुणे के बम विस्फोट में भी हिन्दू आतंकी संगठन का हाथ होने की पुलिसिया सुगबुगाहट हुई। अभी यह क्रम थमा भी नहीं था कि एक-एक कर बाबा बेनकाब होने लगे। यह सभी बाबा भगवाधारी हिन्दू बाबा थे। एक भी ईसाई पादरी या इस्लाम का अलंवरदार मौलवी नहीं था। बात स्पष्ट है कि या तो हिन्दुत्व के अध्यात्मिक अलमबरदार अब पतित हो चुके हैं या यह हिन्दुत्व पर हमला है। यह सत्य है या साजिश कहना कठिन है लेकिन हिन्दुत्व एक शर्मनाक दो राहे पर खड़ा है। कुल मिलाकर इधर निरन्तर इस्लाम मजबूत हो रहा है। इसाईयत भी मजबूत हो रही है पर हिन्दुत्व कमजोर हो रहा है, बौद्घ कमजोर हो रहे हैं, सिख कमजोर हो रहे हैं। यानी भारतीय राष्ट्रवाद का आधार अब क्षय रोग से ग्रस्त है।
 
कुल मिलाकर संन्यासी, सत्यानाशी और विनाशी के बीच देश के जन-गण-मन की बेचारगी बिखरी पड़ी है। इस शताब्दी के युद्ध के नए हथियार हैं नोट और वोट। जिनके चरणों में वोट मालाएं हैं उन्हीं के गले में अब नोट मालाएं पड़ रही हैं। आयकर वाले भी भ्रष्टाचार के इस आयाम से स्तब्ध हैं। आप पंडित जी को गाली नहीं दे सकते, परशुराम की चेतना आपकी वेदना बन जाएगी। किन्हीं ठाकुर साहब के कुकर्मों की बेबाक समीक्षा को चेतक समाज चेतावनी देने लगेगा। बनिए अग्रसेन के अनुज हैं ही। यादव जी, लोधी जी, कुर्मी जी, जाटव जी, पासी जी, भंगी जी, बसोर जी, सभी ने अपनी पताकाएं ऊंची फहरा रखी हैं। आप इनमें से मंच पर किसी की भी आलोचना नहीं कर सकते। मुसलमान, ईसाई, सिख या जैन गुरु की समीक्षा करने मात्र से आपकी जान के लाले पड़ सकते हैं, लेकिन अगर आप भारत की आलोचना करें तो कोई कुछ नहीं कहता, कुछ ताली भी बजाते हैं, अनेक नेतागीरी भी चमकाते हैं। कुल मिलाकर यह देश तो धर्म निरपेक्ष है और हम धर्म सापेक्ष। यह देश एक ऐसी धर्मशाला बन चुका है कि जिसकी दरकती दीवारों को दुरुस्त करना हमें अपनी जिम्मेदारी ही नहीं लगता। इस धर्मशालानुमा देश की छत टपक रही है तो टपका करे, हमें अपने सिर की परवाह है।
 
'दलित' और 'दरिद्र' में अन्तर है। 'दलित' एक सामाजिक स्थिति है और 'दरिद्र' आर्थिक। जब आप बार-बार सत्तारूढ़ हों और भ्रष्ट भी तब आप न दलित ही रह जाते हैं न दरिद्र ही। कोई भी राष्ट्र एक चिन्हित की जा सकने वाली संप्रभु, संवैधानिक राजनीतिक इकाई तब होता है जब वह भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से अस्तित्व में हो। राष्ट्र के तत्व में भाषा और धर्म से पैदा हुई संस्कृति होती है। हमारे धर्म के पाखण्डी प्रणेता एक-एक कर बेनकाब हो रहे हैं। हमारी भाषा भ्रष्ट हो चुकी है। जहां दलित सत्तारूढ़ हों, करोड़ों के नोटों की माला पहने निर्लज्ज खड़े हों, अल्पसंख्यक का अर्थ दूसरे नम्बर का बहुसंख्यक हो। लोधी अपने आपको बैकवर्ड भी बताएं और 'राजपूत' भी लिखें। धर्म ध्वजा के वाहक सार्वजनिक जीवन के कुंभ में निर्वस्त्र दिखाई दे रहे हों। लोकतंत्र में लोकलाज का अभाव हो, माने इस धर्मशाला बने भारत राष्ट्र की हर कमरे की छत टपक रही है और हर दीवार दरक रही है।
 
अगर सचिन तेंदुलकर कोई ऐसा केक काट दें कि जिसकी डिजाइन भारत के नक्शे से मिलती हो तो उसे माफी मांगनी पड़ती है। अगर मंदिरा बेदी कोई ऐसी साड़ी पहन ले कि जिस पर तमाम देशों के झण्डे छपे हों तो उसे इतने गुनाह पर ही माफी मांगनी पड़ती है। अगर कहीं कोलकाता या बंगलौर में कोई खूसट सिपाही धोखे से तिरंगे झंडे को जमीन में गिरा दे तो उसे निलंबित कर दिया जाता है, लेकिन अगर जम्मू में आज अलगाव वादियों ने प्रदर्शन करते हुए हमारा राष्ट्रीय ध्वज जलाया तो सभी शान्त हैं। जिस मीडिया को सचिन, मंदिरा बेदी या खूंसट सिपाहियों के विरुद्घ 'ब्रेकिंग न्यूज' मिल गई थी उनके लिए इस गणतंत्र पर श्रीनगर में तिरंगा न फहराया जाना और अब तिरंगा जलाया जाना कोई संज्ञेय समाचार ही नहीं है। अच्छा होता कि भारत राष्ट्र की इस बढ़ी किन्तु विराट धर्मशाला में धर्म की सभी दीवारें ढह जातीं, लेकिन यहां इस्लाम की दीवारें और मोटी व ऊंची हो रही हैं। ईसाइयत भी अपनी धर्म ध्वजा को आंधियों में फहराता देखकर खुश दिख रही है और भाषा के हथियार से वह एक लड़ाई जीत भी चुके हैं। हिन्दुत्व की पुरानी दीवार ढहाई जा रही है। बरेली के दंगे हों या बोरीवली का बम विस्फोट हमारे हाथ अपनों के ही खून से रंगे हैं। जो नक्सली हमें मार रहे हैं वह भी भारतीय हैं और जो नक्सली मारे जा रहे हैं वह भी भारतीय ही। कुल मिलाकर भारत राष्ट्र का कत्ल हो रहा है। काफी हद तक हो चुका है। अब समय आ गया है अगर राष्ट्र बचाना है तो हमें कत्ल होना पड़ेगा या कत्ल करना पड़ेगा।
 
खंजर पर मेरे खून है मेरे ही भाई का,
इस बार जंग जीतकर पछता रहा हूं मैं।
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in March 27, 2010 Issue)

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