"कुछ यथावत की पोषक शक्तियाँ भी कभी -कभी क्रान्ति कराहती हैं ...कुछ
क्रान्ति को कनस्तर में भरे घूम रहे हैं ...कुछ क्रान्ति के कुटीर उद्योग
चला रहे हैं ...कुछ क्रान्ति के कीचड में किलोलें कर रहे हैं ...कौन समझाए
कि क्रान्ति हताशा का स्थानान्तरण है ...विवशता का व्याकरण है ...राजनीतिक
संक्रमण है ...किसी तानाशाह का अतिक्रमण है ...क्रान्ति का लक्ष्य
लोकतंत्र नहीं होता, पड़ाव लोकतंत्र होता है ...यों तो क्रान्ति के नाम पर
जो भ्रान्ति है उसमें फ़िल्मी "क्रान्ति " में मनोज कुमार "चना जोर गरम" बेच
देते हैं ...साहित्यिक क्रान्ति की भ्रान्ति में लोग साहित्य और संवेदनाएं
तक बेच देते हैं ...कुछ शातिर निजी स्वार्थों की खातिर क्रान्ति की
भ्रान्ति में समाज की संभावना तक बेच देते हैं ...क्रान्ति एक बेहतर
वैकल्पिक व्यवस्था की परिकल्पना है जिसके लिये पुरानी को ढहाना और नयी
व्यवस्था का निर्माण जरूरी है ...क्रान्ति प्रायः तब होती है जब निजी
स्वार्थों से ऊपर उठा कोई योद्धा किसी दार्शनिक /संतमना विचारक का साथ पाता
है जैसे अर्जुन -कृष्ण का , एलेक्जेंडर (सिकंदर ) सुकरात -प्लेटो की
परम्परा का, चन्द्रगुप्त चाणक्य का, फ्रांस की क्रान्ति में रूसो -वोल्टेयर
का, लेनिन ,माओ ,फीडल कास्ट्रो को मार्क्स-एंजिल्स (हीगल ) का , गांधी को
बाल गंगाधर तिलक का ...ऐसे कई उदाहरण हैं जो स्वयं में महान योद्धा और महान
विचारक भी थे पर इन दोनों ऊर्जाओं में परस्पर संतुलन नहीं बैठाल सके और
इसीलिए वह महान लोग अपने लक्ष्य नहीं पा सके जैसे भगत सिंह, राम मनोहर
लोहिया ...हर क्रान्ति एक नए राजनीतिक आविष्कार का संस्कार है ."
-----राजीव चतुर्वेदी
Monday, June 3, 2013
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