Monday, April 22, 2013

मैं अंगारे सिरहाने रख कर सोया था

"चिंगारी चीखती है, मैं अंगारे सिरहाने रख कर सोया था ,
देश जब जलता हो तो सपने नहीं सदमें ही आते हैं .
"
-----राजीव चतुर्वेदी

तुम कविता में तुकबन्दी के माहिर हो

"तुम कविता में तुकबन्दी के माहिर हो ,
मैं तीखे तर्कों से पैगाम दिया करता हूँ
तुम इष्ट साधना को अभीष्ट समझे हो
मैं विवश वेदना को आकार दिया करता हूँ .
"
----राजीव चतुर्वेदी

समय का बहाव है

"समय का बहाव है इस दौर में इतना ही तेज ,
जो जहाँ डूबता है उसका शव वहाँ नहीं मिलता .
"
----राजीव चतुर्वेदी

कब्रिस्तान में...

"कब्रिस्तान में दफ़न होते हैं
ना जाने कितने रिश्ते
ना जाने कितने नाम
ना जाने कितने बदनाम
ना जाने कितने गुमनाम
ना जाने कितनी रंजिशें
ना जाने कितने राग , ना जाने कितने रंग
कब्रिस्तान के पास से गुजरो तो हवा कुछ फुसफुसा कर कहती है
उग आती है कोई याद
और लोहबान की सुगंध ओढ़ कर सोया कोई रिश्ता
मैं आऊँगा एक दिन और सो जाऊंगा चुपचाप
अपनों के बीच में .
" ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, April 21, 2013

देश जब जलता हो तो सपने नहीं सदमें ही आते हैं

"चिंगारी चीखती है, मैं अंगारे सिरहाने रख कर सोया था ,
देश जब जलता हो तो सपने नहीं सदमें ही आते हैं .
"
-----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, April 18, 2013

अब ज़मीर स्मरण की नहीं संस्मरण की चीज है

"जब मेरा जमीर मर चुका था
तब मेरे यहाँ शब्दों ने जन्म लिया
ज़मीर तो मर चुका था सो उसका ही अभाव था
मेरे शब्द जागीर के प्रभाव और ज़मीर के अभाव में बड़े हुए
आज मेरे शब्द ज़मीर ज़मीर जपते हैं
यह सभ्यता के सैधांतिक कुपोषण की कहानी है
मैं जानता हूँ तुम्हारा भी ज़मीर बहुत पहले ही मर गया था
अब ज़मीर स्मरण की नहीं संस्मरण की चीज है
ज़मीर की दुहाई देती मेरी बात तुम्हें जरूर अच्छी लगेगी
जिसके पास जो नहीं होता उसको उसकी ही जरूरत जो होती है ."
-----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, April 10, 2013

बंद लिफ़ाफ़े में खुले ख्वाब कोई छोड़ गया

"वही दर्द है ...वही दरवाजे ...वही डाकिया,
मुद्दतों से मुझे दस्तक का इंतज़ार है
हवा भी शैतान बच्चे सी सांकल हिला के भाग गयी
बंद लिफ़ाफ़े में खुले ख्वाब कोई छोड़ गया
हिचक मुझे भी थी पर मेरी हिचकियाँ बताती थीं
जिस तकिये में तश्वीर रखी थी उसकी
उस तकिये की तासीर तबस्सुम जैसी थी
और दिलों की धड़कन में जो पदचाप सुनाई देती थी वह तेरी थी
वही दर्द है ...वही दरवाजे ...वही डाकिया,
मुद्दतों से मुझे दस्तक का इंतज़ार है
हवा भी शैतान बच्चे सी सांकल हिला के भाग गयी
बंद लिफ़ाफ़े में खुले ख्वाब कोई छोड़ गया.
" -----राजीव चतुर्वेदी

Saturday, April 6, 2013

धर्म को राजनीति का उपकरण बनाने की विभीषिका

"संस्कृतियों में सांस्कृतिक युद्ध जब होता है तो उसे शास्त्रार्थ कहते हैं ...संस्कृतियों में जब सतही वैचारिक युद्ध होता है तो वह बहस होती है ...संस्कृति एक निरंतर संशोधनरत सलीके से जीने के आविष्कार करती जीवन पद्धति है और राजनीति इसका हिस्सा होती है ...पर शातिर लोग इसका उलटा कर राजनीति का हिस्सा संस्कृति को बना लेते है ...संस्कृति जब तक जीवन और आचरण का व्याकरण बनी रहती है मानव कल्याण के प्रयोग होते रहते हैं किन्तु संस्कृति जब जीवन और आचरण का व्याकरण न रह कर राजनीति का उपकरण बनती है तो हिंसक युद्ध होते हैं ...इसका परिणाम और प्रमाण एशिया का सांस्कृतिक /राजनीतिक पटल है ...धार्मिक या यों कहें क़ि सांस्कृतिक रूप से एशिया पूरे विश्व पर राज्य कर रहा है फिर चाहे भारतीय भूभाग से उत्पन्न सनातन धर्म हो या आर्य समाज या बुद्ध धर्म अथवा यरुसलम से शुरू हुआ ईसा मसीह द्वारा प्रतिपादित ईसाई धर्म हो या इस्लाम या यहूदी ...पर विडंबना यही क़ि संस्कृति/ धर्म जीवन का व्याकरण न हो कर राजनीति का उपकरण बन गयी ...धर्म साधना नहीं राजनीति का साधन बन गया और फिर वही हुआ जो होना था --"युद्ध" ...प्रबुद्ध युद्ध करने लगे और प्रयोग हुआ आम आदमी ...होना चाहिए था क़त्ल-ए-ख़ास पर हुआ क़त्ल -ए -आम ...काबुल-कंधार से कुछ सौ मुसलमान आये और सत्ता के लिए भारतीय संस्कृत पर हमला बोल दिया . पंडितों की शिखा /यज्ञोपवीत उखाड़ कर ले गए , ठाकुर साहब की मूंछें उखाड़ ले गए, हजारों मंदिर तोड़ गए ...इस्लाम वह धर्म था जिसकी प्राथमिकता "दारुल हरब " यानी इस्लाम का राज्य स्थापित करने की मंशा थी ... इसके बाद इस संस्कृति और राजनीति के संकर संस्करण पर ईसाईयों ने हमला बोला तो वह मुल्लों की दाढी उखाड़ ले गए ...उधर येरुसलम में भी यहूदियों ने इस्लाम के मुल्लों को पीट पीट कर पीला कर दिया ...यह धर्म को राजनीति का उपकरण बनाने की विभीषिका थी ." ----राजीव चतुर्वेदी

Friday, April 5, 2013

परिदृश्यों के बीच गुजरती एक परी सी शब्दों की ---वह कविता है

"सुबोध और अबोध के सौन्दर्यबोध के बीच
कविता लफंगों की बस्ती से गुजरती सहमी लडकी सी
साहित्यिक सड़क पर चल रही है
कुछ के लिए श्रृंगार है
कुछ के लिए प्रतिकार है
कुछ के लिए अंगार है
कुछ के लिए प्यार का इजहार है
कुछ के लिए साहित्य की मंडी या ये बाजार है
कुछ शब्द अभागन से
कुछ शब्द सुहागन से
कुछ सहमे से सपने
कुछ बिछड़े से अपने
कुछ दावानल से दया मांगते देवदार के बृक्ष काँखते कविता सा कुछ
कुछ की गुडिया
कुछ की चिड़िया
कुछ नदियाँ कलकल बहती सी
कुछ सदियाँ पलपल गुजर रहीं
वह हवा ...हवा में तितली सी इठलाती सी वह याद तुम्हारी
वह तुलसी का पौधा ...पौधे की पूजा करती माताएं
वह गोधूली में घर आती वह गाय रंभाती सी
वह बहनों का अंदाज़ निराला सा
वह भाभी का तिर्यक सा मुस्काना
वह दादी की भजनों में भींगी बेवस कराह
वह बाबा का प्यार में डांट रहा खूसट चेहरा
कविता में अब लुप्तप्राय सी माँ बहनों और याद पिता की
बेटी पर तो इक्का दुक्का दिखती हैं पर बेटों पर प्रायः नहीं दिखी कविता
कुछ काँटों से चुभते हैं
कुछ प्रश्न यहाँ हिलते हैं पत्तों से
कुछ पतझड़ में सूखे पेड़ यहाँ रोमांचित से
कुछ मुरझाये पौधे गमलों में सिंचित से
वह गौरैया के झुण्ड गिद्ध को देख रहे हैं चिंतित से
इन परिदृश्यों के बीच गुजरती एक परी सी शब्दों की
---वह कविता है .
" ----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, April 3, 2013

कुत्तों से करुणा की बातें क्या करना ?

"कुत्तों से करुणा की बातें क्या करना ?
नालों से वरुणा की बातें क्या करना ?
विषधर की बस्ती में अमृत की बातें क्या करना ?
इन बाजारों में स्नेह नहीं बस देह बिका करती है
इन रंडी -भडुओं से हनुमान की बातें क्या करना ?
गमले के परजीवी से पौधे  देवदार से दावानल के हाल कहा करते हैं
गूलर के भुनगों की ख्वाहिश धरती की पैमाइश की है
गूलर के भुनगों के बंधक कोलम्बस के ख्वाब यहाँ रहते हैं
इन गूलर के भुनगों से कोलम्बस की बातें क्या करना ?
जुगनू के जज्वात सूर्य पर अब भारी हैं
भ्रष्टाचारी लोग यहाँ पर सब सरकारी हैं
राजनीति के लोग जहां पर माल भरा करते हैं
सोचा जज तक पहुंचेंगी मेरी फरियादें
पर जज भी तो है सरकारी
पेशकार को घूस जिसे कहते हैं हम पैरोकारी
कुछ जज भी तो खाते हैं उसकी तरकारी
ऐसे इस जज से न्याय की बातें क्या करना ?
पत्रकार प्रवचन देते हैं अखबारों में , कुछ टीवी से भी झांक रहे
सच की सूरत में यह षड्यंत्रों को ही बाँट रहे
यहाँ दलालों ने सच हलाल ही कर डाला
समाचार की हर आढ़त पर सत्य को बिकता मैंने देखा
समाचार की इस दूकान पर सत्य की बातें क्या करना ?
नौकरशाही महाभ्रष्ट है जनता इनसे बहुत त्रस्त है
मंथरा के इन वंशजों से राम की बातें क्या करना ?       
कुत्तों से करुणा की बातें क्या करना ?
नालों से वरुणा की बातें क्या करना ?
विषधर की बस्ती में अमृत की बातें क्या करना ?
इन बाजारों में स्नेह नहीं बस देह बिका करती है
इन रंडी -भडुओं से हनुमान की बातें क्या करना ?
" -----राजीव चतुर्वेदी