Monday, December 31, 2012

ओस में शब्द भी कुछ नम से हो जाते हैं

"नींद थक जाती है मेरी पलकों पर जगते -जगते,
ओस में शब्द भी कुछ नम से हो जाते हैं
धूप महकती है मेरी क्यारी के फूलों की फुनगी पर
सुबह की चाय जब पीता हूँ मैं तो लगता है
मैं हूँ ...मैं हूँ ...और कोई भी नहीं
दूर कोहरे की रजाई के
वक्त के साथ मैले से हुए उस कोने से
झांकता है सूरज मेरे पड़ौसी सा
धूप ऊंचे मकानों से उतर कर दालानों तक बिखर जाती है
और इस रोशनी में लोग परछाईयों की पैमाइश करते हैं
मैं जानता हूँ तू नहीं है अब कहीं
गुमशुदा सी याद है तेरी
मेरी आँख के आंसू की उस बूँद में बसा भूगोल है
हिचकियों के साथ तेरी याद का भूकंप आता है
खिडकियों को खोल दो
धूप की धमकी से जो ओस सहमी है
तितलियाँ प्यार की परिभाषा अब पूछती है फूलों से
और मैं भी सोचता हूँ रातरानी की महक दिन में क्यों खामोश रहती है ?
नींद को रातों को जगा कर मैं भी पूछूंगा उम्मीद से
मैं अकेला हूँ तो हिचकियाँ आती हैं क्यूं ?
दस्तक कौन देता है ?
कह दो सफ़र में मिल सका तो मिल लूंगा
घर पर मुझे अकेला ही रहने दो
अभी मेरी जिन्दगी का सूरज शेष है
अभी मुझसे मुझ ही को बात करनी है
परछाईयों से पहचान तुम्हारी है पुरानी
तुम ही उनसे बात कर लेना .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

बकीलों की निगाह में वह ही हुजूर था

"अमीर था तो फैसले का फलसफा बनता गया ,
गरीब हर बार फैसले से फासले पर था .
गुनहगार के गले में फूल की माला और सत्ता का सुरूर था
सऊर था जिसे वह शहर में सहमा सा दिखा
गुरूर जिसको था उसका हाथ गरीब के गिरेहबान पर ही था
जो खा रहा था घूस पेशकार के जरिये
बकीलों की निगाह में वह ही हुजूर था ."
----- राजीव चतुर्वेदी

और धीरे से हवा मुस्कुरा रही थी

" घड़ी ने बांह फैला कर वख्त की पैमाइश की,
शाम ने संकेत से था कुछ कहा
रात चन्दा की बिंदी लगाए छत पे आयी
याद की खुशबू सुबह तक थी दालानों तक
और तुलसी के घरोंदे पर
किसी ने रख दिए थे फूल हरसिंगार के
चहकती चुलबुली सी एक चिड़िया
सुबह तक उड़ गयी थी
और धीरे से हवा मुस्कुरा रही थी ." -- राजीव चतुर्वेदी

साहित्य बाज़ार तलाशते -तलाशते व्यवहार को ही भूल गया

"साहित्य बाज़ार तलाशते -तलाशते व्यवहार को ही भूल गया ... भूल में इस हद तक बहक गया क़ि आज हमारे पास "कविता" और "साहित्य" की कोई सर्वमान्य परिभाषा ही नहीं है ...इस तरह के बाजारवादी या यों कहें कि बाजारू लेखकों ने किसी एक विचारधारा को अपना सेल्समेन बनाया और बाजार में बिक गए ... अभिव्यक्ति की "स्वतंत्रता" कब सीमाएं मर्यादा लांघ "स्वच्छंदता" हो गयी क़ि असमर्थ पाठक समझ भी न पाया . धूर्त आलोचक सचेत होता तब तक बहुत देर हो चुकी थी . अभिव्यक्ति की आज़ादी भौकने की आज़ादी बन चुकी थी ...समाज कुत्सित हुआ और साहित्य कुरूप और एक दिन वह भी आया कि "...बीडी जलाईले जिगर से पीया ..." को वर्ष का सर्वश्रेष्ठ (फ़िल्मी ) गीत माना गया ....वामपंथी नारेबाजी ने साहित्य को राजनीतिक उपकरण बनाया और स्थापित प्रतीक तोड़े जाने लगे ...इसमें दक्षिण पंथीयों ने भी पराक्रम दिखाया इस्लामिक मूर्ति भंजक संस्कार जब साहित्य में आये तो सलमान रश्दी और तस्लिमा नसरीन ने मुसलमान विरोधी विचारधारा का बाज़ार तलाश लिया तो उधर अरुंधती ने वामपंथी चेतना के बहाने अमेरिका पर निशाना साधा और अपना बाज़ार पा ही गयी ...इस प्रकार रचना धर्मिता की मौत हुयी और बाज़ार धर्मिता विकसित हुयी ... युद्ध बनाम प्रबुद्ध होता था ...अब राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लोगों ने साहित्य को हथियार बनाया ...एक ऐसा हथियार जो बाजार में खरीदा और बेचा जाता था ....सांस्कृतिक युद्ध चालू हुए ...सभ्यताएं तीतर -बटेर की तरह लड़ाई गयीं ....सांस्कृतिक प्रतीकों को तोड़ने के लिए सांस्कृतिक सुपाड़ी भी दी गयीं . चूंकि विश्व विशेषकर एशिया इस्लामिक मूर्ति भंजकों से आक्रान्त था सो सलमान रश्दी और तस्लिमा ने इस्लाम के प्रतीकों का भंजन कर शेष सम्प्रदायों को संतुष्टि दी और मूर्ति भंजन को जायज ठहराने वाले मुसलमानों पर अपनी छवि को टूटे देखने के अलावा और कोइ चारा नहीं था न इसको रोक पाने के तर्क ही अतः मूर्ति भंजन की इस अघोषित बहस में जहां पहला चरण बामियान की मूर्तियाँ तोड़ने तक इस्लामिक लोगों का था वहीं दूसरा चरण वैचारिक मूर्ती भंजन से रश्दी और तसलीमा जैसों ने जारी किया और बाज़ार पा गए . इसी प्रक्रिया का उत्पाद हैं सलमान रश्दी ,तसलीमा नसरीन ,अरुंधती राय जैसे लोग जिन्होंने समाज में संवाद कम और विवाद अधिक कायम किया है ....इस हमलावर दौर में हम किस सांस्कृतिक टापू पर हैं ?---यह हमको सोचना समझना होगा ." ------ राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, December 19, 2012

बलात्कार दो प्रकार का होता है --घोषित और पोषित जिसमें शोषित तो हमेशा स्त्री ही होती है

"बलात्कार दो प्रकार का होता है --घोषित और पोषित जिसमें शोषित तो हमेशा स्त्री ही होती है . घोषित बलात्कार के विषय में सभी जानते है पर बारीकी से नहीं . घोषित बलात्कार व्यक्तिगत होता है इसलिए इसका शोर ज्यादा होता है . इसके दो कारण है एक तो वह लोग बहुत शोर करते हैं जो स्वयं भी बलात्कार करना तो चाहते हैं पर क़ानून के डर से ऐसा नहीं करते .वह बलात्कार करने की इच्छा तो रखते हैं पर उसका अंजाम देने का माद्दा नहीं .लडकीयों /स्त्रीयों को देख कर इन घूरती निगाहों के बलात्कार की मंशा रखने वाले बहुतायत में हैं .दूसरे प्रकार का बलात्कार होता है जिसे समाज द्वारा "पोषित बलात्कार " या यों कहें "सामाजिक बलात्कार" कहा जा सकता है . भारतीय समाज की प्रायः शादियाँ इसी श्रेणी में आती हैं . इन शादियों के पूर्व जब होने वाले पति -पत्नी एक दूसरे को जानते ही नहीं हैं तब "सहमति " कहाँ से और कैसे हो सकती है ? लेकिन समाज के अहम् की संतुष्टि तो होती है . आपराधिक या घोषित बलात्कार तथा पोषित या सामाजिक बलात्कार दोनों में शोषित स्त्री की सहमती नहीं होती है . प्रायः सामाजिक दबाव जिसे लोक -लाज कहा जाता है के चलते स्त्री अपनी शादी के विषय में अपनी वास्तविक इच्छा व्यक्त ही नहीं कर पाती है ...और एक रात उस व्यक्ति के साथ विस्तर पर होती है जिसको वह पहले से जानती ही नहीं ...समझती ही नहीं . ---क्या यह बलात्कार नहीं है ? ---यह सामाजिक बलात्कार है और वह आपराधिक या व्यक्तिगत बलात्कार ...हर दशा में स्त्री की दुर्दशा है ...वह शोषित है ...वह बीबी हो या वादी ...वह पत्नी हो या prosicutrix.
"शादियाँ इस दौर में ऐसी भी हुआ करती हैं ,

रूह रोती ही रही देह पर वह काबिज था ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, December 18, 2012

पहले वातावरण में गूंजता था "ॐ " और अब गूंजता है " कंडोम "

"उस देश में बलात्कार पर हाय -तोबा मची हुयी है कि जहाँ हर छह महीने में नौ देवियों का पर्व मना कर हम बेटियों को पूजते हैं ...जिस देश से विश्व की सबसे अधिक बाल वैश्या आती हैं ...जहाँ दुर्गा पूजा सबसे बड़ा पर्व होता है उस पश्चिम बंगाल में लगभग तीस वर्ष वामपंथी शासन रहने के वाबजूद विश्व के सबसे बड़े वैश्यालय हैं ...क्यों ? इसीलिए कि हम अंतरात्मा से पाखंडी हैं ? ---हमारे अनेक धार्मिक प्रतीक बलात्कारी थे और हमने उन्हें भगवान् मान लिया ...हम  धड़ल्ले से द्रोपदी, कुन्ती या आयसा की वेदना कभी क्यों नहीं उकेर सके ? ----जब कभी किसी महिला के शोषक के बेनकाब होने का समय आया तो वह धर्म की आड़ लेकर बच निकला ....पहले के आदिम युद्धरत समाज में पुरुषो का दायित्व था क़ि वह अपने समाज की स्त्रीयों को सुरक्षा दें और स्त्रीयां समाज को सन्तति, सौन्दर्य और संस्कार देती थी ...धीरे -धीरे सभ्यता का विस्तार हुआ और युद्ध कम हो गए ...पुरुष हिंसा के प्रकट होने के पटल युद्ध जब कम हो गए तो पुरुष हिंसा की अभिव्यक्ति स्त्री को सुरक्षा देने के बजाय स्त्री शोषण में होने लगी ...फिर धीरे -धीरे पैसे लेकर देह बेचने वाली पुरुष वेश्याएं यानी दहेज़ ले कर शादी करने वाले दूल्हे दिखाई देने लगे ...पुरुष की जगह कापुरुष दिखने लगे ...यह प्रवृत्तीयाँ तो समाज में पहले से ही थीं इनकी पुनरावृत्तियो पर परिचर्चा होने लगी ...पर हर सामाजिक कुरूपता में सम्पूर्ण समाज जिम्मेदार होता है केवल पुरुष या केवल स्त्री  नहीं ....पुरुष अगर बलात्कारी हो तो निश्चय ही पुरुष दोषी है लेकिन स्त्री अगर वैश्या/ कॉल गर्ल /बार बाला है तब पुरुष क्यों और वह स्त्री क्यों नहीं दोषी है ?  ...देर से होते विवाह की सामाजिक स्थिति में वासना की भूख व्यक्त करने के अवसर की घात में रहती है ...ऐसे में मीडिया भी हर अवसर पर कामोद्दीपन कर देह व्यापार की ऐन्सेलरी इकाई या यों कहें अनुपूरक इकाई बन चुका है ...वात्सायन के काम सूत्र के तमाम समकालीन संस्करण से  लेकर इंडिया टुडे और आउट लुक तक सभी देह व्यापार से अपना बाज़ार तलाश रहे हैं ...सवा अरब की आबादी से आक्रान्त देश में सेक्स एजूकेशन की बात होती है और जब सेक्स एजूकेशन की बात होगी तो सेक्स लेबोरेट्री में प्रेक्टिकल भी होंगे जरूर ....आज बच्चा घर से जब भी बाहर निकलता है तो उसे दूध से भरी कढाई नहीं  दिखती ...दिखती है तो काम वासना की अभिव्यक्ति  करती कोई तश्वीर, कोई फ़िल्मी पोस्टर ...और घर पर टीवी में नच बलिये जैसी कोई हरकत या सनसनी जैसा कोई भुतहा चेहरा ...और लडकीयाँ भी कामोद्दीपन में बढ़ चढ़ कर शामिल हैं ....घर पर माँ भी अपनी फौरवर्ड होती बेटी से यह नहीं पूछती कि इन अंग प्रदर्शित और रेखांकित करते कपड़ों में कुछ कर गुजरने की तमन्ना लिए तुम कहाँ जा रही हो ? गाँव में भेस /गाय /कुतिया को जब कहा  था कि वह "गर्म" है तो इसका आशय यह होता था कि उसकी कामेक्षा है आज शहर में लडकीयों के लिए इसी "गर्म" को "हॉट" कहा जाता है तो लडकी के लिए कॉम्पलिमेंट माना जाता है . लड़कियों के नाम "रति" हैं तो रति की परिणिति होगी ही . महान दार्शनिक राखी सामंत कहती है कि ---"Rape is surprise sex."  Facebook पर एक अन्य विदुषी रीना जैन लिखती हैं -- "Virginity is lack of opportunity." ...दूसरी और केंद्र सरकार का एक मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल यह बयान देता है कि -"बीबी जब पुरानी हो जाती है तब उसमें वह मजा नहीं रहता " ......इस प्रकार की घटनाओं में केवल अकेला पुरुष या अकेली स्त्री जिम्मेदार नहीं है बल्कि पूरा समाज सम्यकरूप से जिम्मेदार है ....दहेज़ ले कर शादी करते पुरुष वेश्याओं की निरंतर बढ़ती तादाद और स्त्री वेश्याओं की वश्व की सबसे बड़ी संख्या  बाला देश अब सीता,राधा,रुक्मणी ,गार्गी जीजा बाई ,लक्ष्मी बाई या गार्गी का देश नहीं यह देश "नच बलिये" का देश  है यहाँ अब शिवाजी,गोविन्द सिंह, तात्या टोपे,कान्होजी आंग्रे,टीपू सुलतान, भगत सिंह, सुभाष नायक नही होते यहाँ हैदर अली नायक नहीं होते यहाँ खली नायक होता है ...यहाँ सियाचिन पर मरने वाले सैनिक नायक नहीं होते हाई स्कूल फेल सचिन नायक होता है ...यहाँ शिवश्रोत्रम से अधिक गूंजता है "शीला की जवानी" ... ममता को नारी चरित्र की पराकाष्ठा मानने वाले देश में गली-गली "माँ न बनने का सामान बिक रहा है".... पहले वातावरण में गूंजता था "ॐ " और अब गूंजता है " कंडोम " ....निश्चय ही सामाजिक सुरक्षा का सामाजिक दायित्व निभाने में पुरुष असफल रहा है और संस्कारित करने के दायित्व में स्त्री असफल हो रही है ...सामाजिक मूल्यों की यह गिरानी इस असफलता की सनद है ...संसद से ले कर सड़क तक गाल बजाने से कुछ नहीं होगा कृपया अपनी अंतरात्मा बजाईये ." ------- राजीव चतुर्वेदी  

Saturday, December 15, 2012

राष्ट्र संरक्षण के लिए नहीं राष्ट्र भक्षण के लिए आरक्षण चाहिए

"इस सदी के दूसरे दशक के शुरुआती दौर में हम ठगे से खड़े हैं ...एक महास्वप्न का मध्यांतर है ....देश के संरक्षण के लिए किसी आरक्षण की जरूरत ही नहीं है यहाँ तो देश के भक्षण के लिए आराक्षण की मांग है ....आरक्षण का आशीर्वाद पा कर जैसे भष्मासुर शंकर के सिर पर हाथ रख कर उनको भष्म करने चल पडा हो ....क्रान्ति के लिए किसी आरक्षण की जरूरत नहीं होती ...देश की आज़ादी के लिए जान देने को किसी आरक्षण की जरूरत  नहीं होती ...गांधी, भगत सिंह ,आज़ाद, आंबेडकर , लाजपत राय, जय प्रकाश नारायण, लोहिया आदि सभी का जन्म गुलाम भारत में हुआ था और सभी ने मिल कर देश को आज़ाद करा दिया ...सभी ने अपने अपने रास्तों से अंग्रेजों पर चोट की और उसे देश से खदेड़ दिया . क्या कभी सोचा है कि आज़ादी के बाद भारत माता क्यों बाँझ हो गयी ? आज़ादी के बाद फिर एक अदद गांधी ...भगत सिंह ,आज़ाद, आंबेडकर, लाजपत राय, जय प्रकाश नारायण, लोहिया जैसे किसी नेता का जन्म नहीं हुआ,-- क्यों ? ....राजनीति गोलमाल कर मालामाल होने ...मलाई खाने की जगह हो गयी ...और हर उस जगह जहां देश का संरक्षण नही बल्कि भक्षण करना हो आरक्षण आसान किश्तों में लागू किया गया ...आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र हुए ...याद रहे आरक्षण का दाव कोंग्रेस का नहीं है यह गैर कोंग्रेसीयों का राजनीतिक दाव है ...मंडल कमीशन का गठन 1977 में हुआ था जब मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री, अटल बिहारी बाजपेई विदेश मंत्री, अडवानी -सूचना प्रसारण मंत्री और चरण सिंह गृह मंत्री थे ...मंडल कमीशन लागू हुआ तब वीपी सिंह प्रधान मंत्री थे जिनको भाजपा का बाहर से समर्थन था ...इस बार भी पदोन्नति में आरक्षण को भाजपा का समर्थन है ...कुल मिला कर प्रतिभा के कातिलों में भाजपा की भी समानुपातिक साझेदारी है ....सियाचिन पर राष्ट्र की चौकीदारी करने के लिए कोई क्यों नहीं माँगता आरक्षण ...नश्ल एक वैज्ञानिक तथ्य है इससे इनकार नहीं किया जा सकता ...आप अपने खेत में अच्छी नश्ल का बीज क्यों बोते हैं ?...आप अपने घर पर अच्छी नश्ल का कुत्ता क्यों पालते हैं ? अच्छी नश्ल का घोड़ा ,बैल, गाय ,भैंस क्यों पालते हैं ? ...घर का वृहद् स्वरुप ही तो राष्ट्र है तो फिर राष्ट्र को भी उपयोगी कर्मचारी /जनसेवक अच्छी नश्ल के ही पालने होंगे जिसके चयन के लिए जरूरी है स्वतंत्र प्रतियोगिता फिर आरक्षण क्यों ?... आप सुनना चाहते हैं अच्छी आवाज़ ...आप सूंघना चाहते हैं अच्छी सुगंध ...आप खरीदना चाहते हैं अच्छी कार ...अच्छा मकान ...कपडे ...दवा कल को कोई सिरफिरा चिलायेगा सांस में ओक्सीज़ं के अलावा कार्बन डाईओक्साइड का भी आरक्षण हो ...घुडदोड़ में भैसे का आरक्षण हो ...खरगोश को हनुमान चालीसा पढ़ा कर शेर से लड़ा दो हो जाएगा सामाजिक न्याय . --- कुल मिला कर देश के लिए जान देने के लिए आरक्षण की मांग नहीं है यहाँ तो देश की जान लेलेने को आरक्षण माँगा जा रहा है ...राष्ट्र संरक्षण के लिए नहीं राष्ट्र भक्षण के लिए आरक्षण चाहिए ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, December 11, 2012

अरे डॉक्टर यह दिल है मेरा

"अरे डॉक्टर यह दिल है मेरा
वह और होंगे जिनका दिल मशीन होता है
मेरा दिल लोगों के हंसने पर हंसता है
लोगों के रोने पर रोता है
स्नेह से देख ले कोई तो इसमें भी कुछ-कुछ होता है
इसमें करुणा है श्रृंगार है
इसमें जीने की चाहत का अधिकार है
इसमें खो गए सपने हैं
इसमें रो रहे अपने हैं
इसमें देश का सपना है
इसमें एक भीड़ है उसमें एक चेहरा निहायत अपना है
इसमें कुछ चहक है
खून सूंघो उसमें भी कुछ महक है
खून का ग्रुप तुम्हारी स्वार्थी लेबोरेट्री नहीं जांच सकती
मेरे खून का ग्रुप राष्ट्र पोजेटिव है
तुम तो डॉक्टर हो कमीसन खा कर दवा बेचते हो
पैसा लेकर ही दुआ बेचते हो
स्वार्थी हो इस लिए तुम्हारी अर्थी का भी मेरे लिए कोइ अर्थ नहीं
वह व्यर्थ है
मैं होश में तुम्हारे यहाँ नहीं आता
बेहोशी में मुझे लोग यहाँ ले आये होंगे
मत देखो मेरा इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम
मेरे दिल को समझना हो तो मेरी कविता पढ़ लेना
मैं वही लिखता हूँ जो जीता हूँ
तुम स्वार्थी हो मैं तुम्हारे अस्पताल से जाना चाहूंगा
गलती से आ गया ... या ले आया गया ...तब होश में नहीं था
तुम स्वार्थी हो मैं तुम्हारे अस्पताल से जाना चाहूंगा
अगर यह दुनिया भी तुम्हारे जैसी है तो मैं उससे भी जाना चाहूंगा
गलती से आ गया ... या ले आया गया ...तब होश में नहीं था
अरे डॉक्टर यह दिल है मेरा
वह और होंगे जिनका दिल मशीन होता है
मेरा दिल लोगों के हंसने पर हंसता है
लोगों के रोने पर रोता है ." -----राजीव चतुर्वेदी

Monday, December 10, 2012

राजनीतिक दल अब दुकान बन चुके हैं और देश बिक रहा है

"राजनीतिक दल अब दुकान बन चुके हैं और देश बिक रहा है. वह दिन दूर नहीं कि जब देश और प्रदेश के मुख्यालयों में ही नहीं मौल में भी इनकी दुकाने खुल जायेंगी . अभी तो वॉल मार्ट ने देश की राजनीति खरीदी है कल वॉल मार्ट से देश की राजनीति बिकेगी भी . इन कॉरपोरेट सेक्टर और केरेक्टर के जरखरीद गुलामों की गुणवत्ता तो देखिये --- देश की राजनीति में अचानक आढतीयेनुमा नेता जिस तरीके से अच्छादित हो रहे हैं उस से लगता है कि अब राजनीति एक मुनाफे का कारोबार बन चुका है .नितिन गडकारी गल्ला मंदी के साक्षात् आढतीये लगते हैं ...अमर सिंह अब नहीं रहे राजनीतिक पुनर्जन्म की कोशिश में हैं ...अहमद पटेल और राजीव शुक्ला अपनी दम पर कहीं से सभासद भी नहीं हो सकते सो आज बड़े नेता भारतीय राजनीति के चमगादड़ों की बस्ती सूर्य ही नहीं प्रकाश के अन्य श्रोतों के विरुद्ध भी लामबंद हो चुकी है और परिणाम स्वरुप अँधेरा है जो किसी भी चोर के लिए अनुकूल वातावरण है, इसी लिए भारतीय राजनीती में चोरों के गिरोह सक्रीय हैं. जन नेता हाशिये पर चले गए हैं. चन्द्र शेखर मुश्किल से साढ़े चार माह ही प्रधान मंत्री रह पाए. अटल बिहारी बाजपेयी भी समुचित अवसर नहीं पा पाए  किन्तु अपनी दम पर कहीं से सभासद भी न हो सकने के काबिल मन मोहन सिंह गुजरे आठ साल से प्रधानमंत्री है. दस बार के सांसद सोमनाथ चटर्जी कहाँ हैं ? संगमा कहाँ लुप्त हो गए ? बिहार की राजनीति में देवेन्द्र प्रसाद यादव आज कहाँ हैं ? कोंग्रेस में मन मोहन सिंह नेता हैं और हर जमीनी नेता पर भारी हैं. भाजपा में नितिन गडकारी, किरीट सोमिया जैसे आढतीयेनुमा नेता राष्ट्रीय चेहरा हैं या फिर अरुण जेटली जैसे चोकलेटी व्यक्तित्व हैं, जन नेता कहाँ हैं ?...कहाँ गुम हो गए गोविन्दाचार्य ? कहाँ हैं उमा भारती ? भाजपा का एक मात्र राष्ट्रव्यापी विश्वसनीयता रखने वाला नेता नरेंद्र मोदी भाजपा के ही नेताओं द्वारा राष्ट्रीय राजनीति में नहीं प्रस्तुत किया जा रहा. वाम पंथी पार्टियों का हाल भी बेहाल है. एबी वर्धन दशकों से विधायक ही नहीं हो पा रहे सो सीपीआई के राष्ट्रीय नेता हैं. दूसरे बड़े नेता हैं अतुल अनजान जो वास्तव में संसद तो दूर विधान सभा भी दूर सभासदी से भी अनजान हैं वह राष्ट्रीय राजनीती पर अपनी पार्टी का मार्ग निर्देशन कर रहे हैं सो सीपीआई का हाल जग जाहिर है. सीपीएम के नेता है प्रकाश कारंत उनकी वायु सुन्दरी एयर होस्टेस बीबी वृंदा कारंत और सीता राम येचुरी...इन कारंतों और येचुरी पर कहाँ कितना वोट है सभी जानते हैं ...इनकी औकात भी नहीं है कि कहीं से लोकसभा का चुनाव भी लड़लें सो राज्यसभा में घुस कर राज्य कर रहे हैं यह है इनके जनवाद का अवसरवादी सच. जन नेताओं के प्रभाव को नकार कर चमचों को राजनीतिक दलों ने अपना नेता बना लिया है परिणाम राजनीति पराक्रम की नहीं परिक्रमा की चीज हो गयी है...राजनीती व्यवस्था परिवर्तन का उपकरण न होकर व्यवसाय परिवर्तन का उपक्रम हो चुकी है...राजनीति संघर्ष का आगाज नहीं करती अब राजनीति आरामगाह बन चुकी है. राजनीति का कोर्पोरेट केरेक्टर हो चुका है परिणाम सामने है देखें --राजनीतिक दल कहाँ हैं दुकाने हैं ...फार्म हैं और उस पर आढतीयेनुमा नेता दुकानदारी कर रहें हैं. पार्टियों पर गौर करें --कोंग्रेस कहाँ है ? वहां तो सोनियां एंड सन प्राइवेट लिमिटेड है. समाज वादी पार्टी के एक महान नेता और समाजवाद के फुटकर विक्रेता अमर सिंह नहीं रहे तो क्या हुआ फिर से दूकान खुल गयी है आ ही जायेंगे आखिर देह से ले कर देश तक बड़ी मुस्तैदी से बेचते हैं. समाजवादी पार्टी के नाम पर दो फार्म चल रही हैं ---मुलायम सिंह एण्ड सन्स प्राइवेट लिमिटेड तथा मुलायम सिंह एण्ड ब्रदर्स प्राइवेट लिमिटेड. जय ललिता, करुणानिधी, ममता बनर्जी, चौटाला, अजीत सिंह, शरद पवार, बाल ठाकरे, राज ठाकरे, लालू , पासवान, चन्द्र बाबू नायडू, नवीन पटनायक, फारुख अब्दुल्ला और उनके लल्ला सभी की अपनी-अपनी प्रोप्राइटरशिप फार्म हैं. अब बताईये राजनीति कहाँ हो रही है दूकान लगीं हैं और देश बिक रहा है." ----राजीव चतुर्वेदी

विश्व मानवाधिकार दिवस है ...इस रस्म की भस्म आज जगह -जगह गोष्ठी -सैमीनार में चाटी जायेगी


"आज विश्व मानवाधिकार दिवस है ...इस रस्म की भस्म आज जगह -जगह गोष्ठी -सैमीनार में चाटी जायेगी ...वैसे भी मानवाधिकार की दुकान चला कर कई NGO मोटे हो गए हैं ...हम कब तक बाजे सा अपनी अंतरआत्मा को बजाते रहेंगे ? ...गाँव के टाट -पट्टी वाले स्कूल और  शहर के अभिजात्य पब्लिक स्कूलों के बीच सामान शिक्षा का नारा मुंह बाए खडा है ...भूख भयावह हो चुकी है ...गरीबी की रेखा की अवधारणा तो है पर परिभाषा नदारद है ...न्याय बिकाऊ माल है पर टिकाऊ नहीं ...एक अदालत का फैसला दूसरी अदालत पलट देती है और तीसरी अदालत में उम्र बीत जाती है . पेशकार पैरोकारी के नाम से जो पैसा लेता है उस से तो मेम साहब तरकारी मंगवाती हैं बाकी वफादारी करने के लिए उसको और भी मैच फिक्सिंग करनी पड़ती है ... दहेज़ ले कर शादी करने वाली पुरुष वेश्याओं की भीड़ है ...यह हरामखोर दहेज़खोर उस पुलिस में दरोगा / क्षेत्राधिकारी होते है जो दहेज़ उत्पीडन/ हत्याओं की जांच करती है और एक दहेज़खोर जज उस पर कथित इन्साफ करता है ...भला यह दहेज़खोर हरामखोर किस नैतिक अधिकार से दहेज़ के विवादों में दखल देते हैं ? --- इस वर्ष अब तक देश में 87 हजार से अधिक दहेज़ हत्याएं हो चुकी हैं ...घरेलू हिंसा की बात कुछ महिलाओं ने उठाई जरूर पर उनका जमीर साफ़ नहीं था वह चिल्ल -पों करती थीं कि उनको पति से पिटना पड़ता है ...बात दुखद है पर अधूरी ...अगर घरेलू हिंसा गलत है तो निश्चय ही पति द्वारा पत्नी को पीता जाना भी गलत है और पति -पत्नी दोनों के द्वारा बच्चों को पीटा जाना भी गलत है ...पर घरेलू हिंसा के नाम पर पिट रहे बच्चों की वेदना कोई नहीं सुनता क्योंकि उनका कोई वोट बेंक नहीं है ....बाल मजदूर आज भी मजबूर हैं ...असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का कोई संगठन ही नहीं ....विश्व की हर सातवीं बाल वैश्या भारत की बेटी है ...रोशनी ,रास्ते ,राशन और रोजगार पर शहरों का कब्जा है ...कृषि प्रधान देश में कृषि अब घाटे का व्यवसाय हो गया है . कृषि उत्पाद का मूल्य तभी बढ़ता है जब वह खलिहान से आढ़तिये के गोदाम में पहुँच जाता है ...और, ...और ...एक बात कहूँ ? ----हिजड़ों के मानवाधिकार की बात कोई क्यों नहीं करता ? ---इसीलिए न क्योंकि उनका कोई वोट बेंक नहीं है दूसरे नंबर के बहुसंख्यक यानी मुसलमानों को भी अल्पसंख्यक इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनका वोट बैंक है और वास्तविक अल्प संख्यक पारसीयों का कोई वोट बैंक नहीं ...और इस पूरे परिदृश्य को संदेहास्पद तथा अविस्वस्नीय बना दिया है उन मानवाधिकार संगठनों ने जो मानवाधिकारों की केवल इस्लामिक या नक्सली आतंकियों के लिए ही लड़ते है उनके द्वारा मारे गए लोगों के लिए नहीं परिणाम कि आज मानवाधिकार की लड़ाई "दानवाधिकार की लड़ाई में बदल गयी है ...पर याद रहे अभी मासूमियत के गालों पर आंसू सूखे नहीं है और मानवाधिकार के सवाल भी अभी नम हैं सूखे नहीं हैं ... हर तहरीर में तश्वीर देखो इस तरक्की की ." ------ राजीव चतुर्वेदी

Sunday, December 9, 2012

हमारे तुम्हारे दरमियाँ एक दूरी थी



"हमारे तुम्हारे दरमियाँ एक दूरी थी
मकसद बड़ा था मगर कद छोटा था हमारा
उस दूरी को न नाप पाने की मजबूरी थी
हमें मिलने से रोक सकता था ज़माना
कुछ ख्वाहिशें थीं पर बीच में गुरूरों की खाई गहरी थी 
पर घुल -घुल कर हम हवाओं में घुल चुके थे
प्यार की खुशबू हर खाई खलिश की लांघ जाती है
उस और से आती हवा मेरे आँचल पे ठहरी थी ."
----- राजीव चतुर्वेदी

आओ पाखण्ड -पाखण्ड खेलें

"आओ पाखण्ड -पाखण्ड खेलें
 वामपंथी पाखंडों का भी मंतव्य एक है, गंतव्य अलग
दक्षिण पंथी पाखण्ड परिक्रमा में बहुत हैं पराक्रम में नहीं
सेक्यूलर कुछ -कुछ सूअर से मिलता हुआ शब्द है जो सर्व भोजन समभाव लेता है
सेक्यूलर वैचारिक खतना कराये हुए बुद्धिखोर होते हैं
सेक्यूलरों की सृष्टि सही पर दृष्टि कानी होती है
बेईमानी के सभी सिद्धांतों में इनकी मनमानी होती है  
सेक्यूलरों को जम्मू -कश्मीर में हिन्दुओं का पलायन नहीं दीखता
गोधरा की जलती ट्रेन में भूनते हुए हिन्दू तीर्थ यात्री नहीं दीखते
पर प्रति हिंसा प्रति पल दिखने का छल जारी है --यही इनकी गद्दारी है
एक सफल वैश्या व्यावसायिक कर्तव्य-निष्ठा से सेक्यूलर होती है  
हिन्दुओं के पाखण्ड अखंड हैं और प्रचण्ड भी
जिसने महान सभ्यता की पेंदी में छेड़ किया है
 ईसाईयों के पाखण्ड सेव खा कर पैदा हुए हैं
और ईसा  को हर साल सूली पर टांग कर जश्न मना रहे हैं
गैलीलियो की ह्त्या पर पछताने में उनको एक हजार साल से ज्यादा लग गए
यद्यपि ईसाई समय के पावंद होते हैं  
मुसलमानों के पाखण्ड इस शान्ति प्रेमी सभ्यता से मत पूछिए
जब यह हिंसा करें तो "हिंसा हलाल है"
पर जब कोई इनके ऊपर हिंसा करे तो मलाल है
यह इजराइल से गुजरात तक जब भी पिटते है तो शान्ति प्रेमी हो जाते है
वैसे गोधरा काण्ड करते में इनको
शान्ति की याद वैसे ही नहीं आयी जैसे अयसा के प्रति आज तक संवेदना
इस कौम में कर्बला का खलनायक सूफियान आज भी हर मोहल्ले में पाया जाता है
यह माना कि यह कर्बला से आज तक ग़मगीन हैं
पर आज भी इनके यहाँ यजीद और मोबीन हैं ." 
----- राजीव चतुर्वेदी    

आओ पाखण्ड -पाखण्ड खेलें

"आओ पाखण्ड -पाखण्ड खेलें
 वामपंथी पाखंडों का भी मंतव्य एक है, गंतव्य अलग
दक्षिण पंथी पाखण्ड परिक्रमा में बहुत हैं पराक्रम में नहीं
सेक्यूलर कुछ -कुछ सूअर से मिलता हुआ शब्द है जो सर्व भोजन समभाव लेता है
सेक्यूलर वैचारिक खतना कराये हुए बुद्धिखोर होते हैं
सेक्यूलरों की सृष्टि सही पर दृष्टि कानी होती है
बेईमानी के सभी सिद्धांतों में इनकी मनमानी होती है  
सेक्यूलरों को जम्मू -कश्मीर में हिन्दुओं का पलायन नहीं दीखता
गोधरा की जलती ट्रेन में भूनते हुए हिन्दू तीर्थ यात्री नहीं दीखते
पर प्रति हिंसा प्रति पल दिखने का छल जारी है --यही इनकी गद्दारी है
एक सफल वैश्या व्यावसायिक कर्तव्य-निष्ठा से सेक्यूलर होती है  
हिन्दुओं के पाखण्ड अखंड हैं और प्रचण्ड भी
जिसने महान सभ्यता की पेंदी में छेड़ किया है
 ईसाईयों के पाखण्ड सेव खा कर पैदा हुए हैं
और ईसा  को हर साल सूली पर टांग कर जश्न मना रहे हैं
गैलीलियो की ह्त्या पर पछताने में उनको एक हजार साल से ज्यादा लग गए
यद्यपि ईसाई समय के पावंद होते हैं  
मुसलमानों के पाखण्ड इस शान्ति प्रेमी सभ्यता से मत पूछिए
जब यह हिंसा करें तो "हिंसा हलाल है"
पर जब कोई इनके ऊपर हिंसा करे तो मलाल है
यह इजराइल से गुजरात तक जब भी पिटते है तो शान्ति प्रेमी हो जाते है
वैसे गोधरा काण्ड करते में इनको
शान्ति की याद वैसे ही नहीं आयी जैसे अयसा के प्रति आज तक संवेदना
इस कौम में कर्बला का खलनायक सूफियान आज भी हर मोहल्ले में पाया जाता है
यह माना कि यह कर्बला से आज तक ग़मगीन हैं
पर आज भी इनके यहाँ यजीद और मोबीन हैं ." 
----- राजीव चतुर्वेदी    

Saturday, December 8, 2012

वह कसमों सा आया और रस्मों सा चला गया

"वह कसमों सा आया और रस्मों सा चला गया ,
मैं पेड़ों सी खडी रही
वह हवा सा गुज़र गया
हिला गया बदन मेरा
खिला गया वह मन मेरा
वह गुज़र गया तो पता चला
मुझे गुजारिशों पे गुरूर था .
" ---- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 6, 2012

साम्प्रदायिकता को कानी आँख से देखने की कवायद न करें


"हिन्दू और मुसलमान भारत में यह दो अलग-अलग राष्ट्र विकसित हो रहे हैं --- यह खतरनाक है . पाकिस्तान के इशारे पर प्रथकतावादी यही चाहते हैं . एक समय था जब सुबह रेडिओ पर मुहम्मद रफ़ी का गाया --"...मन तडपत हरि दर्शन को ..." गूंजता था तो लता गाती थीं --"...अल्लाह तेरो नाम ...दाता तेरो नाम ..." यह भी हो सकता है कि यह उनकी व्यावसायिक विवशता रही हो . आज दोनों तरफ की साम्प्रदायिकता सत्य और न्याय को कानी आँख से देख रही है ---ज़रा गौर करें ---बाबरी मस्जिद की शहादत पर हर साल छाती पीटने वाले मुसलमान यह तो मानते हैं कि बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना गलत था पर क्या यह बताएँगे कि जब औरंगजेब के जमाने से जब हिन्दुओं के मंदिर तोड़े जा रहे थे तब तुम्हारी इन्साफ पसंदी कहाँ थी ? हिन्दुओं के छः हजार से अधिक मंदिर तोड़े गए और मुसलमानों की तरफ से इन्साफ पसंदी की तब से अब तक एक भी आवाज नहीं फूटी ....देश में एक मात्र जम्मू -कश्मीर वह राज्य है जो सदैव मुसलमान शासित रहता है वहां गुजरे एक दशक में 200 से अधिक मंदिर तोड़ दिए गए पर जब हिन्दुओं के मंदिर तोड़े जाते हैं तो मुसलमानों की तरफ से शातिराना चुप्पी है .अगर पूजाघर /इबादतगाह तोड़ना गलत है तो जो गलती औरंगजेब के जमाने से आज तक मुसलमान जारी किये हुए हैं और शातिराना चुप्पी साधे हैं वही काम जब एक बार हिन्दुओं ने बाबरी मस्जिद पर कर दिया तो वह गुनाह है और बीस साल से छाती पीट रहे हैं, ---क्या यह न्याय संगत है ? दूसरे, सभी जानते हैं कि मोबीन से लेकर सूफियान की राज सत्ता के रहते मुहम्मद साहब कभी मक्का में प्रवेश ही नहीं कर सके और अपने आख़िरी दौर में उन्होंने अपनी प्राण रक्षा के लिए भारत में शरण ली थी जहाँ उन्होंने जम्मू-कश्मीर जा कर अखरोट की लकड़ी से भव्य मस्जिद बनाई . चूंकि वह मुक़द्दस मस्जिद स्वयं मुहम्मद साहब ने बनाई थी अतः मुसलमानों के एक तीर्थ की तरह वह चरार-ए-शरीफ नामक मस्जिद जानी जाने लगी . जिसे उसी कालखंड में एक मुसलमान आतंकी मस्तगुल ने जला कर राख कर दिया कि जिस कालखंड में बाबरी मस्जिद ढहाई गयी . यानी बात साफ़ है कि चरार -ए -शरीफ जैसी स्वयं मुहम्मद साहब की बनाई मस्जिद को अगर कोई पाकिस्तानी मुसलमान जला कर राख कर दे तो कोई बात नहीं ...देश में मुहम्मद साहब की आख़िरी निशानी नहीं रही तो कोई बात नहीं पर बाबरी मस्जिद पर छाती पीटना नहीं भूलेंगे .राम और कृष्ण दोनों की जन्म स्थली पर मुग़ल आक्रमणकारीयों ने मस्जिद बनाई . मुहम्मद साहब की बनाई मस्जिद चरार -ए -शरीफ का कोइ दर्द नहीं ? जम्मू-कश्मीर आज़ादी से अब तक मुसलमान शासित राज्य है वहां हिन्दू कितना सुरक्षित है यह कभी सोचा है उन कट्टरपंथी मुसलमानों ने जहां से लाखों कश्मीरी पंडित दो दशकों से पलायन कर रहे हैं ? जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं को अपने तीर्थ अमरनाथ यात्रा करने पर हर साल क़त्ल -ए -आम का शिकार होना पड़ रहा है क्या यह जम्मू -कश्मीर का नज़ारा इन कानी आँख से सेक्यूलर सत्य देखते लोगों को दिखाई नहीं देता ? यह लोग जम्मू-कश्मीर नहीं देखते पर गुजरात देखते हैं  ...वही गुजरात जहां महाराष्ट्र से पलायन करके शाहीन और उसका परिवार जा बसा है और महफूज़ महसूस कर रहा है ...गुजरात के दंगों की तो सुनियोजित शातिराना शैली में बातें करेंगे पर क्या यह बताएँगे कि गुजरात के दंगे क्यों शुरू हुए ? गोधरा में हिन्दू तीर्थ यात्रियों से भरी ट्रेन जला कर तीर्थ यात्रियों को ज़िंदा जला डालने का गुनाह और उस पर अब तक की शातिराना चुप्पी साम्प्रदायिकता को कानी आँख से देखना ही है,--- इससे बाज आयें ...अब बहुत हो चुका ...शान्ति से रहने की कोशिश करें एक -दूसरे के जख्म न कुरेदें ...हिन्दू भी शौर्य दिवस मनाने से बाज आयें क्योंकि  अगर अपनी सरकार में बाबरी मस्जिद ढहा देना शौर्य था तो औरंगजेब तुमसे बड़ा सूरमा था जिसने अपनी सरकार में 6000 से अधिक मंदिर ढहाए ...फारुख अब्दुला /शेख अब्दुला भी 200 से अधिक मंदिर ढहा कर शौर्य से सरकार चला रहे हैं और मस्त गुल ने भी चरार -ए -शरीफ जला कर राख कर दी थी क्या वह "शौर्य" था या शातिर की करतूत ? लाखों हिन्दू लोग अमन और वतन के लिए बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर मुसलमानों के जज्वात के साथ हैं पर गोधरा काण्ड की निंदा करती एक आवाज़ भी मुसलमानों के मुँह से आज तक नहीं फूटी क्यों ? जम्मू-कश्मीर में 200 से अधिक मंदिर तोड़े जाने पर अभी तक देश में क्या है कोई अमन पसंद मुसलमान है जो बोले ? साम्प्रदायिकता को कानी आँख से देखने की कवायद न करें ." -----राजीव चतुर्वेदी


Wednesday, December 5, 2012

आओ हम दुःख की रजाई ओढ़ कर सो जाएँ धीरे से

"आओ हम दुःख की रजाई ओढ़ कर सो जाएँ धीरे से
और मैं तुमसे ये पूछूं -- " खुश तो हो ? "
सर्द हैं आहें,    हवाएं खौफ से खामोश हैं
सहमे से मकानों की टूटी खिड़कियों से आती चांदनी चर्चा करेगी
हरारत की इबारत दर्ज हो जब सांस में तेरी
जरूरत का जनाजा सुबह सपने ओढ़ कर
उस चौखट को जब लांघेगा जहाँ दरवाजे अब गुमशुदा हैं
सहम के पूछती है रात -- "सफ़र लंबा है तेरा ?"
आओ हम दुःख की रजाई ओढ़ कर सो जाएँ धीरे से
और मैं तुमसे ये पूछूं खुश तो हो ?"     ---- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, December 4, 2012

पैसे के आते ही भाषाएँ बदल जाती हैं रातों-रात

"मेरी चीख
तुम नहीं सुनोगे
अब तुम तक नहीं पहुंचेगी मेरी कोई आवाज़
पैसे के आते ही भाषाएँ बदल जाती हैं रातों-रात
मैं वही हूँ
बदला नहीं हूँ
तुम्हारी गुड मोर्निंग के जवाब में कहूंगा शुभ प्रभात .
"---- राजीव चतुर्वेदी

लोकतंत्र के इस पड़ाव पर

"आज प्रभावों से पस्त
और अभावों से ग्रस्त एक बस्ती में
दो औरतें नल के पानी की चाहत में
नितांत संसदीय भाषा में संसद -संसद खेल रही थी
न नल में पानी था न सरकार की आँख में पानी था
राशन भाषण अनुशासन के अनुच्छेद आकार ले रहे
शब्दकोष में गाली थी जो
मतभेदों की मतवाली भाषा अब मदान्ध महसूस हो रही
ऐसे त्रासद दौर में जीती मतदाताओं की पूरी पीढी
मूलभूत आवश्यकता की चाहत में घोर यंत्रणा झेल रही थी

एक तरफ राशन के रस्ते
और वहां भाषण गुलदस्ते
जनता को विश्वास बहुत था
वोट वहां मिलते थे सस्ते
नेताओं की दूसरी पीढी जनता के विश्वास से देखो खेल रही है
जनता का बेटा जनता है
नेता का बेटा नेता है
जन्मजात जनतंत्र सीखती
घोटाले का मन्त्र सीखती
गुंडों का अंब तंत्र सीखती
शातिर सी मंशा लेकर भी सभ्य दीखती
सत्ता की सीढ़ी पर चढ़ती नेताओं की नाकाबिल पीढी
लोकतंत्र के इस पड़ाव पर
जनादेश का नया खिलोना खेल रही है ."
---- राजीव चतुर्वेदी

भारत में वैश्या वृत्ति भी है और प्रवृत्ति भी


" भारत में वैश्या वृत्ति भी है और प्रवृत्ति भी यहाँ दो प्रकार का देह व्यापार हो रहा है एक तो दहेज़ के नाम पर देह व्यापार जिसमें पुरुष वेश्याएं अपनी देह बेच रही हैं और दूसरे प्रकार का देह व्यापार कि जिसमें नारी देह सामान की तरह खरीदने का अपमान है। पहले पुरुष वेश्याओं की बात हैं .---- दहेज़ निश्चय ही "देह व्यापार " है और दहेज़ ले कर शादी करनेवाले दूल्हे / पति "पुरुष वैश्या". दहेज़ वैश्यावृत्ति है और दहेज़ की शादी से उत्पन्न संताने वैश्या संतति. याद रहे वैश्या की संताने कभी क्रांति नहीं करती तबले सारंगी ही बजाती हैं .लेकिन ताली दोनों हाथ से बज रही है. जब तक सपनो के राजकुमार कार पर आएंगे पैदल या साइकिल पर नहीं तब तक दहेज़ विनिमय होगा ही . जबतक लड़कीवाले लड़के के बाप के बंगले कार पर नज़र रखेंगे तब तक लड़केवाले भी लड़कीवालों के धन पर नज़र डालेगे ही. इस तरह की वैश्यावृत्ति से आक्रान्त समाज में अब लडकीयाँ अपने थके हुए माँ -बाप की गाढ़ी कमाई पुरुष देह को अपने लिए खरीदने के लिए खर्च करने को मौन /मुखर स्वीकृति देती हैं ...यदि स्वीकृति नहीं भी हो तो विरोध तो नहीं ही करती हैं। लडकीयाँ दहेज़ से लड़ना ही नहीं चाह रहीं। सुविधा की चाह उन्हें संघर्ष की राह से बहुत दूर ले आई है। देश में दूसरे तरह का देह व्यापार स्त्री देह व्यापार है। जिस देश में साल में दो बार नौ -नौ दिन नौ देवी जैसे पर्व मनाये जाते हों ...अस्य नार्यन्ती पूज्यन्ते जैसे जुमले गुनगुनाये जाते हों गार्गी, सीता, यशोदा, अन्नपूर्णा, सरस्वती के संस्कारों की विराशत के देश में आज भी विश्व के सबसे बड़े देह व्यापार के बाजार हैं वह भी वहां जहां दुर्गा पूजा की दीवानगी है यानी कलकत्ता जी हाँ में कोलकाता के सोना गाछी और बहू बाज़ार नामक रेड लाईट एरिया की बात कर रहा हूँ। विडंबना यह कि मानवाधिकार के लिए छाती पीटने के आदी वामपंथी यहाँ तीस साल राज्य कर के गुजर गए और अब एक महिला ममता का राज्य है। क्या आपको पता है कि विश्व की हर सातवीं बाल वैश्या भारत की बेटी है। देश में सुबोध लडकीयाँ मुम्बई -दिल्ली जैसे शहरों में खुलेआम आपने आपको विभिन्न बहानो और आवरणों में बेच रही हैं और अबोध गरीब लडकीयाँ खुले-आम खरीदी-बेची जा रही हैं। कभी अरबी शेख से शादी के नाम पर कभी शादी के नाम पर और अक्सर "गायब हो गयी" के नाम पर लडकीयाँ देह बाज़ार में भेजी जा रही हैं। फिल्म "तलाश" में करीना का एक संवाद है----" वेश्यावृति अपराध है साहब हमरे देश में, जो अपराध करता है वो खुद अपनी गिनती कैसे करवाए? और जिसकी गिनती नहीं वो अपने गायब होने की रिपोर्ट कैसे कराये? हजारो लडकिया ऐसे ही गायब हो जाती है साहब और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।" कुल मिला कर भारत में सामाजिक संस्तुति से होता पुरुष वेश्याओं का देह व्यापार यानी "दहेज़" और स्त्री वेश्याओं की बढ़ती संख्या इस राष्ट्र को कलंक की कगार पर ले आये हैं। ऐसे में क्रान्ति की संभावना कोई नहीं क्योंकि याद रहे --वैश्या संताने क्रांति नहीं करती,...नाच बलिये करते हैं तबले-सारंगी ही बजाते हैं।"-- राजीव चतुर्वेदी

Monday, December 3, 2012

आम आदमी को "आम" की तरह ख़ास आदमी चूसता रहा है

"आम आदमी को "आम" की तरह ख़ास आदमी चूसता रहा है ...मुग़ल कालीन जुमला है "कत्ले आम" यानी यहाँ भी आम आदमी का ही क़त्ल होता था ...अंग्रेजों के समय भी आम आदमी ही गुलाम था ...नेहरू से मनमोहन तक भी आम आदमी की खैर नहीं रही ...रोबर्ट्स बढेरा को भी बनाना रिपब्लिक घोटाले की डकार लेते हुए मेंगो रिपब्लिक लगने लगा कार्टून की दुनिया में आर के लक्ष्मण के "आम आदमी" की हैसियत काक के कार्टूनों में भी नहीं बदली ...आम आदमी पर वामपंथी कविता सुनते ख़ास आदमी ने भी द्वंदात्मक भौतिकवाद दनादन बघारा ...आम आदमी की चिंता में संसद के ख़ास आदमी अक्सर खाँसते हैं ...अब केजरीवाल को भी आम आदमी को आम की तरह चूसना है ...अरे भाई आम आदमी वह है जिसे केरोसीन के तेल का मोल पता हो ...राशन की दूकान की कतार में कातर सा खडा हो ...आलू की कीमत से जो आहात होता हो ...जो बच्चों के साथ खिलोनो की दूकान से कतरा कर निकलता हो ...जो बच्चों को समझाता हो कार बालों को डाईबिटीज़ हो जाती है क्योंकि वह पैदल नहीं चलते ...आम आदमी अंगरेजी नहीं बोलता ...आम आदमी के बच्चे मुनिस्पिल स्कूल में पढ़ते है। वहां टाट -पट्टी पर बैठ कर इमला लिखते हैं ...वह जब कभी रोडवेज़ बस से चलता है ...उसका इनकम टेक्स से उसका कोई वास्ता नहीं होता किन्तु वह इनकम टेक्स अधिकारी से भी उतना ही डरता है जितना और सभी घूसखोर अधिकारियों से डरता है क्योंकि घूस देने पर उसके सपनो का एक कोना तो टूट ही जाता है ...आम आदमी देश की मिट्टी से जुडा होता है वह खेत की मिट्टी देख कर बता देता है कि यह बलुअर है या दोमट ...आम आदमी मिट्टी देख कर बता देता है इस मिट्टी में कौन सी फसल होगी बिलकुल वैसे ही जैसे कोई केजरीवाल बताता हो इस मिट्टी में कौन सा वोट उगेगा ?" --- राजीव चतुर्वेदी