Wednesday, March 27, 2013

जिन्दगी के रंग जब रूठे हों मुझसे,-- क्या करूँ मैं ?

"जिन्दगी के रंग जब रूठे हों मुझसे,-- क्या करूँ मैं ?
रिश्ते रास्तों में कहीं छूटे हों मुझसे ,---क्या करूँ मैं ?
ओढ़ कर तनहाई अपनी सांस की शहनाई सुनता हूँ
अपने अथाही मौन को मैं तोड़ता हूँ अपनी कविता से
संविधानो की शपथ के शब्द जब झूठे हों मुझसे --क्या करूँ मैं ?
" ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, March 24, 2013

हर क्रान्ति एक नए राजनीतिक आविष्कार का संस्कार है

"कुछ यथावत की पोषक शक्तियाँ भी कभी -कभी क्रान्ति कराहती हैं ...कुछ क्रान्ति को कनस्तर में भरे घूम रहे हैं ...कुछ क्रान्ति के कुटीर उद्योग चला रहे हैं ...कुछ क्रान्ति के कीचड में किलोलें कर रहे हैं ...कौन समझाए कि क्रान्ति हताशा का स्थानान्तरण है ...विवशता का व्याकरण है ...राजनीतिक संक्रमण है ...किसी तानाशाह का अतिक्रमण है ...क्रान्ति का लक्ष्य लोकतंत्र नहीं होता पड़ाव लोकतंत्र होता है ...यों तो क्रान्ति के नाम पर जो भ्रान्ति है उसमें फ़िल्मी "क्रान्ति " में मनोज कुमार "चना जोर गरम" बेच देते हैं ...साहित्यिक क्रान्ति की भ्रान्ति में लोग साहित्य और संवेदनाएं तक बेच देते हैं ...कुछ शातिर निजी स्वार्थों की खातिर क्रान्ति की भ्रान्ति में समाज की संभावना तक बेच देते हैं ...क्रान्ति एक बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था की परिकल्पना है जिसके लिये पुरानी को ढहाना और नयी व्यवस्था का निर्माण जरूरी है ...क्रान्ति प्रायः तब होती है जब एक निजी स्वार्थों से ऊपर उठा कोई योद्धा किसी दार्शनिक /संतमना विचारक का साथ पाता है जैसे अर्जुन -कृष्ण का , एलेक्जेंडर (सिकंदर ) सुकरात -प्लेटो की परम्परा का, चन्द्रगुप्त चाणक्य का, फ्रांस की क्रान्ति में रूसो -वोल्टेयर का, लेनिन ,माओ ,फीडल कास्ट्रो को मार्क्स-एंजिल्स (हीगल ) का , गांधी को बाल गंगा धर तिलक का ...ऐसे कई उदाहरण हैं जो स्वयं में महान योद्धा और महान विचारक भी थे पर इन दोनों ऊर्जाओं में परस्पर संतुलन नहीं बैठाल सके और इसी लिए वह महान लोग अपने लक्ष्य नहीं पा सके जैसे भगत सिंह, राम मनोहर लोहिया ...हर क्रान्ति एक नए राजनीतिक आविष्कार का संस्कार है ." -----राजीव चतुर्वेदी

Friday, March 22, 2013

वह एकमुश्त कबीर थे और हम सभी किश्तों में कबीर हैं

"कबीर विद्रोही थे ...सत्यवादी थे ...बिना लाग लपेट के सच बोलते थे ...उनका व्यक्तित्व संत तुल्य था यह सभी बातें ठीक हैं ...पर कबीर ने 120 वर्षों की आयु में 1000 साल का ज्ञान समेट दिया यह बात अति रंजित है ...इस एक हजार साल में पचास तरह के विज्ञान और उनकी नयी खोज शामिल हैं ...कबीर कविता के शिल्प या विचार की कसौटी पर महान कवि नहीं थे ...कबीर महान दार्शनिक भी नहीं थे कि उन्होंने नया दर्शन प्रतिपादित किया हो ...कबीर महान प्रणेता या समाज सुधारक भी नहीं थे किन्तु कबीर इन सभी गुणों का एक पॅकेज थे इसलिए विलक्षण और आदरणीय थे ...कबीर इस लिए भी आदरणीय थे कि उन्होंने ज्ञान के अभिजात्य प्राचीर के किसी कोने को तोड़ा था ...लेकिन कबीर सत्य /सुख /प्रेम /पराक्रम के उत्पादक थे या उपभोक्ता यह तो तय करना ही होगा ...हाँ यह बात सही है कि जामुन खा कर भी होठ /गला नीला होजाता है पर समाज का जहर पीने वाला ही नीलकंठ कहलाता है जामुन खाने वाला नहीं ...वह एकमुश्त कबीर थे और हम सभी किश्तों में कबीर हैं ." ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, March 21, 2013

'प्यार' त्रिभुज का चौथा कोना चुप सा बैठा है

"मेरे पास सवाल
तुम्हारे पास उत्तर थे
हम हमेशा एक -दूसरे की प्रतीक्षा में रहे
मिले तो मिले परीक्षा में
अंक पत्रों की समीक्षा में
और फिर मिले ही नहीं
प्रतीक्षा
परीक्षा
समीक्षा
'प्यार' त्रिभुज का चौथा कोना चुप सा बैठा है ."

----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, March 20, 2013

तेरा यह क्रमशः टूटना

"तेरा यह क्रमशः टूटना
मुझे यों तो कभी अच्छा नहीं लगा
पर एक वह दिन भी था जब मुझे अच्छा लगा था
तुम्हारी आशा टूटी
तुम्हारी भाषा टूटी
तुम्हारी हर परिभाषा टूटी
तुम्हारी भावना टूटी
तुम्हारा दिल टूटा
तुम्हारा सपना टूटा
और तुम किश्तों में टूट गए
अन्त में तुम्हारा मौन टूटा
और उस दिन तक स्थापित सच टूट गया
तुम्हारे शब्दों में नया सच उगा
तेरा यह क्रमशः टूटना
मुझे यों तो कभी अच्छा नहीं लगा
पर एक वह दिन भी था जब मुझे अच्छा लगा था
तब तक तो तू टूट चुका था किश्तों में
तब तक तो तू टूट चुका था रिश्तों में
टूट चुके आदमी का जब मौन टूटता है
तो टूटता है किसी अटूट समझे जाने वाले बाँध की तरह
और उस बाँध के किनारे की बस्तियां बह जाती है सच के सैलाब में
तेरा यह क्रमशः टूटना
मुझे यों तो कभी अच्छा नहीं लगा
पर एक वह दिन भी था जब मुझे अच्छा लगा था ."
----राजीव चतुर्वेदी

बहरहाल 'सच ' ज़िंदा नहीं है यह सच है

"किसकी है यह लावारिश लाश ?
'सच' की ...?
पंचायतनामा भरो इसका
पोस्टमार्टम को भेजो
सच के पोस्टमार्टम के बाद ही पता चलेगा
कि 'सच ' की ह्त्या की गयी थी
या 'सच ' ने आत्महत्या करली
बहरहाल 'सच ' ज़िंदा नहीं है यह सच है
और यह भी सच है कि हम ज़िंदा हैं .
" -----राजीव चतुर्वेदी

संशयों में शब्द सीमित ही तो रहते हैं

"संशयों में शब्द सीमित ही तो रहते हैं
ये तुमने क्या कहा ?
भावनाओं को कहीं नज़दीक से छूकर गुजरती
स्पर्श-रेखा सी तुम्हारी याद
शून्य में संगीत देती है
मेरे खून से भी खूबसूरत याद तेरी
मेरे दिल के दरवाजे पर दस्तक दे रही है
और इस धडकनों के शोर में
तेरे अहसास का संगीत आकार लेता है
सुना है समंदर अपने किनारों से टकरा कर
अक्सर लौट जाता है .
" -----राजीव चतुर्वेदी

दारू एक कालजयी, धर्म निरपेक्ष, पतित पावन पेय है


"यद्यपि मैं दारू के स्वाद से अभी तक वंचित हूँ ...यह मेरे पुरखों का संस्कार था या अभिशाप मुझे क्या मालुम ? ...लेकिन यह तय है कि दारू एक कालजयी पेय है ...देवता हों या दानव सभी इसको पी कर टुन्न रहते थे ...सुर सुरा पीते थे ...ससुरे पियक्कड़ ...मौलवी जी बताते हैं कि दारू पीना हराम है तो अपने मजहब के हरामियों की संख्या भी गिन लें वैसे उनको शायद यह नहीं पता कि "अल -कोहल" अरबी का मूल शब्द है ...अजीब तासीर है इस दिव्य पेय की कि पीने वाले के मुंह में बबासीर हो जाता है ...जो देसी पीता है वह देशी गालियाँ बकता है और जो अंगरेजी पीता है वह अंगरेजी गालियाँ बकता है ...दारू रिश्तों में रिरियाती है पर रिश्वत का सबसे कारगर उपाय है ...दारू गांधी के मद्य निषेध के नारे की कब से हवा निकाल चुकी है और सरकारी आय का बड़ा माध्यम है ...एक किस्सा है --मिर्ज़ा ग़ालिब ने एक मौलवी को चुनौती दी -- "गर है हिम्मत तो मस्जिद हिला के देख ...वरना आ मेरे पास ...थोड़ी पी और हिलती हुयी मस्जिद देख ." ...ईसा के अनुयाईयों ने भी खूब दारू पी और पिलाई और तमाम मोनालिसा की रोती सूरत उन्हें मुस्कुराती नज़र आयी ...वैसे ठेके पर ठर्रा जिसने चढ़ाई उसको नाली भी संगम या आब -ए -जमजम नज़र आयी ...इसीलिए कहता हूँ दारू एक कालजयी धर्म निरपेक्ष पतित पावन पेय है ." -----राजीव चतुर्वेदी


Sunday, March 17, 2013

तेरा यह क्रमशः टूटना मुझे यों तो कभी अच्छा नहीं लगा

"तेरा यह क्रमशः टूटना
मुझे यों तो कभी अच्छा नहीं लगा
पर एक वह दिन भी था जब मुझे अच्छा लगा था
तुम्हारी आशा टूटी
तुम्हारी भाषा टूटी
तुम्हारी हर परिभाषा टूटी
तुम्हारी भावना टूटी
तुम्हारा दिल टूटा
तुम्हारा सपना टूटा
और तुम किश्तों में टूट गए
अन्त में तुम्हारा मौन टूटा
और उस दिन तक स्थापित सच टूट गया
तुम्हारे शब्दों में नया सच उगा
तेरा यह क्रमशः टूटना
मुझे यों तो कभी अच्छा नहीं लगा
पर एक वह दिन भी था जब मुझे अच्छा लगा था
तब तक तो तू टूट चुका था किश्तों में
तब तक तो तू टूट चुका था रिश्तों में
टूट चुके आदमी का जब मौन टूटता है
तो टूटता है किसी अटूट समझे जाने वाले बाँध की तरह
और उस बाँध के किनारे की बस्तियां बह जाती है सच के सैलाब में
तेरा यह क्रमशः टूटना
मुझे यों तो कभी अच्छा नहीं लगा
पर एक वह दिन भी था जब मुझे अच्छा लगा था
." ----राजीव चतुर्वेदी

Friday, March 15, 2013

मुलजिमों के हाथ मुआवजा लेना तुम्हें कैसा लगा ?

"मुलजिमों के हाथ मुआवजा लेना तुम्हें कैसा लगा ?
सहमती सी शाम को अब सच बताओ
आंसुओं की यह इबारत बढ़ी कीमत पर कल अखबारों में छपेगी
वेदना, संवेदना, सतह पर तैरते साहित्य के जुमले सभी
निरर्थक मौत पर
सार्थक जिन्दगी का पैबंद सिलकर शामियाने सा सजाया जा रहा है
और उस शोकाकुल से सरकारी जलसे में
पाखंडी पराक्रम की पैमाइश करता वह शिखंडी सियासत का
वह पैसा फेंकता है जो उसके बाप का हरगिज नहीं था
लाश की कीमत लागात
े लोग
काश तुम जिन्दगी की कीमत जानते होते
कातिलों ने कफ़न की दूकान खोली है
और उस दूकान को दरकार ग्राहक की गुनाहगारों का ही गुणगान करती है
मुलजिमों के हाथ मुआवजा लेना तुम्हें कैसा लगा ?
सहमती सी शाम को अब सच बताओ
आंसुओं की यह इबारत बढ़ी कीमत पर कल अखबारों में छपेगी।"
----राजीव चतुर्वेदी

क्या तुम भी ज़िंदा हो ? ...तो बोलते क्यों नहीं ?

"किसी ने मुझे इत्तला दी है
कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
क्या तुम भी ज़िंदा हो ?
तो बोलते क्यों नहीं ?
यही कि हमने धर्म बनाया है
धर्म ने हमको नहीं
यही कि जम्मू -कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद से
लाखों हिन्दू पलायन कर गए हैं और सैकड़ों मार दिए गए हैं
यही कि गोधरा काण्ड में 67 हिन्दुओं को ज़िंदा जलाने पर भड़के थे गुजरात के दंगे
यही कि अगर मूर्तिभंजन या बुतशिकनी जायज है
तो औरंगजेब से अब तक दस हजार से अधिक मंदिर तोड़ना जायज था
और यह भी कि बाबरी मस्जिद का तोड़ना भी जायज था
यही कि अगर मुहम्मद साहब का कार्टून बनाना नाजायज था
तो किसी हुसैन ने देवी देवताओं की तश्वीर से क्या किया ?
अगर उबेदुल्ला या वैसा ही कोई कठमुल्ला जायज है
तो तोगडिया क्यों नाजायज है ?
और यह भी कि अगर अमन की हिफाजत करते हमारे जवानो को कफ़न दोगे
तो हम हर दहशतगर्द और उसके हमदर्द को दफ़न कर देंगे ."
----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, March 6, 2013

मुझे चाहिए अपनी मौत ...उस पर हक़ है मेरा

"मेरी हथेली पर
पता नहीं किसने
कुछ रेखाएं खींच दी थीं
मेरे जन्म से शुरू हो कर मेरी उम्र बताती जीवन रेखा
जिन्दगी के तमाम पर्वतों को लांघ कर मृत्यु तक जाती जीवन रेखा
मैं एक यात्री हूँ
जीवन रेखा के आख़िरी छोर की ओर बढ़ता हुआ ...साल दर साल
मैं जिन्दगी को जी कर गुजर जाऊंगा परिदृश्य की तरह
मृत्यु के सफ़र पर निकला सैलानी
सफ़र पूरा होने से इतना डरता क्यों है ?
अपनी हथेली में बंद जीवन रेखा को आज़ाद कर दिया है मैंने
मुझे नहीं चाहिए तेरी जिन्दगी
मुझे चाहिए अपनी मौत
उस पर हक़ है मेरा
बटोर ले अपनी दुनियाँ निखरी है बहुत
बटोर ले अपनी दुनियाँ बिखरी है बहुत
बटोर ले अपनी दुनियाँ अखरी है बहुत .." ---- राजीव चतुर्वेदी