Wednesday, October 31, 2012

उसकी दैहिकता का संज्ञान कराते वस्त्रों में

"उसकी दैहिकता का संज्ञान कराते वस्त्रों में
वह सब कुछ था जो राग द्वेष में रोचक था
उसकी आत्मा का अक्षांश अक्ष की अटखेली में गायब था
देह जहां थी उसकी आत्मा उससे अलग खड़ी थी
पुरुषों की परिभाषा उसकी परिसीमा सी प्रश्न पूछती
परिधि नापती प्रतिरक्षा को परेशान थी प्रत्याशा में
और आह भारती थी आत्मा उसके आर्तनाद में
देह से ऊपर उठे लोग ही वैदेही की व्याख्या का व्याकरण लिखेंगे
आवरण और आचरण की कसौटी कष्ट तो देगी तुम्हें
आत्मा की आहटें दिल में तेरे जो गूंजती है
मैं तेरे पास आया था महज सुनने उन्हें
देह तेरी,... देह के रिश्ते सभी उन्हें क्या नाम दूं ?
देह से हट कर अगर मेरी आत्मा तुझे आत्मीय लगती हो
तो पुकारो मैं खडा हूँ दूर बेहद दूर ...
तेरी आत्मा के अंतिम किनारे पर." -
--- राजीव चतुर्वेदी

Monday, October 29, 2012

मैं बोलना चाहता था शत प्रतिशत सच

"मैं बोलना चाहता था शत प्रतिशत सच
पर पच्चीस प्रतिशत सच इसलिए नहीं बोल सका क्योंकि
उससे देश के अल्प संख्यकों के नाम पर खैरात खा रहे
दूसरे नंबर के बहुसंख्यक समुदाय मुसलमानों को ठेस पहुँचती
वैसे भी इस्लाम या तो खतने में रहता है या खतरे में
मैं पंद्रह प्रतिशत सच इसलिए नहीं बोल सका क्योंकि
उससे वास्तविक अल्पसंख्यकों जैसे
पारसी ,बौद्ध ,जैन और सिखों की आस्था को ठेस पहुँचती
पचास प्रतिशत सच इस लिए नहीं बोल सका कि
सनातन धर्मियों को ठेस न पहुँच जाय
दस प्रतिशत सच से
आर्य समाजी भी आहात हो सकते थे सो वह भी नहीं बोला
आखिर सभी की भावनाओं का ख्याल जो रखना था
इसलिए सौ प्रतिशत सच का एक प्रतिशत सच भी मैं नहीं बोल सका
अब क्या करूँ ? सच की शव यात्रा निकल रही है फिर भी फेहरिश्त अभी बाकी है
संविधान पर कुछ बोलो तो आंबेडकरवादियों को ठेस पहुँच जायेगी
यों तो मैं तमाम घूसखोर जजों को जानता हूँ
जो अब पेशकार के जरिये नहीं सीधे ही घूस ले लेते हैं
कुछ पेशकार के जरिये भी लेते हैं
पर उनकी वीरगाथा गाने से न्याय की अवमानना जो होती है
सांसदों विधायकों की बात करो तो उनके विशेषाधिकार का हनन हो जाता है
मैं लिखना चाहता था शत प्रतिशत सच
पर उससे तो अखबार के कारोबार को ठेस पहुँचती थी
मैं बोलना चाहता था शत प्रतिशत सच
इसीलिए अब सोचता हूँ
प्रकृति की बात करूँ ...प्रवृति की नहीं
और इसीलिए अब बाहर कोलाहल अन्दर सन्नाटा है.
" ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, October 25, 2012

मैं एक कविता सी बहती रही

"मैं एक कविता सी बहती रही,
तू मौजूद था काव्य का उनवान बन कर
जैसे दरवाजे पर रंगोली
जैसे माथे पर रोली
जैसे आती हो मेरी कल्पनाओं में डोली
मैं नदी थी, तू गुजरता था तूफ़ान बन कर
मैं हकीकत से हार जाती थी
तू खडा रहता था अरमान बन कर
मै तो सर खोल कर चली घर से
तैने सर ढक दिया पल्लू बन कर
मैं सोचती थी पर वह दिन दूर था
मेरी कल्पनाओं में सिन्दूर था
हकीकत एक दिन हांफती सी मेरे द्वार पर थी
तू नहीं था
वहम था मेरा
मेरे अफ़सोस के अफ़साने का उनवान पढ़ा क्या तुमने ?
बारिशों की बूँद बेबस हैं --ये रेगिस्तान है
और इस बीराने में
झकझोरती हवाओं के बीच झांकते तारों की भीड़ 
उस भीड़ में मैं अब भी तुम्हें पहचान लेती हूँ
एक एकाकी समंदर मेरे अन्दर सत्य का
इस प्यार को जुबान मैं दे चुकी हूँ
हो सके उनवान इसको दे सको तो दे ही देना
जानती हूँ में ही हूँ ...हमसफर मेरी परछाईं है
और कोई भी नहीं." ----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, October 24, 2012

अगर आप उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं तो

"अगर उच्च नैतिकता के द्योतक राम सर्वमान्य प्रतीक थे और हैं तो निश्चय ही नैतिकता के मानक सर्वमान्य, निर्विवाद और सार्वभौमिक होना चाहिए, अतः मुझे कुछ भी नहीं कहना. पर अगर आप उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं तो पुरुष होने के नाते मैं इस "मर्यादा पुरुषोत्तम प्रतियोगिता" के बिना उन्हें यह मानद उपाधि तो नहीं दे सकता. वह कौन सी मर्यादाएं थीं वह कौन से मानक थे जिस की कसौटी पर राम "मर्यादा पुरुषोत्तम" थे ? क्या राम को "मर्यादा पुरुषोत्तम" की मानद उपाधि देने वाले विवाहोपरांत बिदा होती अपनी बेटी को आशीर्वाद दे सकेंगे कि --"जाओ बेटी तुम्हारा दाम्पत्य जीवन सीता जैसा हो" ? राम कैसे पिता थे यह लव -कुश के आईने में देखिये. लव -कुश की वेदना की व्याख्या किये बिना आप कौन होते हैं यह बताने बाले ? अपने आधीन महिला के के प्रति राम बनाम रावण आचरण का तुलनात्मक अध्ययन तो कीजिये. राम जी की पत्नी सीता लंका में रावण की बंधक थीं पर पूरी गरिमा के साथ किन्तु सूर्पनखा दंडकारण्य में कि जहां उसके भाईयों का राज्य था घूमती हुयी राम -लक्ष्मण को मिल जाती है तो दोनों भाई उस पर पिल पड़ते हैं और मिल कर उसका नाक कान काट डालते हैं. एक अकेली निहत्थी महिला पर हथियार उठाना ...उस पर अंग भंग करने की हिंसा करना वैसे ही है जैसे अक्सर पता चलता है कि किसी लडकी पर किसी ने तेज़ाब फैंक दिया. ---यह किस समाज की कौन सी नैतिकता थी ?...कैसे मर्दों की कौन सी मर्यादा थी ? अपनी बहन के प्रति इस घटना से भी उत्तेजित हो कर रावण ने सीता जी के प्रति कोई हिंसा नहीं की--- इस कसौटी पर भी महानता का मूल्यांकन करते चलिए. चौदह साल के बनवास के बाद भी और भाई भारत द्वारा चौदह साल सही ढंग से शास न चलाने के बाद भी राम ने भरत को सिंघासन से उतार दिया और खुद उस पर बैठे फिर भी असीम महत्वाकांक्षा ने हिलोरें लीं और राजसूय यज्ञ कर विश्व विजय अभियान चलाया . राजसूय यज्ञ के लिए पत्नी की अनिवार्यता थी और सीता परित्यक्ता थीं तो सोने की सीता बना कर बैठा ली गयीं जैसे सीता उनकी पत्नी नहीं युद्ध की चल वैजन्ती हो. और उदध के मानक क्या गढ़े उस पर भी गौर करें -- विभीषण जिसे आज भी राजनीतिक शब्दावली में गाली ही माना जाता है. छिप कर बाली को मारा और पूजा करते में मेघनाद को मारा --यह कौनसी यौद्धिक नैतिकताएं थी ? याद रहे जब कुतुबनुमा गलत होगा तो समाज दिशाहीन होगा और इसका दूसरा पहलू यह भी है कि जब समाज दिशाहीन होता है तो निश्चय ही उसका कुतुबनुमा गलत होता है. चूंकि राम हमारी आस्था के केंद्र हैं उनकी भाग्वाद्ता पर बहस नहीं करना चाहिए किन्तु मैं पुरुष भी हूँ अतः यह सवाल तो मेरे मन में है ही कि राम कैसे पति थे यह सीता से पूछो ? राम कैसे पिता थे --यह लव-कुश से पूछो ? राम कैसे जेठ थे यह उर्मिला (लक्ष्मण की पत्नी ) से पूछो जिसने वियोग झेला ? और प्राकृतिक जीवन का प्रणेता अप्राकृतिक मौत से क्यों मरा ? अपने चारो भाईयों के साथ उन्होंने क्यों जल समाधि ली ? ---क्या है कोई उत्तर ? ---याद रहे जब कुतुबनुमा गलत होगा तो समाज दिशाहीन होगा."
                                                                                                                     ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, October 14, 2012

विश्वनाथ से सारनाथ तक हर अनाथ से पूछा मैंने


"विश्वनाथ से सारनाथ तक हर अनाथ से पूछा मैंने,
कहाँ कबीरों की बस्ती है ?
क्या कबीर अब भी रहता है तेरे मन में ?
सच के संकेतों सा वह क्या सूझ रहा है ?
पाखंडों से अब भी क्या वह जूझ रहा है ?
लहरतारा से लहुराबीर...
हर अमीर से हर कबीर अब क्यों अधीर
है ?
बुद्धू से वह बौद्ध बुद्ध की चाह में उसकी राह देखते भटक रहे हैं सारनाथ में
और विश्व्नाथों की धरती अब अनाथ है
मालवीय के मूल्य और मुख्तारों से गुंडे, शेष बचे कासी के पण्डे
घाटों पर घट रही कीर्ति काशी की देखो
संकटमोचन केंद्र बिंदु है हर लोचन का...यही त्रिलोचन की बस्ती का सच है देखो
विश्वनाथ से सारनाथ तक हर अनाथ से पूछा मैंने,
कहाँ कबीरों की बस्ती है ?
क्या कबीर अब भी रहता है तेरे मन में ?
सच के संकेतों सा वह क्या सूझ रहा है ?
पाखंडों से अब भी क्या वह जूझ रहा है ?"
----राजीव चतुर्वेदी

देह के सपने

"देह के सपने मुझे आते नहीं हैं,
देश के सपने मुझे सोने नहीं देते."
---राजीव चतुर्वेदी

वह चर्चित अन्धेरा चरागों तले

"वह चर्चित अन्धेरा चरागों तले,
चांदनी में नहाया फिर चुप हो गया.
ख्वाब जो तेरी खाली सी आँखों में था,
इस शहर में था आया फिर गुम हो गया."
----राजीव चतुर्वेदी

एक कविता आज बिखरी है ,---तुम्हें अच्छी लगेगी

"एक कविता
जो पिघली थी मेरे दिल में
जो बहती थी मेरे मन में
आज बिखरी है ,---तुम्हें अच्छी लगेगी
मैं जानता हूँ इस कदर मेरा बिखरना ---तुम्हें अच्छा लगा है
रगड़ कर मेरा निखरना तुम्हें सच्चा लगा है
मेरा बिखरना देख कर तुम खुश हुए कविता समझ कर
इस आचरण के व्याकरण पर गौर कर लो
बियांबान दौर में जब सत्य भी सन्नाटे से सहमा था मैं चीखा था
मेरे बयानों में जो कांपती आवाज में दर्ज था, -- वह दर्द तेरा था

लोग उसको कविता समझ बैठे
एक कविता
जो पिघली थी मेरे दिल में
जो बहती थी मेरे मन में
आज बिखरी है ,---तुम्हें अच्छी लगेगी
मैं जानता हूँ इस कदर मेरा बिखरना ---तुम्हें
अच्छा लगा है." ----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, October 3, 2012

वह उसकी ही अमानत है

"मेरी आँखों में अक्श था उसका, आंसू तो थे नहीं गिरते तो गिरते कैसे ?
गिरा तहजीब से, बिखरा तरतीब से, --- मैंने उठाया फिर नहीं
अब जमीन पर जो नमीं सी चस्पा है वह उसकी ही अमानत है."
----राजीव चतुर्वेदी 

हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?

"हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?
यह अजीब दौर है
खूंरेज़ आँखों में खूबसूरत से ख्वाब सिमटे हैं
यह अजीब दौर है
सभ्यता के सवालों को लिए सलीब सा
हर किसी के हाथ में ढाल तो है तलवार नहीं
युद्ध जारी है प्रबुद्धों में यहाँ
बुद्ध गिद्ध में अंतर करना बहुत कठिन है
शातिरों ने शान्ति के स्कूल खोले हैं
शौर्य की आँखों में खून नहीं
हूर की आँखों में अब वह नूर नहीं
साहित्यकारों का नहीं शब्द हलवाईयों का यह दौर है
अनुप्राश के च्यवनप्राश पर निर्भर है संस्कृति की जीवन रेखा
हर तारा जो टूट रहा है नक्षत्रों से छूट रहा है
उस से पूछो प्रलय विलय का अंतर क्या है ?
शब्द जलेबी बन जाए तो मुझे बताना कविता की परिभाषा क्या है ?
राग-द्वेष से उबारो तो फिर यह बतलाना राजनीति की भाषा क्या है ?हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?
यह अजीब दौर है
खूंरेज़ आँखों में खूबसूरत से ख्वाब सिमटे हैं
यह अजीब दौर है
सभ्यता के सवालों को लिए सलीब सा
हर किसी के हाथ में ढाल तो है तलवार नहीं."
----राजीव चतुर्वेदी 

होठों पर रूठी सी

"होठों पर रूठी सी
सपनो में झूठी सी
दिल में आहट सी
दिमाग में बौखलाहट सी
आँख में काजल सी
पैर में पायल सी
याद में धुंधली सी
जज्बात में घायल सी
साहित्य में संस्कार सी
परिवार में तिरस्कार सी

विज्ञान में आविष्कार सी
मंच पर पुरष्कार सी
दर्शन में वेदान्त सी
सच में सिद्धांत सी
अस्तित्व में सीमान्त सी
स्पर्श रेखा की तरह छू कर गुजर जाती है तू
इस गुजरते दौर में गुजारिश भी अब क्या करूं ?
तू सतह पर स्पर्श करती एक रेखा है
केंद्र में आती तो आती भी कैसे
जिन क्षणों में तैने छुआ था मुझे
उन क्षणों का शुक्रिया."
-----राजीव चतुर्वेदी