Friday, July 27, 2012

वरना इस बाज़ार में आया क्यों था ?

"सच बोल ...सिद्धांत न बघार
तू बिकाऊ है या खरीदार होगा
वरना इस बाज़ार में आया क्यों था ?
मैं जानता हूँ चल पड़े हैं क्रान्ति के कुटीर उद्योग कितने
मशाल की मिसाल देकर बिक रही हैं माचिशें
आग की जो बात करते हैं यहाँ पर
मिट्टी के तेल को मोहताज खड़े हैं राशन की दुकानों पर
सच बोल ...सिद्धांत न बघार
तू बिकाऊ है या खरीदार होगा
वरना इस बाज़ार में आया क्यों था ?"
---राजीव चतुर्वेदी

Thursday, July 26, 2012

यम तू जानता है ये धरती है भारत की


" मैं थक गया हूँ चलते -चलते,...कल चलूँगा
यम तू जानता है ये धरती है भारत की
यहाँ दिल असली और बिल फर्जी होते हैं
तू भी बनाले फर्जी बिल किसी महगे से होटल का
और यह जो भैसा है तेरा सरकारी सी सवारी इसमें घूस का पेट्रोल भर
तू यम है घूसखोर सरकारी कर्मचारी सी सूरत है  तेरी
सब जानते हैं यम को गम नहीं होता
ये सरकारी अमीन और कमीन सभी उसके ही वंशज हैं
मिलाओ शक्ल उनसे मिलती नहीं होगी
यह सरकारी मुलाजिम हैं इनकी बीबीयों के काम नौकर ही तो करते हैं." ----राजीव चतुर्वेदी 

आदमी की तरह मैंने भी वफ़ा बेची थी



" मैं शर्मसार हूँ मुझे माफ़ करना,
आदमी की तरह मैंने भी वफ़ा बेची थी."
         ----राजीव चतुर्वेदी 

बंगलादेशी हमला है यह असम की आहें कौन सुने



"आग लगी हो जब बस्ती में दंगे से,
मुझको नेता लगते हैं वोटों के भिखमंगे से.
कश्मीर यहाँ ऐसा है जिसकी तशवीरों पर तकरारें हैं
आतंक वहां फैला करता है पाकिस्तानी पैसे से
बंगलादेशी हमला है यह असम की आहें कौन सुने
वोट बैंक की हर कतार में सेक्यूलर हैं सब नंगे से." ----राजीव चतुर्वेदी 

Wednesday, July 25, 2012

वक्त की टूटी हुई ये चूड़ियाँ

"वक्त की टूटी हुई ये चूड़ियाँ,
होंठ तेरे हों या मेरे सच नहीं कह पायेंगे."
---राजीव चतुर्वेदी 

समेटो शब्द को

"वक्त की इन सीढ़ियों पर चढ़ रही हैं
हाँफते इस दौर की दहशतज़दा सी पीढियां
रास्ते रोशन नहीं हैं आँख में
ख्वाब पलकों पे परेशान घूमते हैं रात को
सुबह के अखबार में जो दर्ज है वह दर्द किसका है ?
समेटो शब्द को,... जो पन्नो पर यों बिखरे हैं वह आंसू ही हैं मेरे
इसमें एक सहमी सी शहादत तेरी भी है,... मेरी भी
आत्मा के आकार को शरीर मत कहना
हम मर चुके हैं
जो ज़िंदा है वह शरीर है केवल
और शरीर को ज़िंदा रखने का सामान अब बिकता है दुकानों पर." ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, July 22, 2012

यहाँ कुर्सीयों पर लाश ही दीखती है


"बैचैन रातों में बच कर निकलना
यहाँ तो दीवार भी चीखती है
आत्मा की अर्थीयाँ ढो रहे हैं यहाँ पर 
पदों के कदों की नाप करना नहीं 
परछाईयों की पैमाइश गलत दीखती है
ये पीएम ...ये सीएम ...ये डीएम...ये सत्ता के शोहदे ...ये ओहदे
  यहाँ कुर्सीयों पर लाश ही दीखती है." ----राजीव चतुर्वेदी 

Saturday, July 21, 2012

भाषा भ्रष्टाचार से लड़ने का पहला और अंतिम हथियार होती है

"भाषा भ्रष्टाचार से लड़ने का पहला और अंतिम हथियार होती है. जिस देश समाज की भाषा ही चरित्रहीन और भ्रष्ट हो जाए वह देश या समाज भ्रष्टाचार से क्या लड़ेगा ? मिशाल देखिये --राजा ने मंत्री से कहा "छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाए तो क्या हुआ ?" चाटुकार मंत्री ने चतुर उत्तर दिया "मत्स्य न्याय". अगर यह भी न्याय है तो अन्याय किसे कहते हैं ? जमींदार के यहाँ पांच हजारे ले कर नाचे वह साली रंडी लेकिन दाउद अब्राहम या उनके जैसे ही लोगों के यहाँ दोबई में पचास लाख लेकर जो नाचे वह भारत की सांस्कृतिक राजदूत ऐश्वर्य राय. आगे देखिये ---अंजू महेन्द्रू , टीना मुनीम (अम्बानी) और अब कोई अडवानी सहित सैकड़ों से इश्क फरमाने वाले राजेश खन्ना "रोमांस के राजा" और कोई गरीब यही करता तो "साला छिनरा". सेना का जवान सीमा पर साहस जांबाजी दिखाए तो "बोल्ड". कोई लड़की किसी लफंगे का प्रतिकार करे या चैन स्नेचर को पकड़ ले तो "बोल्ड " . कोई गुंडे का विरोध करे तो "बोल्ड " समझ में आता है पर जब बंबई की कोई वैश्यानुमा एक्टर नंगई पर आमादा हो तो उसे भी "बोल्ड" कह कर समाज की श्रेष्ठ साहसी महिलाओं के चरित्र को ही बोल्ड कर डाला. हिन्दी शब्दकोश में इंग्लिश के "Honesty" तथा "Punctuality" के अर्थ का कोई शब्द नहीं है ---क्यों ? क्योंकि इसकी अवधारणा ही हिन्दी भाषी समाज में नहीं थी यदपि उर्दू में दो शब्दों को मिला कर "ईमानदारी" जैसे शब्द बना लिए गए पर हिन्दी भाषी समाज ने कोई आवश्यकता ही नहीं समझी.बड़े लोग जब चाहे धर्म विरुद्ध आचरण करें और उसे "आपाद धर्म" कह दें. क्या नैतिक मूल्य और सिद्धांत केवल गरीबों और माध्यम वर्गीय लोगों के लिए ही हैं ? सबसे शातिर लोगों के हाथों में सबसे बड़े शब्दकोष हैं . और भाषाई भ्रष्टाचार के लिए कितनी तरह की बोली बोलते हैं हम --- मुहं की आबाज़, गले की आवाज़, आत्मा की आवाज़ , अंतरात्मा की आवाज़ , भावना की आवाज़, परमात्मा की आवाज़ , दिल की आवाज़ , दिमाग की आवाज़...अरे भाई शरीर के अन्य अंग हवा निकालते में भी आवाज़ करते हैं. यह भाषा और इसकी परिभाषा सड़ रही है इससे बदबू आने लगी है. इसके पहले कि हमारे शब्द सत्य की शव यात्रा में शामिल हों ---सावधान !! ---याद रहे भाषा भ्रष्टाचार से लड़ने का पहला और अंतिम हथियार है." ----राजीव चतुर्वेदी

Friday, July 20, 2012

इस मुस्कुराती सुबह का क़त्ल होने से पहले बयान सुन लो

"इस मुस्कुराती सुबह का क़त्ल होने से पहले बयान सुन लो
जजवात मेरे तेरी जागीर नहीं हो सकते
रिश्ते तो रिश्ते हैं जंजीर नहीं हो सकते
जिन्दगी की हर गुमनाम सी गुंजाइश की नुमाइश करते लोग सुन लो
देह से होकर गुजरते रास्ते रिश्ते नहीं हो सकते
वह जो सूरज है जिन्दगी की रात में क्यों डूब जाता है ?
रोशनी क्यों बिक रही थी बस्तियों में रात को
तुलसी के पौधे पर अगरबत्ती जलाते लोग रातरानी की सुगंधें सोचते है
रात को बदनाम किसने कर दिया है
एक सूरज जल उठा है और तुम ठन्डे पड़े हो
धूप से सहमे हुए हो, चांदनी चर्चित है क्यों ?
आत्मा के आवरण को व्याकरण किसने कहा ?
सूरज के पिघलने पर धूप बहती है पहाड़ों से
वहां एक झरना फूटा है
शब्द बहते हैं वहां संकेत के
कह रहे है इस सुबह के क़त्ल में साजिश तुम्हारी है
धूप चिल्लाने लगी है अब सड़क पर
याद रखना सत्य का संगीत रागों से परे है
इस मुस्कुराती सुबह का क़त्ल होने से पहले बयान सुन लो
जजवात मेरे तेरी जागीर नहीं हो सकते " ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, July 19, 2012

जिन्दगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र ...

"जिन्दगी से बहुत प्यार हमने किया
आज श्रद्धांजलि के शोर मुझको चौका रहे है
शोहरत की बुलंदी से जब गिर रहा था मैं,-- तुम कहाँ थे ?
  रोमांस का अक्षांश अब मैं जानता हूँ
तुम जानते हो मैं मरीचिका था फिर मेरी मौत पर खुश क्यों नहीं हो तुम ?
गीत लिखता था कोई, संगीत देता था कोई,... सपने किसी के
चित्र मेरा था, चरित्र औरों का
हर पल रुपहला ख्वाब का छल रहा था मैं
शोहरत के पहाड़ों से क्षितिज कुछ दूर था, ---जो मेरा भ्रम ही था
कुछ तितलियाँ जो शोख सी दिखती थीं मुझे उस मोड़ पर
अब खो गयी हैं ख्वाब में मकरंद मेरा लूट कर
कोई अंजू कोई टीना अब नज़र आती नहीं इस भीड़ में
सच है, -- मर गया हूँ मैं
मैं ज़िंदा जब भी था क्या तुम मेरे साथ थे ?
दौलत , बुलंदी और शोहरत के महल में मैं रहा,... तुम भी रहे थे चंद रोज
वह जो पैसे के लिए थे पास मेरे,... पूछने पानी को भी नहीं आये
सच है, -- मर गया हूँ मैं
जिन्दगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र ..." -----राजीव चतुर्वेदी

Monday, July 16, 2012

वह खबर से लिपट कर बेखबर हो गयी


"वह खबर से लिपट कर बेखबर हो गयी ,
मेरे शब्दों के आगोश में जोश था.
मैं दहकता गया वह महकती गयी
मैं खिल सा उठा था वह चहकती गयी
मैंने देखा उसे वह बहकती गयी
वह खबर से लिपट कर बेखबर हो गयी
मेरे शब्दों के आगोश में जोश था
वह कविता की तरह ठिठकती ही रही
मैं कहानी की तरह सफ़र पर चल पडा
वह तितली के जैसी थिरकती ही रही
मैं हवाओं के जैसा मदहोश था
मेरे होठों ने हरकत करी थी शुरू
उसकी आँखें फ़साना बयाँ कर गयीं
मेरे जाजवात जमाने की जंजीरों में जकड़े रहे
उसका अंदाज़ जमाने से बेहोश था." ----राजीव चतुर्वेदी 

तेरा वह आंसू भी शामिल है इसी बरसात में



"तेरी आँखों से गाल पर बहते हुए जहां आंसू गिरे थे

उन रास्तों पर चल के मैं भी गिर गया हूँ अब जमीं पर
सोचता हूँ अब उठूँगा जब कभी मैं
भाप बन कर तापमानों के तिरष्कृत तर्क के कारण
असमान कारण से आसमानों की तरफ बादल बनूंगा मैं
इस तरह बरसात में हिस्सेदारी तेरी उस वेदना की हो सकेगी
तेरा वह आंसू भी शामिल है इसी बरसात में
तेरे बालों से झरता हूँ ...तेरी आँखों को धोता हूँ ...तेरे गालों से बहता हूँ
मैं आंसू हूँ गिर गया था... फिर उठा हूँ...स्वाभिमानो के तापमानो से आसमानों तक."
----राजीव चतुर्वेदी 

Friday, July 13, 2012

इस राख में जो आग थी उसको मेरी श्रद्धांजलि

"इस राख में जो आग थी उसको मेरी श्रद्धांजलि,
सुबकते शब्द हों या शोर कविता मत कहो उनको
ओस के अब बोझ से जो पत्ती कांपती है उसको देखो
झर रहे झरने को देखो बह रही नदियों को देखो
शब्दकोशों की सड़ान्धों से दूर प्यार की परिभाषा किसी तितली से पूछो
गूंजता है जो नगाड़ों सा ह्रदय में
गुनगुनाओ उसको राग बन जाएगा
स्मृतिया जो टहलती हैं दिलों के वीरान दालानों में उनकी पदचाप भी सुनना
दिलों की आग से दहकी सी साँसें दर्ज करना मायूस से मौसम में
लोग समझेंगे तो उसे कविता समझ लेंगे
इस राख में जो आग थी उसको मेरी श्रद्धांजलि,
सुबकते शब्द हों या शोर कविता मत कहो उनको." ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, July 12, 2012

रात की स्याही पे सूरज के दस्तखत सी सुबह


"रात की स्याही पे सूरज के दस्तखत सी सुबह,
शब्द की भगदड़ भी देखो सुबह के अखबार में,
जिन्दगी के ऊंचे मचानो पर वहां बैठे जो हैं सत्य के शातिर शिकारी ---उनको देखो
कुछ मकानों पर चहक गुलजार सी देखो
कुछ मकानों पर उदासी चस्पा है
रेंगते हैं राह में गुमराह से अरमान
लौठेगे उदासी का परचम लिए पहचान लेना शाम को
रात से बाकी बचा है इस सुबह का शेषफल है अब यही 
और वह जो शोर है शान्ति को झकझोरता सा संगीत मत कहना उसे
उठो ---शाम को तुम जब घायल से लौटोगे
घर की हर दहलीज
अपनी चाह से तेरी राह देखेगी
यह सच तो भौतिक है मगर चाहो तो इसको भावना का नाम दे देना
और वह जो भीड़ है चल पड़ी है सत्य की शव यात्रा के साथ 
सत्य के कातिल कल उसे श्रद्धांजली भी दे रहे होंगे, ---अखबार का व्यापार उनका है
हमारी हर वेदना...शातिर संवेदना सरकारी...सूचना की तस्करी का तस्करा
सत्य की लाबारिस सी लाशें सूचना उद्योग का कच्चा माल हैं
उत्पाद की तो असलियत तुम जानते हो 
   
रात को चादर ओढ़ कर सोये थे जो सपने हमारे जग गए हैं  

रात की स्याही पे सूरज के दस्तखत सी सुबह,
शब्द की भगदड़ भी देखो सुबह के अखबार में." -----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, July 11, 2012

अवसरों की चूक का अवसाद क्या होगा ?

"अब कि जब तू नहीं है शब्द हैं केवल तो संवाद क्या होगा ?
मैं लडखडाया था
शब्द सहारा थे
अवसरों की चूक का अवसाद क्या होगा ?"
                                     -----राजीव चतुर्वेदी

Monday, July 9, 2012

जिन्दगी बहती है बहती हैं नदियाँ जैसे


"जिन्दगी बहती है बहती हैं नदियाँ जैसे
गुजरे रास्तों पर लौट कर आती ही नहीं

पत्थरदिलों के बीच नदियों सा बहा मैं,
कुछ पत्थरों ने चीर डाला था मुझे
कुछ को रगड़ कर रेत मैंने कर दिया
कुछ बह गये बहाव में
कुछ थे खड़े तटस्थ साक्षीभाव में
कुछ घाट से स्थिर खड़े ही रह गए
याद है वह नाव मुझमें तैर कर अपने किनारे खोज फिर क्यों खो गयी
जिन्दगी बहती है बहती हैं नदियाँ जैसे
गुजरे रास्तों पर लौट कर आती ही नहीं." ---- राजीव चतुर्वेदी

Saturday, July 7, 2012

युद्ध में जो घायल हुए थे शब्द वह सुस्ता रहे हैं, ...शोर मत करना

"युद्ध में जो घायल हुए थे शब्द वह सुस्ता रहे हैं, ...शोर मत करना
साहित्य के लिए लालित्य का होना जरूरी है, ...वह कहाँ है ?
अध्ययन जब हो नहीं अनुभूतियाँ असमंजस में हों तो क्या लिखोगे ?
वही वीराना अपना जिसमें शब्द चमगादड़ से लटके हैं
देखलो टिमटिमाती लौ तुम्हारे अंतर्मन के नन्हे से दिए की लडखडाती सी
उस टिमटिमाते से दिए की रोशनी में अक्श को आकार दो
शब्द को संस्कार दो हथियार तब देना, ...अभी फूलों पे तितली राज करती है
तुम्हारा जोश, ...शब्द का होश, ...फूल पर ओस ...
सत्य की आहट का आकार  करो साकार
साहित्य की मर्यादा तो मानो पर ये जानो साहित्य की सीमाएं नहीं होतीं
युद्ध में जो घायल हुए थे शब्द वह सुस्ता रहे हैं, ...शोर मत करना
साहित्य के लिए लालित्य का होना जरूरी है, ...वह कहाँ है ?" -----राजीव चतुर्वेदी

Friday, July 6, 2012

चाँद के इस पार चरागों का शहर है


"कश्तियों की बात करना किश्त में
मेरी आँखों में पूरा समन्दर डूब जाता है
तेरी याद ही कुछ ऐसी है
रेत हो जैसे पहाड़ों के टूटते विश्वास की
मैं किनारा हूँ तुम्हारे केंद्र का
रातरानी की महक को क्या पता तुम नहीं हो अब यहाँ
शांत सा दालान अब ये सोचता है  चाँद के इस पार चरागों का शहर है
कल सुबह का सूरज भी समंदर से नहाकर निकलेगा तेरी हर याद सा
हर सुबह की चाय के ही साथ में हाथ में अखबार होता है मेरे
अखबार में दुनियाँ तो होती दर्ज है ...पर तू नहीं है
कश्तियों की बात करना किश्त में
मेरी आँखों में पूरा समन्दर डूब जाता है
तेरी याद ही कुछ ऐसी है
चाँद -तारे, थोड़ा सूरज, शेष धरती, शब्द सारे
रातरानी की महक में मिला दो तो तेरा अहसास बनता है
शांत सा दालान अब ये सोचता है  चाँद के इस पार चरागों का शहर है." ----राजीव चतुर्वेदी 

देश की "ऋषि- कृषि परम्परा" को सोनियां सरकार नष्ट करने पर आमादा हैं



" देश की "ऋषि- कृषि परम्परा" को सोनियां की शातिर सरकार नष्ट करने पर आमादा हैं. सरदार मनमोहन सिंह को हम तो समझते थे कि अर्थशास्त्री है इसने तो हमारी अर्थव्यवस्था की अर्थी ही निकाल दी.दस वर्ष पहले कृषि की देश की अर्थ व्यवस्था में 70% भागीदारी थी जो अब घट कर मात्र  20% ही रह गयी है.(मुद्रास्फीति की दर 11% )  -  (देश की विकास दर 8%) =   - 3%  (यानी देश की विकास दर ऋणात्मक है ). यह विकास दर नहीं विनाश दर हुई. अब संतों ने जब देश का धन विदेशो में ढोकर लेजाने वालों को ललकारा तो इन हरामदेवों को रामदेव खलनायक और बालकृष्ण विदेशी नज़र आने लगे जबकि सोनिया स्वदेशी और कसाब जी साहब लगते हैं. अब "रामदेव" और "हरामदेव" के बीच " रामजादे" और "हरामजादे" साफ़ नज़र आ रहे हैं."  ----- राजीव चतुर्वेदी   
















यहाँ हो रहा ईलू- ईलू काव्य विमोचन

"यहाँ हो रहा ईलू- ईलू काव्य विमोचन
चलो चलें हम संघर्षों के सेहरा बांधें
और जनपथों की चीखों से राजपथों की नींद उड़ा दें
प्रेम की कविता कहने वालो
सवा अरब की आबादी में देह से पहले देश को देखो
गल्ला सड़ता है गोदाम में भूख है पसरी हर मकान में
सेना के जवान को देखो
सियाचिन की शीतलहर के सीमित संसाधन में कम वेतन में जूझ रहा है
और यहाँ नौकरशाही को घूस का अवसर सूझ रहा है
शिक्षा की दूकान पर बिकता एकलव्य का रोज अंगूठा तुम भी देखो
सुविधा का विस्तार कर रही संसद देखो
राष्ट्रपति बनने की राहों से पूछो लोकतंत्र की आहों का सच
न्याय बकीलों की दूकान पर बिकता है क्या ?
जन -गण -मन की धुन को गाता घुन सा देखो जो नेता है, राष्ट्रधर्म का अभिनेता है
यहाँ हो रहा ईलू- ईलू काव्य विमोचन
चलो चलें हम संघर्षों के सेहरा बांधें
और जनपथों की चीखों से राजपथों की नींद उड़ा दें." -----राजीव चतुर्वेदी

यहाँ हो रहा ईलू- ईलू काव्य विमोचन

"यहाँ हो रहा ईलू- ईलू काव्य विमोचन
चलो चलें हम संघर्षों के सेहरा बांधें
और जनपथों की चीखों से राजपथों की नींद उड़ा दें
प्रेम की कविता कहने वालो
सवा अरब की आबादी में देह से पहले देश को देखो
गल्ला सड़ता है गोदाम में भूख है पसरी हर मकान में
सेना के जवान को देखो
सियाचिन की शीतलहर के सीमित संसाधन में कम वेतन में जूझ रहा है
और यहाँ नौकरशाही को घूस का अवसर सूझ रहा है
शिक्षा की दूकान पर बिकता एकलव्य का रोज अंगूठा तुम भी देखो
सुविधा का विस्तार कर रही संसद देखो
राष्ट्रपति बनने की राहों से पूछो लोकतंत्र की आहों का सच
न्याय बकीलों की दूकान पर बिकता बिकता है क्या ?
जन -गण -मन की धुन को गाता घुन सा देखो जो नेता है, राष्ट्रधर्म का अभिनेता है
यहाँ हो रहा ईलू- ईलू काव्य विमोचन
चलो चलें हम संघर्षों के सेहरा बांधें
और जनपथों की चीखों से राजपथों की नींद उड़ा दें." -----राजीव चतुर्वेदी 

उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया


"उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया,
आग दिल में थी राग होठों पर
फिर भी मैंने फूस के ढेरों पर घर कर दिया
जिन्दगी में जो भी बीता उसमें गीता ठूंस कर
दाव पर मैं ही लगा था दार्शनिक वह बन गया 
उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया,
अब धुंआ उठाता हुआ सहमे हुए से लोग हैं
फाकामस्ती कर रहे जो फाग गाते लोग हैं
इनके चेहरे की शिकन का कफ़न अखबार हैं
सर्द सी आहें यहाँ की संसदों में कौन सुनता है
माचिशों की शर्त है अंगार का व्यापार करने की
भागीरथी के वंशजो समझो इसे
आग क्या है अब चरागों से न पूछ
आग अब चरित्रों में भी जलने लगी
उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया,
बीतरागी सा चल पड़ा हूँ मैं आग दिल में है राग होठों पर,
उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया,
अब धुंआ उठाता हुआ सहमे हुए से लोग हैं ." -----राजीव चतुर्वेदी 

Thursday, July 5, 2012

गांधी बनाम...???


"गांधी बनाम भगत सिंह या गांधी बनाम गोडसे या गांधी बनाम आंबेडकर या गांधी बनाम सुभाष...कुल मिला कर हम इन राष्ट्रनायकों को ऐसे लड़ा रहे हैं जैसे ये तीतर-बटेर या मुर्गे हों. पहली बात तो यह कि इन महान लोगों की तुलना वही करे जिसका बज़न इन दोनों से अधिक हो. जैसे यदि आपको 10 Kg. तोलना है तो आपके व्यक्तित्व में कम से कम 21 Kg. का भार उठाने की क्षमता होनी चाहिए क्योंकि लगभग 10 Kg का बाट + 10 Kg का वह सामान (व्यक्ति ) + 1 Kg. का तराजू =21 Kg. पर विडंबना यह कि हम लुच्चे टुच्चे व्यक्तित्व के लोग इन महान लोगों की काल्पनिक तुलना करके अपने आपको प्रासंगिक बनाने की कूट रचना कर रहे हैं. दूसरे, -- गांधी के विरुद्ध कभी भगत सिंह/ आंबेडकर /सुभाष /गोडसे ने अपशब्द का प्रयोग नहीं किया. भगत सिंह जी तो महान लेखक भी थे और गांधी जी के द्वारा प्रारंभ किये गए अखबार का सम्पादन करने लाहौर से आये थे. उन्होंने कभी कहीं भी गांधी जी की आलोचना नहीं की फिर हम कौन होते हैं उनके स्वयंभू प्रवक्ता बनने वाले ? तीसरे, -- इस तरह की बहसें छेड़ने वाले क्या बताएँगे कि इन महापुरुषों के समकालीन उनके हमारे दादा नाना की आज़ादी की लड़ाई में क्या भूमिका थी ? चौथे, --इन महान पुरुषों की तुलना करते हुए हम उस काल खंड की बात करते हैं जिसकी हमको आधी अधूरी और एक पक्षीय जानकारी ही है. मुर्दागृह में अगरबत्ती जलाने से या कब्रें खोदने से प्रगतिशील नहीं बनते. हम अपने वर्तमान में कहाँ हैं और जहाँ हैं वहां क्या कर रहे हैं ?
"कल उन्होंने आसमान पर थूका था बड़ी मुस्तैदी से,
आज कहने लगे मानसून अच्छा आया." ----- राजीव चतुर्वेदी     
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"महात्मा गांधी ने नमक क़ानून तोड़ने की नोटिस 2 March'1930 देते हुए अंग्रेज वायसराय को लंबा पत्र लिखा था -- "...जिस अन्याय का उल्लेख किया गया है वह उस विदेशी शाशन को चलाने के लिए किया जाता है, जो स्पष्टतह संसार का सबसे महँगा शासन है. अपने वेतन को ही लीजिये यह प्रतिमाह 21 हजार रुपये से अधिक पड़ता है, अप्रत्यक्ष भत्ते आदि अलग. यानी आपको प्रतिदिन 700 रूपये से अधिक मिलता है ,जबकि भारत की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी दो आने प्रति दिन से भी कम है. इस प्रकार आप बारात की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी से पांच हजार गुने से भी अधिक ले रहे हैं. ब्रिटिश प्रधान मंत्री ब्रिटेन की औसत आमदनी का सिर्फ 90 गुना ही लेते हैं...यह निजी दृष्टांत मैंने एक दुखद सत्य को आपके गले उतारने के लिए लिया है...."
गुजरी सदी में उठाया गया गांधी का यह सवाल इस सदी में भारत के राष्ट्रपति- प्रधानमंत्री और शाशन व्यवस्था के सन्दर्भ में प्रासंगिक है. औसत भारतीय की रोजाना की आमदनी 32 रुपये के लगभग है जबकि राष्ट्रपति पर रोज 5 लाख 14 हजार से ज्यादा खर्च होता है जो औसत भारतीय की तुलना में 16063 गुना अधिक है .इसी प्रकार प्रधानमंत्री पर रोजाना 3 लाख 38 हजार रूपये खर्च आता है जो औसत भारतीय की आमदनी का 10562 गुना अधिक है .केन्द्रीय मंत्रिमंडल पर रोजाना का खर्चा लगभग 25 लाख रुपये है जो औसत भारतीय की आमदनी का 1 लाख 5 हजार गुना है." --- राजीव चतुर्वेदी        
 

रात उजालों पे क्या गुजरी थी ?

"इस सहमी हुई सुबह से पूछ कर तो देख,
     रात उजालों पे क्या गुजरी थी ?"

      ----राजीव चतुर्वेदी

बात यदि होती सत्य निष्ठा और प्रतिष्ठा की

"बात यदि होती सत्य निष्ठा और प्रतिष्ठा की,
सोचता मैं भी तुम्हारा हाथ लेकर अपने हाथों में
बात यह सीमित रही अहंकारों के प्रकारों पर
और मैं रोना चाह कर फिर हंस दिया था
आँख में आंसू नहीं थे अक्स नफरत के
सत्य के संकेत यदि होते सहमे से नज़रिए में
खोजता उसको हाथों में चेहरा ले तुम्हारा तुम्हारी ही निगाहों में." ---राजीव चतुर्वेदी 

Tuesday, July 3, 2012

क्या तुम्हारा नाम लिख दूं स्नेह के सारांश सा ?

"कुछ अक्श ऐसे थे जो आईनों में आकार ही लेते रहे
कुछ आह ऐसी थीं जो आहट सी थीं संगीत में
कुछ शब्द ऐसे थे जो अक्ल की अंगड़ाईयों में कैद थे
जिन्दगी के इस सफ़र में जो मिला ठहरा नही
इस समय भी कुछ लकीरें दर्ज हैं जो समय की रेत पर
समंदर की लहरों से टकरा रही होंगी
न अक्शों में, न आहों में , न शब्दों में, न सफ़र पर, न रेत की मिटती लकीरों में 
तुम कहाँ हो ?
उनवान के नीचे का कोरा पन्ना खोजता है वह इबारत जो दर्ज होनी शेष है
क्या तुम्हारा नाम लिख दूं  स्नेह के सारांश सा ?
हमसफ़र किसको कहूं फिर यह बताओ ?
सफ़र लंबा है... अभी जाना है मुझे दूर तुमसे...चलता हूँ मैं." -------राजीव चतुर्वेदी    

सिद्ध, गिद्ध और बुद्धि सभी की चोंच बहुत पैनी हैं

"निशा निमंत्रण के निनाद से
हर सूरज के शंखनाद तक
रणभेरी के राग बहुत हैं
युद्धभूमि में खड़े हुए यह तो बतलाओ कौन कहाँ है ?
दूर दिलों की दीवारों से तुम भी देखो वहां झाँक कर
वहां हाशिये पर वह बस्ती राशनकार्ड हाथ में लेकर हांफ रही है
और भविष्य के अनुमानों से माँ की ममता काँप रही है
सिद्ध, गिद्ध और बुद्धि सभी की चोंच बहुत पैनी हैं
घमासान से घायल बैठे यहाँ होंसले,... वहां घोंसले
नंगे पाँव राजपथ पर जो रथ के पीछे दौड़ रहा है
वह रखवाला राष्ट्रधर्म का राग द्वेष की इस बस्ती में बहक रहा है
और दूर उन महलों का आँगन तोड़ी हुई कलियों के कारण महक रहा है
निशा निमंत्रण के निनाद से
हर सूरज के शंखनाद तक
रणभेरी के राग बहुत हैं
युद्धभूमि में खड़े हुए यह तो बतलाओ कौन कहाँ है ?"
------राजीव चतुर्वेदी