Wednesday, February 29, 2012

इन खिडकीयों की चीख ने चौंका दिया मुझे

"इन खिडकीयों की चीख ने चौंका दिया मुझे,
एक शाम और क़त्ल हुई तेरे इंतज़ार में ."
------राजीव चतुर्वेदी 

शायद कविता उसको भी कहते हैं


 "मेरी बहने कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से
कविता बुनना नहीं जानती
वह बुनती हैं हर सर्दी के पहले स्नेह का स्वेटर
खून के रिश्ते और वह ऊन का स्वेटर
कुछ उलटे फंदे से कुछ सीधे फंदे से
शब्द के धंधे से दूर स्नेह के संकेत समझो तो
जानते हो तो बताना बरना चुप रहना और गुनगुनाना
प्रणय की आश से उपजी आहटों को मत कहो कविता
बुना जाता तो स्वेटर है, गुनी जाती ही कविता है
कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से कविता जो बुनते हैं
वह कविताए दिखती है उधड़ी उधड़ी सी
कविता शब्दों का जाल नहीं
कविता दिल का आलाप नहीं
कविता को करुणा का क्रन्दन मत कह देना
कविता को शब्दों का अनुबंधन भी मत कहना
कविता शब्दों में ढला अक्श है आह्ट का
कविता चिंगारी सी, अंगारों का आगाज़ किया करती है
कविता सरिता में दीप बहाते गीतों सी
कविता कोलाहल में शांत पड़े संगीतों सी
कविता हाँफते शब्दों की कुछ साँसें हैं
कविता बूढ़े सपनो की शेष बची कुछ आशें  हैं
कविता सहमी सी बहन खड़ी दालानों में
कविता  बहकी सी तरूणाई
कविता चहकी सी चिड़िया, महकी सी एक कली  
पर रुक जाओ अब गला बैठता जाता है यह गा-गा कर
संकेतों को शब्दों में गढ़ने वालो
अंगारों के फूल सवालों की सूली
जब पूछेगी तुमसे--- शब्दों को बुनने को कविता क्यों कहते हो ?
तुम सोचोगे चुप हो जाओगे
इस बसंत में जंगल को भी चिंता है
नागफनी में फूल खिले हैं शब्दों से
शायद कविता उसको भी कहते हैं." -----राजीव चतुर्वेदी 

ईसा तुम मत आना मेरे द्वार

"ईसा तुम मत आना मेरे द्वार,
हम ही हैं जो तुझको चढाते हैं सूली पर साल दर साल
पर अभी तक तुझको सूली से उतारते किसी को नहीं देखा
और तू क्या है ?
तेरे अनुयाईयो ने तो पूरी दुनिया को सूली पर चढा रखा है."----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, February 28, 2012

पर याद रहे, --भूख में जिन्दगी बेहद सुन्दर होती है

"भूख -- तुम्हारे लिए होगी एक दर्दनाक मौत की इबारत
हम तो हैं आढ़तिये हमारी खड़ी होती हैं इसी पर इमारत
हम हैं नेता हमारे लिए है हर भूख से मरनेवाला मुर्दा बस महज एक मुद्दा
हमारी तो है राशन की दूकान
खरीद सको तो खरीदो बरना तुम्हारी भूख से हमें क्या काम
सुना है आप डॉक्टर हैं सरकारी, आप भी खाते हैं घूस की तरकारी
डॉक्टर की राय में भूख से मौत नहीं होती मौत तो खून की कमी से होती है
मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष तो वह होता है जिसके घूस खाने से पूरा देश ही रोता है
घूस की डकार लेकर वह बताता है कि भूख से मौत बहुत बुरी बात है पर उसका प्रतिशत कम और औसत ज्यादा है
आपके समझ नहीं आई होगी उनकी यह बात पर देश भी अभी नहीं समझ पाया है
क़ानून के जानकार बताते हैं कि संविधान में भूख दर्ज ही नहीं है अतः असंवैधानिक है
भूख लेखकों कवियों लफ्फाजों के लिए है साहित्य का कच्चा माल
एनजीओ वाले भूख के नाम पर जो दूकान चलाते हैं उसके लिए "भूख" एक शुभ सा समाचार है
किसान फसल बो कर भूख मिटा रहा है और हम
और हम भूख उगा रहे हैं
देखना एक दिन फसल बो कर भूख मिटा रहा किसान भूखा मर जाएगा
और हमने तो शब्दों से कागज़ पर जो भूख की फसल बोई है उस पर पैसे का खेत लहलहाएगा
पर याद रहे --भूख में जिन्दगी बेहद सुन्दर होती है
कभी देखा है फ़न फैलाए सांप
डाल पर उलटा लटक कर फल कुतरता तोता
चोंच से दाना चुगते चिड़ियों के बच्चे
शिकार का पीछा करता चीता
दूध पीता बछड़ा
अपनी माँ की छाती से चिपटा दूध पी रहा बच्चा
हाथ में हथियार लेकर अधिकार के लिए लड़ता भूखा आदमी
वैसे ही जैसे जिन्दगी के महाभारत में हाथ में रथ का पहिया ले कर खड़े हों कृष्ण." -----राजीव चतुर्वेदी


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"सुना है संवेदनाओं में भूख एक समृद्ध शब्द है,

हमने कैलोरी में नहीं उसे कविता से नापा है."----राजीव चतुर्वेदी
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 "भूखी ख्वाहिस को उम्मीद का निवाला देकर,
उसने कहा सो जाओ सुबह तो आयेगी कभी." -----राजीव चतुर्वेदी
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 "भूख पर शब्द उगाने से बेहतर था हम अन्न उगाते खेतों में,
पर वहां हमें अच्छा लिखने की शाबासी कैसे मिलती ?" ----राजीव चतुर्वेदी

Monday, February 27, 2012

बेटियाँ सहमी सी थीं कस्ती सी साहिल पे बंधी

"बेटियाँ सहमी सी थीं कस्ती सी साहिल पे बंधी,
सपने उनके दूर की दुनिया का सफ़र करते रहे."
  --राजीव चतुर्वेदी  

नृत्य देखा क्या थिरकती आत्मा का

"नृत्य देखा क्या थिरकती आत्मा का,
नेह नचाता है, नाचती देह है --- देखो,
थिरकती है जो लय बन कर प्रलय के पार जाती है,
धड़कती है जो आत्मा आहटें बन कर दिल में हमारे,
रक्त की लय व्यक्त होती है जहां परमात्मा का प्रेम पाती है,
आहटें संगत में हों तो संगीत बनती हैं,
बिखरी हों तो सम्हालो अब उन्हें तुम शोर बन जाएँगी,
आत्मा की आहटों पर जो थिरकता है वही है नृत्य समझे क्या,
नेह नचाता है नाचती देह है --- देखो."
---- राजीव चतुर्वेदी

हम बबूल के पेड़ हैं

 
" हम बबूल के पेड़ हैं
ओस हम पर भी गिरती है कवियों को दिखती नहीं
बसंत का हमसे क्या वास्ता
पतझड़ भी गुजर जाता है खाली हाथ
हमारे पौधे कोई नहीं लगाता
हमारे पास तितलियाँ भी नहीं आतीं
हमारी छाया में प्रेमिकाएं गाना भी नहीं गुनगुनातीं
हमारी जड़ों में कोई पानी भी नहीं लगाता
हम बबूल के पेड़ हैं
लकड़ी से लेकर छाल तक
दवा और मजबूती के इस्तेमाल तक
सभ्यता की सेना के जवानो से
हम खड़े हैं सरहदों पर
हम लगे तो हैं बबूलों की तरह पर खड़े हैं उसूलों की तरह
शहरों में चरित्र का ऊसर और उसमें उसूल
और जंगल के बियावान में बबूल
दाधीच की हड्डी हैं हम
हर सभ्यता का अंतिम हथियार
दिल में उसूल और जंगल में बबूल
ओस हम पर भी गिरती है पूरी रात पर कवियों को दिखती नहीं
उसूलों और बबूलों से जब भी उलझोगे नुच जाओगे
अपेक्षा करने वालों की ही उपेक्षा होती है
हमको तुमसे कोई अपेक्षा नहीं
हम उसूल के खेल हैं हम बबूल के पेड़ हैं
ओस हम पर भी गिरती तो है पर कवियों को दिखती नहीं. " -- राजीव चतुर्वेदी
 

पर याद रहे, --भूख में जिन्दगी बेहद सुन्दर होती है

"भूख -- तुम्हारे लिए होगी एक दर्दनाक मौत की इबारत
हम तो हैं आढ़तिये हमारी खड़ी होती हैं इसी पर इमारत
हम हैं नेता हमारे लिए है हर भूख से मरनेवाला मुर्दा महज एक मुद्दा
हमारी तो है राशन की दूकान
खरीद सको तो खरीदो बरना तुम्हारी भूख से हमें क्या काम
सुना है आप डॉक्टर हैं सरकारी, आप भी खाते हैं घूस की तरकारी
डॉक्टर की राय में भूख से मौत नहीं होती मौत तो खून की कमी से होती है
मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष तो वह होता है जिसके घूस खाने से पूरा देश ही रोता है
घूस की डकार लेकर वह बताता है कि---
"भूख से मौत बहुत बुरी बात है पर उसका प्रतिशत कम और औसत ज्यादा है"
आपके समझ नहीं आई होगी उनकी यह बात पर देश भी अभी तक तो नहीं समझ पाया है
क़ानून के जानकार बताते हैं कि संविधान में "भूख" दर्ज ही नहीं है अतः असंवैधानिक है
भूख लेखकों कवियों लफ्फाजों के लिए है साहित्य का कच्चा माल
एनजीओ वाले भूख के नाम पर जो दूकान चलाते हैं उसके लिए "भूख" एक शुभ सा समाचार है
किसान फसल बो कर भूख मिटा रहा है, ---और हम ?
और हम भूख उगा रहे हैं
देखना एक दिन फसल बो कर भूख मिटा रहा किसान भूखा मर जाएगा
और हमने तो शब्दों से कागज़ पर जो भूख की फसल बोई है उस पर पैसे का खेत लहलहाएगा
पर याद रहे, --भूख में जिन्दगी बेहद सुन्दर होती है
कभी देखा है फ़न फैलाए सांप
डाल पर उलटा लटक कर फल कुतरता तोता
चोंच से दाना चुगते चिड़ियों के बच्चे
शिकार का पीछा करता चीता
दूध पीता बछड़ा
हाथ में हथियार लेकर अधिकार के लिए लड़ता भूखा आदमी
वैसे ही जैसे जिन्दगी के महाभारत में हाथ में रथ का पहिया ले कर खड़े हों कृष्ण." -----राजीव चतुर्वेदी
 

Saturday, February 25, 2012

चीखो तुम भी ...चीखूँ मैं भी ---यह आवाजें अब आसमान को छू लेंगी

"चुप हैं चिडियाँ गिद्धों की आहट पा कर.
बस्ती भी चुप है सिद्धों की आहट पा कर
अंदर के सन्नाटे से सहमा हूँ मैं पर बाहर शोर बहुत है
संगीत कभी सुन पाओ तो मुझको भी बतला देना, --कैसा लगता है ?
शब्द सहम से जाते हैं खामोशी से
बोले तो थे पहले फिर वह मौन हुए
साहित्यों की दुनिया मैं भी सन्नाटा तारी है
संस्कृतियाँ संकट में हैं यह भी कहते हैं लोग यहाँ
पर अभियुक्तों की आहट पा कर सच भी मौन हुया
इस चुप्पी को अब कौन कहाँ से तोडेगा ?
बोलो तुम अंतर्मन की आवाजों से
मैं भी चीखूँ अब खडा हुआ फुटपाथों से
चुप हैं चिडियाँ गिद्धों की आहट पा कर.
बस्ती भी चुप है सिद्धों की आहट पा कर
जन - गण भी चुप है सरकारी राहत पा कर
सच घायल है पर मौत नहीं उसकी होगी
चीखो तुम भी ...चीखूँ मैं भी ---यह आवाजें अब आसमान को छू लेंगी ."
---राजीव चतुर्वेदी

फूल कुछ हैं, तितलियाँ कुछ, छाँव सी यादें

 "जिन्दगी की राह में जो प्यार के पौधे थे रोपे,
सुना है अब बड़े वह हो गए हैं
फूल कुछ हैं, तितलियाँ कुछ, छाँव सी यादें
और सूखी पत्तीयाँ भी प्यार की
सूर्य जब हो सामने परछाईयाँ पीछे ही दिखती हैं
देख लो जज़बात की इस धूप में साए सी मेरी याद को परछाईयाँ कहते हैं लोग
रात जब होती है तो परछाईयाँ दिखती नहीं,-----जिन्दगी की रात अब आने को है
समझ लो शाम से सत्य अब संकेत देता है
कदों से जो बड़ी थी, कदम पर जो चली थी अब बिछ्ड़ती हैं
सूर्य जब ढलता है तो फिर साथ देता ही है कौन ?
समय के सूचकांक पर मूल्य अपना भी अंको. " ----- राजीव चतुर्वेदी

Friday, February 24, 2012

प्यार के अक्षांश को आधार दे दो





"प्यार के अक्षांश को आधार दे दो,
फिर न कहना
स्नेह का विस्तार जिन्दगी के कोण पर संघर्ष करता है
या गुजरते रास्तों से पूछ लेना
हमसफ़र का साथ मैं कैसे  निभाऊं ?
और कह दो शाम के थकते से सूरज से
जिन्दगी के रोशनदान से अब यों न झांके
अब क्षितिज का छल मुझे निश्छल बना बैठा
और चन्दा छत की सीढ़ियों से उतर कर रोज आँगन में जो आता है
उसेभी स्नेह के विस्तार की सीमा बताता वीतरागी अब क्षितिज के पार जा पहुंचा." --- राजीव चतुर्वेदी

छत पे अकेले में वो मेरे साथ है

"रात के पहले पहर में
छत पे अकेले में वो मेरे साथ है

अर्थ जब कुछ व्यर्थ से ही हो चले हों
शब्द भी सहमे खड़े हों रास्ते में
संस्कारों के विकारों और प्रकारों से बहुत ही दूर
लोकलाजों के विवादों से इतना दूर कि मेरे पास है
उदासी के अँधेरे में वो पूरी रात मेरे साथ था, तुम क्या जानो
रात के पहले पहर में
छत पे अकेले में वो मेरे साथ है
वो तारा और मैं."                
   ------राजीव चतुर्वेदी

कठिन है सत्य बोलना

"कठिन है सत्य बोलना,
हनुमान जी की बातें करो
तो वेश्याओं के मोहल्ले में हाहाकार मच जाता है
कि यह व्यक्ति हमारी दूकान ही ठप्प कर देगा
वेश्याएं सेकुलर जो होती है,
कोलंबस की बात करो तो
गूलर के भुनगे भिनभिनाते हुए अपने ग्लोबलाईज़ेसन को बघारने लगे
हिन्दुओं की रूढ़ियाँ तोड़ोगे हिंदूवादीयो की आस्था को ठेस पहुंचेगी
इस्लाम का इहिलाम हुआ तो कठमुल्ले इमाम का फतवा कामतमाम कर सकता है
ईसाईयों ने तो ह़र साल ईसामसीह को
सूली सजा कर उसपर उन्हें बार बार टांगने में परहेज नहीं किया
पर ईसा को आज भी सूले से उतारने की रस्म नदारद है
गेलीलियो के घर का बहुत पहले ही बुझा दिया था दिया
इसलिए खामोश !! --ईसाईयों की बात मत करना
सच बोलने से उनकी आस्था को भी ठेस पहुँचती है
खामोश ! अदालत जारी है ---सुना है जज साहब ईमानदार हैं
इसलिए उनके पेशकार की पैरोकारी के उनके घर की तरकारी की चर्चा मत करना
न्याय की देवी की आँखे बंद हैं और कोंटेक्ट लेंस कारगर है कोई कोंटेक्ट ?
सुना है सभी कानूनी रूप से सामान हैं
पर चुप रहो, न्यायालय हो या संसद सभी के विशेषाधिकार हैं   
कोंग्रेसीयों /भाजपाईयों /सपाईयों /बसपाईयों/चोरों /हरामजादों के बारे में भी सच कभी नहीं बोलना
आखिर उनकी भी आस्था है उनको भी ठेस पहुँचती है
कविता या साहित्य की बात भी यहाँ नहीं करना
क्योंकि हराम की दारू पी कर जो कवि रात को फुफकारता है ---"आसमान को शोलों से सुलगा दूंगा"
सुबह तक बीडी से आपकी रजाई सुलागा चुका होता है. 
संपादकों/ पत्रकारों का समाचारों के अतिरिक्त जो बहिरउत्पाद  है
वही तो उनकी समृद्धि का समाज शास्त्र है
वीर सिंघवी, बरखा दत्त, राजीव शुक्ला या दीपक चौरसिया जैसों की बात मत करना
क्योंकि सत्य से उनकी निष्ठा ने बहुत पहले ही अलविदा कह दिया था
 दलाल शिरोमणि प्रभु चावला की बात भी मत करना
क्योंकि "सच के साथ उन्होंने गुजारे हैं चालीस साल"
जिससे सच तो गुजर गया और इनका गुजारा चल गया,
फेसबुक हो, ट्विटर,ऑरकुट या कोइ सोसल साईट चिरकुट --इन पर भी सच मत बोलना
यहाँ एक स्वयम्भू सम्पादकनुमा एडमिन होता है खेत के बिजूके जैसा    
उसे कविता की न भाषा ही पता है और न परिभाषा
यहाँ सच न बोलना इससे किसी न किसी की आस्था को ठेस पहुँचती ही है
आओ साहित्य लिखें बेतुकी बातों को तुक में पिरोयें पर प्रेमिका की बात मत करना
इससे उस प्रेमिका के परिजनों की आस्था को ठेस पहुँचती है
आओ हम सब मिलकर सच की आस्था को ठेस पहुंचाएं और कविता गुनगुनाएं." -----राजीव चतुर्वेदी

ईंट क्रांति का आख़िरी हथियार होती हैं

 
ईंट से ईंट जोड़ कर बनती हैं दीवारें
आदमी और आदमी के बीच उगती हैं दीवारें
लोग दीवारों को अकेला पा कर उनसे करते हैं संवाद
कुछ आवारा नौजवान लिख देते हैं उस पर अपनी प्रेमिका का नाम
कुछ लोग उकेरते हैं अपनी वेदना या देते हैं कोई पैगाम
दीवार विचार की हो या आचार की खडी हो रही हैं रातों रात अपनों के बीच
कुछ लोग बनाते हैं दीवारें
कुछ लोग ढहाते हैं दीवारें
कुछ लोग सजाते हैं दीवारें
कातिलों के डर से बनी एक दीवार देख कर विश्व के लोग आज तक आश्चर्यचकित हैं
कुछ दीवारें से किसी को कोई आश्चर्य नहीं
जब सभ्यता सहमती है तो बनती है दीवार
जब सभ्यता समझती है तो ढहती है दीवार
आओ यह दीवार ढहा दें इसकी ईंट से ईंट बजा दें
ईंट सभ्यता का पहला औजार होती है
ईंट क्रांति का आख़िरी हथियार होती हैं." -------- राजीव चतुर्वेदी
 
 
"थक गए चरागों की शहादत को सुबह कहते हो,
हर शख्स तनहा है सफ़र में आग बुझ जाने के बाद." -----राजीव चतुर्वेदी

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"मैं तो एक चराग सा जलता रहा, मुस्कुराता रहा,
रोशनी तुमको हो न पसंद तो बुझा दो मुझको.
हवाएं कल भी चलती थीं हवाएं अब भी चलती हैं,
मैं थक गया हूँ जलते जलते बुझा सको तो बुझा दो मुझको."

                                                                                            -----राजीव चतुर्वेदी

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"सुबह जब होती है तो चराग बुझ ही जाते है,
दूसरों के तेल से जो जलते हैं सूरज नहीं होते. "
                                                                                     -----राजीव चतुर्वेदी

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"कुछ मुक़द्दस से चरागों के मुकद्दर में धुंआ लिक्खा था,
रोशनी की तौफ़ीक के बदले तारीकीयाँ तोहफे में थीं.
"
                                                                                                                    -----राजीव चतुर्वेदी
( मुक़द्दस= पवित्र . तौफ़ीक= पुरुष्कार / वरदान . तारीकीयाँ = अँधेरे )
 
           "आँख में सपने लिए संयोग के,
       देर तक जलता रहा उस खिड़की का दिया."
                             ---- राजीव चतुर्वेदी
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"एक चराग थक के सो गया यारो,
हवाएं भी इस हादसे से ग़मगीन सी हैं."
                        ----राजीव चतुर्वेदी

"खंडहर के खंडित स्वरों को अबाबीलों ने आवाज़ दी,
याद क्यों बहती है नदी में दिल में क्यों रहती नहीं ."
--राजीव चतुर्वेदी.
 
"समय की आँधियों से जो सहमा था कलेंडर था,
वह तो सूरज है समय मोहताज है उसके ही उजालों को.
समन्दर तक जो जाते हैं वो नक्श -ए -पा भी मेरे हैं,
शिखर पर छोड़ आया हूँ मैं अपने ही निशानों को ." ---- राजीव चतुर्वेदी
 
 

Thursday, February 23, 2012

मेरी नज़रों में

"टूटते सपनो की किरचें और ये घायल अतीत
शब्द सहमे थे सुबक के चुप वो यूं क्यों हो गए ?
जो बिखरे हैं वो निखरे हैं इन्हें तुम स्वप्न मत कहना
ये धड़कन है मेरे दिल की जो दर्ज है पलकों के पन्ने पे."
----- राजीव चतुर्वेदी
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"मेरी नज़रों में नुमायाँ हैं चाँद तारे कितने,
और तुम पैसों का नज़रीया लिए बैठे हो.
मेरा हर हर्फ़ इबारत है मुहब्बत की यारो,
और तुम तिजारत की इमारत में कहीं बैठे हो. "
----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, February 22, 2012

एक टूटते हुए इंसान में दरअसल सारा संसार ही टूटता है

" एक टूटते हुए इंसान में दरअसल सारा संसार ही टूटता है,    
 जाने कहाँ से इस बीच आड़े आजाती हैं भूमध्य, देशांतर और अक्षांश रेखाएं,
पर कुछ नहीं होता टूटता रहता है
सभ्यता की निहाई पर हथोडा चलता है सवाल बन कर
उगता रहता है सरेआम कोई सूरज भी रोज
मेरी कलेजा फाड़ कर निकली चीख सुन
मौसम भी बस करवट ही बदलता है 
बदल जाता है साल दर साल कलेंडर का  फड़फडाता पन्ना
इस बीच टूटता हुआ आदमी पूछता है एक ही सवाल
कब तक तोड़ोगे मुझे ?
और तोड़ो मुझे जितना तोड़ सकते हो उतना तोड़ो

टूटता हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है
टूट रहा हूँ मैं , टूटने की इंतहा पर एक दिन
टूटते टूटते अणु बनूंगा, परमाणु बनूंगा
इससे ज्यादा तोड़ भी तो नहीं सकते हो तुम मुझे
अणु और परमाणु बनने के बाद
मैं तोड़ दूंगा इस तोड़ने वालों की दुनिया को
बस एक ...बस एक ही धमाके से
एक टूटते हुए इंसान में दरअसल सारा संसार ही टूटता है,
 जाने कहाँ से इस बीच आड़े आजाती हैं भूमध्य, देशांतर और अक्षांश रेखाएं,"
-- राजीव चतुर्वेदी ( 25Nov.1998 को "हिन्दुस्तान" में प्रकाशित अपनी तीन कविताओं से एक)  

प्यार की परिभाषा की भाषा तुम क्या जानो ?

" कैटरीना की आँखें देश में बाज़ार
और मेरे कुत्ते की आँखें मुझमें प्यार ढूंढती हैं
जब देह दानों के तरह फैंकी गयी हो

कोई चिड़िया तो फंसेगी
ख्वाहिश की नुमाइश से नुमायाँ हो भी लो अब तुम

समझ लो अब हवस और कफस के बीच का मंजर
विस्तरों पर मत इसे विस्तार पर देखो 

देह को बाज़ार में तुम बेच लो मर्जी तुम्हारी
प्यार की परिभाषा की भाषा तुम क्या जानो ?

गाय के हुंकारने में सुन सको तो सुन ही लेना
पूछना तुम राधिका से

कृष्ण संयोगों का समर्पण था या वियोगी की विवशता
बीतरागी भी बता देगा तुम्हें विस्तार से सब

पूछने और बूझने के बीच की दूरी अगर तुम जानते हो
बूझ लेना गाय की हुंकार में या अपने कुत्ते की निगाहों में 

केटरीनाओ के शहर की इस सड़क से दूर जाती है जो पगडंडी
वो मेरे गाँव की सरहद पे जाती है

चल सको तो चल भी लेना इसपे तुम
ये वो पगडंडी है जो प्यार की परिभाषा बताती है
." --- राजीव चतुर्वेदी

जो नीहारिका नाराज हो कर गिर रही है

"अहसास की स्पर्श रेखा यों न खींचो,
आईना आँखों में हो आंसू नहीं. "
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"और जो नीहारिका नाराज हो कर गिर रही है
उससे कहदो आज धरती बांह फैलाए हुए है."
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"मैं काँधे पे भूगोल लिए भाग रहा हूँ,
हांफती साँसों ने पूछा घर कहाँ है ?" ---- राजीव चतुर्वेदी

धरती की हथेली पर सड़क जब दौड़ती हो भाग्यरेखा सी

"धरती की हथेली पर सड़क जब दौड़ती हो भाग्यरेखा सी,
पंचांग के पन्नो को पढ़ता ज्योतिषी बांचता हो एक ठहरी सी इबारत,
असमर्थता की ओस मैं नहाते नक्षत्र नज़रें जब चुराते हों,
तो ऐसे मैं तुझे कैसे बताऊँ कि योद्धा नक्षत्र के मोहताज़ नहीं होते,
सरताज और मोहताज़ के बीच सड़क तो दौड़ती है भाग्य रेखा सी
सफलता की सूचकांक को देखो तो, पराक्रमी पंचांग नहीं पढ़ते
छत्र पाने को उठे हैं पैर जिनके नक्षत्र पर होती नहीं उनकी निगाहें,
धरती की हथेली पर सड़क जब दौड़ती हो भाग्यरेखा सी." -------राजीव चतुर्वेदी

आचरण और व्याकरण की तंग गलियों से गुजरते शब्द की सिसकी सुनी तुमने ?

"आचरण और व्याकरण की तंग गलियों से गुजरते शब्द की सिसकी सुनी तुमने ?
सुनो ! संवेदना के सेतु से जाता हुआ वह हादसा देखो !!
बताओ लय-प्रलय के द्वंद्व के इस दौर में जो जन्मा है सृजन है क्या ?
फिर न कहना इस उदासी से कभी, ढह चुके विश्वास के टुकड़े उठाये --
दूर तक इस दर्द का विस्तार जिन्दगी के छोर का स्पर्ष करता है
देख पाओ तो तुम भी देखो जिन्दगी के उस तरफ
रात के बोझिल पलों में बूढ़े बरगद की टहनी जब खड़कती है तो चिड़िया काँप जाती है
आचरण और व्याकरण की तंग गलियों से गुजरते शब्द की सिसकी सुनी तुमने ?
सुनो ! संवेदना के सेतु से जाता हुआ वह हादसा देखो !!" ----- राजीव चतुर्वेदी

प्यार की परिभाषा बताओ तुम मुझे शब्दकोशों मैं कहाँ गुम हो गयी

" प्यार की परिभाषा बताओ तुम मुझे
शब्दकोशों मैं कहाँ गुम हो गयी
प्यार के माने अगर है वासना
तो मिलो तुम जिन्दगी की चढ़ाई के उतरते रास्तों में
प्यार की दहलीज यदि हो देह तेरी
मुझसे मिलना रूह जब रोती खड़ी हो रास्ते में
मुझसे पूछो तो समझ लो ध्यान देकर
प्यार याचक हो तो है आराधना
प्यार शोषक हो तो है वह वासना
प्यार में घंटी बजे मंदिर के जैसी
तो समझना प्यार है उपासना." --- राजीव चतुर्वेदी

यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे

" यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे ,
अमावस को तारे भी अवकाश में हैं
मुसाफिर सो गए हैं सोचते सुनसान से सच को
यह सच है कि सूरज डूबा था महज हमारी ही निगाहों में
चीखती चिड़िया का चेहरा और गिद्धों का चरित्र
फूल की पत्ती पे वह जो ओस है अक्स आंसू का
यह विम्ब बिखरें गे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे
सहेजोगे तो कविता कागजों पर शब्द बन कर वेदना का विस्तार नापेगी
वह जो घर पर आज सहमी सी खड़ी है छोटी बहन सी भावना मेरी
आसमान को देखती है एक चिड़िया सी
उसकी निगाहों में सिमटा आसमान शब्दों में समेटो तो नदी की मछलियाँ भी मुस्कुरायेंगी
पीढियां भी संवेदना की साक्षी बन कर तेरी कविता गुनगुनायेंगी
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे.
ये कविता मेरी है गर वेदना तेरी हो तो बताना तू भी मुझको
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे." ----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, February 21, 2012

हम कोलंबस हैं हमारे हाथों में भूगोल की किताबें नहीं होतीं

" हम कोलंबस हैं हमारे हाथों में भूगोल की किताबें नहीं होतीं,
हमारी निगाहों में स्कूल की कतारें नहीं होती,
हमारे घर से लाता नहीं टिफिन कोई,
तुम्हारी तरह हमको पिता दिशा नहीं समझाता,
तुम्हारी तरह हमें तैरना नहीं सिखलाता,
हमारे घर पर इंतज़ार करती माँएं नहीं होती.

हम कोलंबस हैं हमारे हाथ में होती हैं पतवारें,
हमारी निगाह में रहती हैं नाव की कतारें,
हमारे पिता ने निगाह दी तारों से दिशा पहचानो,
हमारे पिता ने समझाया तूफानों की जिदें मत मानो,
हमारी मां यादों में बस सुबकती है आंसू से रोटी खाती है,
स्कूलों की छुट्टी के वख्त हमारी मां भी समंदर तक आके लौट जाती है,
मेरी मां जानती है मैं कभी न आऊँगा फिर भी मेरी सालगिरह मनाती है.

तुम साहिल पे चले निश्चित वर्तमान की तरह
मैं समंदर पर सहमा अनिश्चित भविष्य था भूगोल में गुम
तुम तो सुविधाओं को सिरहाने रख सोते ही रहे
हमने हवाओं के हौसले की हैसियत नापी
तुमने तोड़ा था उसूलों को जरूरत के लिए
हमने जज़बात की हरारत नापी
तुम तो शराब के पैमाने में ही डूब गए
मैंने समंदर के सीने की रवानी नापी
तुम्हारी काबलियत काँप जाती है नौकरी पाने के लिए
मेरी भूल भी उनवान है धरती पे लिखा
तुम्हारे और मेरे बीच यही है फर्क समझो तो
जिन्दगी की हर पहल में तुम हो नर्वस
और मैं कोलंबस
तुम्हारे हाथ में भूगोल की किताब है पढो मुझको
मुझको है मां से बिछुड़ जाने का गम . " -- राजीव चतुर्वेदी

सुना है...

" सुना है वर्फ की चादर फ़ैली है पहाड़ों पर
सुना है ओस की वारिस हुई है देवदारों पर
सुना है सर्द है सूरज सुबह छुप गयी है कोहरे की रजाई में

सुना है सत्य के संकेत सीमित हैं बयानों तक
सुना है प्यार भी बिकने लगा है अब दुकानों पर
सुना है सड़कें रोनक हैं अँधेरे हैं मकानों पर
सुना है रात है गहरी कातिल बैठे हैं मचानो पर
सुना है इस सदी में न्याय की देवी की आँखें बंद हैं
सुना है मन्थराएं मंत्रणाएं कर रही हैं
सुना है स्वान के स्कूल में अब शेरों को पढ़ना है
सुना है शातिरों को शब्दकोषों पर भरोसा है
सुना है एक बूढ़े बाप ने दहेज़ जोड़ा है
सुना है दहेजखोर दामाद ने रिश्तों को निचोड़ा है
सुना है हमको खुदा से प्यार कम पर खौफ ज्यादा है

सुना है कोहरे में दिया दयनीय सा दिखने लगा है
सुना है पिता पर पैसा कम है पर प्यार ज्यादा है
सुना है मां की ममता खिलौनों की दुकानों से डरती है
सुना है एक मछली प्यासी हो कर पानी में ही मरती है
सुना है जिन्दगी जज़बात में सिमिटी है
सुना है एक तितली फूल के दामन से लिपटी है." -- राजीव चतुर्वेदी

ज्ञान के जुगनू और ये जंगल

"ज्ञान के जुगनू और ये जंगल,
सच बताना तुम कहाँ हो ?
खो गए क्या ख्वाब में ?
ध्रुव तारा दिशा बतलाता भी कैसे ?
बादलों के बीच घटाएं थीं घमंडी सी
समंदर में सहमे से हम नाव पर बैठे तो थे
यह सच है डूबने से बचे थे बैठ कर उस नाव पर हम
पर भीगने से भागते तो भागते कैसे ?
बादलों की व्यख्या बरसात बन कर आ गयी थी
ज्ञान के जुगनू और ये जंगल, ये बादल, ये घटाएं
धुएं के बीच वह ध्रुव तारा बेचारा पूछता है अब पिता सा
यह बतलाओ तुम्हें जाना कहाँ है ?
ज्ञान के जुगनू और ये जंगल,
सच बताना तुम कहाँ हो ?
ध्रुव तारा दिशा बतलाता भी कैसे ?
बादलों के बीच घटाएं थीं घमंडी सी." -----राजीव चतुर्वेदी

शंखनादों से सुबह सहमी है... आर्तनादों से शाम

"शंखनादों से सुबह सहमी है
आर्तनादों से शाम
अमन के नाम पर कफ़न किसने उढ़ाया ?
एक सहमी सी सुबह से मैंने पूछ था ये सच
शाम होते शहर शोकाकुल सा नज़र आया
सच की दुनिया अब अखबारों को अखरती है
झूठ का झंडा उठाये दूरदर्शन दौड़ आया

सुना है गिद्ध की नज़रें हमारे गाँव पर हैं
सुना है चहकती चिड़िया आज चिंतित है
सुना है गाय का बच्चा अपनी मां के दूध से वंचित है
सुना है यहाँ कलियाँ सूख जाती हैं नागफनीयाँ सिंचित हैं
सुना है फूल तोड़े जा रहे हैं मुर्दों पे चढाने को
सुना है कांटे तो खुश हैं पर राहें रक्तरंजित हैं
सुना है शब्द सहमे हैं साँसें थम गयी हैं
सुना है न्याय की देवी की आँखें बंद हैं
सुना है सत्य की श्मशान संसद बन चुकी है
सुना है मां की ममता खिलौनों की दुकानों से डरती है
सुना है एक मछली प्यासी हो कर पानी में ही मरती है
सुना है प्यार भी भी बिकने लगा है अब दुकानों पर
सुना है सड़क सहमी हैं रिश्ते भी कलंकित हैं अब मकानों पर
सुना है मां न बनने का सामान अब बिकने लगा है दुकानों पर
सुना है अब शहर में सड़कें चौड़ी और दिल संकरे हो रहे हैं
सुना है संत सकते में हैं और शातिर शोर करते हैं
सुना है कातिलों ने अब खंजर पर अहिंसा लिख लिया है
सुना है कोई पूतना अब डेरी चलाने जा रही है
सुना है सभ्यता बैठी है ज्वालामुखी के मुहाने पर
सुना है मोहनजोदाड़ो बह आया है गंगा के दहानो तक
सुना है हर कोलंबस अपनी भूल पर पछता रहा है
सुना है इस खुदा का प्यार कम पर खौफ ज्यादा है
सुना है आदमी अब आदमी के खून का प्यासा है

अमन के नाम पर कफ़न किसने उढ़ाया ?
एक सहमी सी सुबह से मैंने पूछ था ये सच
शाम होते शहर शोकाकुल सा नज़र आया
घर पे आया सबको हंसाया
छत पे जाके अपने आंसू पोंछ आया
आवाज़ देकर फलक से मुझे किसने बुलाया
भूकंप से काँपे घर की देहरी पर दिया किसने जलाया
शंखनादों से सुबह सहमी है
आर्तनादों से शाम
अमन के नाम पर कफ़न किसने उढ़ाया ?
एक सहमी सी सुबह से मैंने पूछ था ये सच
शाम होते शहर शोकाकुल सा नज़र आया
आवाज़ देकर फलक से मुझे किसने बुलाया
भूकंप से काँपे घर की देहरी पर दिया किसने जलाया. " -----राजीव चतुर्वेदी

आओ फरिश्तों से कुछ बात करें बहुत उदास है ये रात

"आओ फरिश्तों से कुछ बात करें
बहुत उदास है ये रात
कोहरे के लिहाफ ओढ़ कर शायद तुम हो जो झांकती हो मुंडेरों से अभी
चाँद की बिंदी लगा लो अपने माथे पर
समझलो तुम सुहागिन हो
तुम्हारी मांग में शफक सिन्दूर भर कर खोगई है भोर में
मैं लौट के आऊँगा देख लेना
तन्हाईयों में गूंजती रुबाईयों जैसा
धूप में सूखती रजाईयों जैसा
मैं लौट के आऊँगा देख लेना
हादसे में हाँफते सुबह के अखबार में सिमटा
देख लो तुम्हारी गोद में सर रखे सूरज सा लेटा हूँ मैं
एक रोशन सच चरागों से चुरा लाया हूँ मैं
तुम्हारी आँख में काजल लगा दूं रात का
मैं खो जाऊंगा तह किये कपड़ों में रखे स्नेह के सुराग सा
मैं याद आऊँगा सूनी मांग से सिन्दूर के संवाद सा
तुम्हारी आँख में काजल लगा दूं रात का
मैं जाता हूँ सितारों ने बुलाया है दूर से मुझको
ओढ़ लो कोहरे की चादर
बहुत सर्द है रात." ----राजीव चतुर्वेदी

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शिलालेख पर ओस इबारत गढ़ती हैं

"आसमान की घनीभूत कुंठायें
कोहरा बन कर पहरा करती हैं
धरती को झकझोर रही हैं अनुभवहीन हवाएं
आंधी बनती हैं फिर ठहरा करती हैं
दावानल मैं जले देवदारों से भी पूछो
गमलों के पौधे मानसून का मूल्यांकन क्यों करते हैं
रहती हैं जो स्मृतियाँ अंतर्मन के दालानों में
सपने बन कर अपनों से क्या कुछ कहती हैं
रात गए जब शब्द सहम से जाते हैं
शिलालेख पर ओस इबारत गढ़ती हैं." -----राजीव चतुर्वेदी

चमगादड़ के शब्दकोष में सूरज अंधियारा करता है

" चमगादड़ के शब्दकोष में सूरज अंधियारा करता है
और वैश्यायों की बस्ती में हनीमून करनेवालों से हनुमान की बात न करना
युग के साथ थिरकते देखो मानदंड भी
आत्ममुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगों की दुनिया कोलंबस की भूल के आगे नतमस्तक है
हर जुगनू की देखो ख्वाहिश सूरज की पैमाइश ही है.
और शब्द संकेतों को तुम पढ़ पाओतो मुझे बताना
गिद्ध -बौद्ध में अंतर क्या है ?
सोमनाथ के दरवाजे हमने खोले थे
दयानंद को जहर खिला कर हमने मारा
गांधी के हत्यारे हम हैं
षड्यंत्रों को शौर्य न समझो
शातिर के हाथों में मोटा शब्दकोष है
हर कातिल के खंजर पर लोकतंत्र की ख्वाहिश देखो
बल्बों के बलबूते देखो हर सूरज को अपमानित करना आम बात है
युग के साथ थिरकते देखो मानदंड भी
चमगादड़ के शब्दकोष में सूरज अंधियारा करता है
और वैश्यायों की बस्ती में हनीमून करनेवालों से हनुमान की बात न करना." -- राजीव चतुर्वेदी

लोकतंत्र की पृष्ठभूमि की पड़तालों में नन्हें से नचिकेता हम हैं

"लोकतंत्र की पृष्ठभूमि की पड़तालों में
नन्हें से नचिकेता हम हैं
यक्ष प्रश्न के लक्ष्य हमी हैं
सांख्य सवालों के हम अर्जुन
आज उत्तरा की आँखों में आंसू से अभिमन्यु हम हैं
खामोशी का खामियाजा हम हैं
सारनाथ के संकेतों से अमरनाथ तक
अमरनाथ से हर अनाथ तक
शान्ति पर्व से सुकरातों तक
राजपथो से फुटपाथों तक
हर अधीर को अब समझाओ तुम सुधीर हो

तक्षशिला से लालकिला तक पूरक प्रश्न फहरते देखो
जन-गण-मन के जोर से चलते गणपति के गणराज्य समझ लो
आत्ममुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगों की दुनिया कोलंबस की भूल के आगे नतमस्तक है
हर जुगनू की देखो ख्वाहिश सूरज की पैमाइश ही है.

नचिकेता हो , यक्ष सभी का लक्ष यही है
लोकतंत्र के सर्वमान्य तुम ध्रुव को समझो
याज्ञवल्क के यग्य समझना तुमको बाकी
तत्वज्ञान की तीव्र त्वरा में बस इतना स्वीकार करो तुम
'सभ्यता सवाल नहीं उत्तर होती है'
और यमों की इस बस्ती में नन्हें से नचिकेता तुम हो." --- राजीव चतुर्वेदी (16Feb.11)