Monday, December 31, 2012

ओस में शब्द भी कुछ नम से हो जाते हैं

"नींद थक जाती है मेरी पलकों पर जगते -जगते,
ओस में शब्द भी कुछ नम से हो जाते हैं
धूप महकती है मेरी क्यारी के फूलों की फुनगी पर
सुबह की चाय जब पीता हूँ मैं तो लगता है
मैं हूँ ...मैं हूँ ...और कोई भी नहीं
दूर कोहरे की रजाई के
वक्त के साथ मैले से हुए उस कोने से
झांकता है सूरज मेरे पड़ौसी सा
धूप ऊंचे मकानों से उतर कर दालानों तक बिखर जाती है
और इस रोशनी में लोग परछाईयों की पैमाइश करते हैं
मैं जानता हूँ तू नहीं है अब कहीं
गुमशुदा सी याद है तेरी
मेरी आँख के आंसू की उस बूँद में बसा भूगोल है
हिचकियों के साथ तेरी याद का भूकंप आता है
खिडकियों को खोल दो
धूप की धमकी से जो ओस सहमी है
तितलियाँ प्यार की परिभाषा अब पूछती है फूलों से
और मैं भी सोचता हूँ रातरानी की महक दिन में क्यों खामोश रहती है ?
नींद को रातों को जगा कर मैं भी पूछूंगा उम्मीद से
मैं अकेला हूँ तो हिचकियाँ आती हैं क्यूं ?
दस्तक कौन देता है ?
कह दो सफ़र में मिल सका तो मिल लूंगा
घर पर मुझे अकेला ही रहने दो
अभी मेरी जिन्दगी का सूरज शेष है
अभी मुझसे मुझ ही को बात करनी है
परछाईयों से पहचान तुम्हारी है पुरानी
तुम ही उनसे बात कर लेना .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

बकीलों की निगाह में वह ही हुजूर था

"अमीर था तो फैसले का फलसफा बनता गया ,
गरीब हर बार फैसले से फासले पर था .
गुनहगार के गले में फूल की माला और सत्ता का सुरूर था
सऊर था जिसे वह शहर में सहमा सा दिखा
गुरूर जिसको था उसका हाथ गरीब के गिरेहबान पर ही था
जो खा रहा था घूस पेशकार के जरिये
बकीलों की निगाह में वह ही हुजूर था ."
----- राजीव चतुर्वेदी

और धीरे से हवा मुस्कुरा रही थी

" घड़ी ने बांह फैला कर वख्त की पैमाइश की,
शाम ने संकेत से था कुछ कहा
रात चन्दा की बिंदी लगाए छत पे आयी
याद की खुशबू सुबह तक थी दालानों तक
और तुलसी के घरोंदे पर
किसी ने रख दिए थे फूल हरसिंगार के
चहकती चुलबुली सी एक चिड़िया
सुबह तक उड़ गयी थी
और धीरे से हवा मुस्कुरा रही थी ." -- राजीव चतुर्वेदी

साहित्य बाज़ार तलाशते -तलाशते व्यवहार को ही भूल गया

"साहित्य बाज़ार तलाशते -तलाशते व्यवहार को ही भूल गया ... भूल में इस हद तक बहक गया क़ि आज हमारे पास "कविता" और "साहित्य" की कोई सर्वमान्य परिभाषा ही नहीं है ...इस तरह के बाजारवादी या यों कहें कि बाजारू लेखकों ने किसी एक विचारधारा को अपना सेल्समेन बनाया और बाजार में बिक गए ... अभिव्यक्ति की "स्वतंत्रता" कब सीमाएं मर्यादा लांघ "स्वच्छंदता" हो गयी क़ि असमर्थ पाठक समझ भी न पाया . धूर्त आलोचक सचेत होता तब तक बहुत देर हो चुकी थी . अभिव्यक्ति की आज़ादी भौकने की आज़ादी बन चुकी थी ...समाज कुत्सित हुआ और साहित्य कुरूप और एक दिन वह भी आया कि "...बीडी जलाईले जिगर से पीया ..." को वर्ष का सर्वश्रेष्ठ (फ़िल्मी ) गीत माना गया ....वामपंथी नारेबाजी ने साहित्य को राजनीतिक उपकरण बनाया और स्थापित प्रतीक तोड़े जाने लगे ...इसमें दक्षिण पंथीयों ने भी पराक्रम दिखाया इस्लामिक मूर्ति भंजक संस्कार जब साहित्य में आये तो सलमान रश्दी और तस्लिमा नसरीन ने मुसलमान विरोधी विचारधारा का बाज़ार तलाश लिया तो उधर अरुंधती ने वामपंथी चेतना के बहाने अमेरिका पर निशाना साधा और अपना बाज़ार पा ही गयी ...इस प्रकार रचना धर्मिता की मौत हुयी और बाज़ार धर्मिता विकसित हुयी ... युद्ध बनाम प्रबुद्ध होता था ...अब राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लोगों ने साहित्य को हथियार बनाया ...एक ऐसा हथियार जो बाजार में खरीदा और बेचा जाता था ....सांस्कृतिक युद्ध चालू हुए ...सभ्यताएं तीतर -बटेर की तरह लड़ाई गयीं ....सांस्कृतिक प्रतीकों को तोड़ने के लिए सांस्कृतिक सुपाड़ी भी दी गयीं . चूंकि विश्व विशेषकर एशिया इस्लामिक मूर्ति भंजकों से आक्रान्त था सो सलमान रश्दी और तस्लिमा ने इस्लाम के प्रतीकों का भंजन कर शेष सम्प्रदायों को संतुष्टि दी और मूर्ति भंजन को जायज ठहराने वाले मुसलमानों पर अपनी छवि को टूटे देखने के अलावा और कोइ चारा नहीं था न इसको रोक पाने के तर्क ही अतः मूर्ति भंजन की इस अघोषित बहस में जहां पहला चरण बामियान की मूर्तियाँ तोड़ने तक इस्लामिक लोगों का था वहीं दूसरा चरण वैचारिक मूर्ती भंजन से रश्दी और तसलीमा जैसों ने जारी किया और बाज़ार पा गए . इसी प्रक्रिया का उत्पाद हैं सलमान रश्दी ,तसलीमा नसरीन ,अरुंधती राय जैसे लोग जिन्होंने समाज में संवाद कम और विवाद अधिक कायम किया है ....इस हमलावर दौर में हम किस सांस्कृतिक टापू पर हैं ?---यह हमको सोचना समझना होगा ." ------ राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, December 19, 2012

बलात्कार दो प्रकार का होता है --घोषित और पोषित जिसमें शोषित तो हमेशा स्त्री ही होती है

"बलात्कार दो प्रकार का होता है --घोषित और पोषित जिसमें शोषित तो हमेशा स्त्री ही होती है . घोषित बलात्कार के विषय में सभी जानते है पर बारीकी से नहीं . घोषित बलात्कार व्यक्तिगत होता है इसलिए इसका शोर ज्यादा होता है . इसके दो कारण है एक तो वह लोग बहुत शोर करते हैं जो स्वयं भी बलात्कार करना तो चाहते हैं पर क़ानून के डर से ऐसा नहीं करते .वह बलात्कार करने की इच्छा तो रखते हैं पर उसका अंजाम देने का माद्दा नहीं .लडकीयों /स्त्रीयों को देख कर इन घूरती निगाहों के बलात्कार की मंशा रखने वाले बहुतायत में हैं .दूसरे प्रकार का बलात्कार होता है जिसे समाज द्वारा "पोषित बलात्कार " या यों कहें "सामाजिक बलात्कार" कहा जा सकता है . भारतीय समाज की प्रायः शादियाँ इसी श्रेणी में आती हैं . इन शादियों के पूर्व जब होने वाले पति -पत्नी एक दूसरे को जानते ही नहीं हैं तब "सहमति " कहाँ से और कैसे हो सकती है ? लेकिन समाज के अहम् की संतुष्टि तो होती है . आपराधिक या घोषित बलात्कार तथा पोषित या सामाजिक बलात्कार दोनों में शोषित स्त्री की सहमती नहीं होती है . प्रायः सामाजिक दबाव जिसे लोक -लाज कहा जाता है के चलते स्त्री अपनी शादी के विषय में अपनी वास्तविक इच्छा व्यक्त ही नहीं कर पाती है ...और एक रात उस व्यक्ति के साथ विस्तर पर होती है जिसको वह पहले से जानती ही नहीं ...समझती ही नहीं . ---क्या यह बलात्कार नहीं है ? ---यह सामाजिक बलात्कार है और वह आपराधिक या व्यक्तिगत बलात्कार ...हर दशा में स्त्री की दुर्दशा है ...वह शोषित है ...वह बीबी हो या वादी ...वह पत्नी हो या prosicutrix.
"शादियाँ इस दौर में ऐसी भी हुआ करती हैं ,

रूह रोती ही रही देह पर वह काबिज था ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, December 18, 2012

पहले वातावरण में गूंजता था "ॐ " और अब गूंजता है " कंडोम "

"उस देश में बलात्कार पर हाय -तोबा मची हुयी है कि जहाँ हर छह महीने में नौ देवियों का पर्व मना कर हम बेटियों को पूजते हैं ...जिस देश से विश्व की सबसे अधिक बाल वैश्या आती हैं ...जहाँ दुर्गा पूजा सबसे बड़ा पर्व होता है उस पश्चिम बंगाल में लगभग तीस वर्ष वामपंथी शासन रहने के वाबजूद विश्व के सबसे बड़े वैश्यालय हैं ...क्यों ? इसीलिए कि हम अंतरात्मा से पाखंडी हैं ? ---हमारे अनेक धार्मिक प्रतीक बलात्कारी थे और हमने उन्हें भगवान् मान लिया ...हम  धड़ल्ले से द्रोपदी, कुन्ती या आयसा की वेदना कभी क्यों नहीं उकेर सके ? ----जब कभी किसी महिला के शोषक के बेनकाब होने का समय आया तो वह धर्म की आड़ लेकर बच निकला ....पहले के आदिम युद्धरत समाज में पुरुषो का दायित्व था क़ि वह अपने समाज की स्त्रीयों को सुरक्षा दें और स्त्रीयां समाज को सन्तति, सौन्दर्य और संस्कार देती थी ...धीरे -धीरे सभ्यता का विस्तार हुआ और युद्ध कम हो गए ...पुरुष हिंसा के प्रकट होने के पटल युद्ध जब कम हो गए तो पुरुष हिंसा की अभिव्यक्ति स्त्री को सुरक्षा देने के बजाय स्त्री शोषण में होने लगी ...फिर धीरे -धीरे पैसे लेकर देह बेचने वाली पुरुष वेश्याएं यानी दहेज़ ले कर शादी करने वाले दूल्हे दिखाई देने लगे ...पुरुष की जगह कापुरुष दिखने लगे ...यह प्रवृत्तीयाँ तो समाज में पहले से ही थीं इनकी पुनरावृत्तियो पर परिचर्चा होने लगी ...पर हर सामाजिक कुरूपता में सम्पूर्ण समाज जिम्मेदार होता है केवल पुरुष या केवल स्त्री  नहीं ....पुरुष अगर बलात्कारी हो तो निश्चय ही पुरुष दोषी है लेकिन स्त्री अगर वैश्या/ कॉल गर्ल /बार बाला है तब पुरुष क्यों और वह स्त्री क्यों नहीं दोषी है ?  ...देर से होते विवाह की सामाजिक स्थिति में वासना की भूख व्यक्त करने के अवसर की घात में रहती है ...ऐसे में मीडिया भी हर अवसर पर कामोद्दीपन कर देह व्यापार की ऐन्सेलरी इकाई या यों कहें अनुपूरक इकाई बन चुका है ...वात्सायन के काम सूत्र के तमाम समकालीन संस्करण से  लेकर इंडिया टुडे और आउट लुक तक सभी देह व्यापार से अपना बाज़ार तलाश रहे हैं ...सवा अरब की आबादी से आक्रान्त देश में सेक्स एजूकेशन की बात होती है और जब सेक्स एजूकेशन की बात होगी तो सेक्स लेबोरेट्री में प्रेक्टिकल भी होंगे जरूर ....आज बच्चा घर से जब भी बाहर निकलता है तो उसे दूध से भरी कढाई नहीं  दिखती ...दिखती है तो काम वासना की अभिव्यक्ति  करती कोई तश्वीर, कोई फ़िल्मी पोस्टर ...और घर पर टीवी में नच बलिये जैसी कोई हरकत या सनसनी जैसा कोई भुतहा चेहरा ...और लडकीयाँ भी कामोद्दीपन में बढ़ चढ़ कर शामिल हैं ....घर पर माँ भी अपनी फौरवर्ड होती बेटी से यह नहीं पूछती कि इन अंग प्रदर्शित और रेखांकित करते कपड़ों में कुछ कर गुजरने की तमन्ना लिए तुम कहाँ जा रही हो ? गाँव में भेस /गाय /कुतिया को जब कहा  था कि वह "गर्म" है तो इसका आशय यह होता था कि उसकी कामेक्षा है आज शहर में लडकीयों के लिए इसी "गर्म" को "हॉट" कहा जाता है तो लडकी के लिए कॉम्पलिमेंट माना जाता है . लड़कियों के नाम "रति" हैं तो रति की परिणिति होगी ही . महान दार्शनिक राखी सामंत कहती है कि ---"Rape is surprise sex."  Facebook पर एक अन्य विदुषी रीना जैन लिखती हैं -- "Virginity is lack of opportunity." ...दूसरी और केंद्र सरकार का एक मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल यह बयान देता है कि -"बीबी जब पुरानी हो जाती है तब उसमें वह मजा नहीं रहता " ......इस प्रकार की घटनाओं में केवल अकेला पुरुष या अकेली स्त्री जिम्मेदार नहीं है बल्कि पूरा समाज सम्यकरूप से जिम्मेदार है ....दहेज़ ले कर शादी करते पुरुष वेश्याओं की निरंतर बढ़ती तादाद और स्त्री वेश्याओं की वश्व की सबसे बड़ी संख्या  बाला देश अब सीता,राधा,रुक्मणी ,गार्गी जीजा बाई ,लक्ष्मी बाई या गार्गी का देश नहीं यह देश "नच बलिये" का देश  है यहाँ अब शिवाजी,गोविन्द सिंह, तात्या टोपे,कान्होजी आंग्रे,टीपू सुलतान, भगत सिंह, सुभाष नायक नही होते यहाँ हैदर अली नायक नहीं होते यहाँ खली नायक होता है ...यहाँ सियाचिन पर मरने वाले सैनिक नायक नहीं होते हाई स्कूल फेल सचिन नायक होता है ...यहाँ शिवश्रोत्रम से अधिक गूंजता है "शीला की जवानी" ... ममता को नारी चरित्र की पराकाष्ठा मानने वाले देश में गली-गली "माँ न बनने का सामान बिक रहा है".... पहले वातावरण में गूंजता था "ॐ " और अब गूंजता है " कंडोम " ....निश्चय ही सामाजिक सुरक्षा का सामाजिक दायित्व निभाने में पुरुष असफल रहा है और संस्कारित करने के दायित्व में स्त्री असफल हो रही है ...सामाजिक मूल्यों की यह गिरानी इस असफलता की सनद है ...संसद से ले कर सड़क तक गाल बजाने से कुछ नहीं होगा कृपया अपनी अंतरात्मा बजाईये ." ------- राजीव चतुर्वेदी  

Saturday, December 15, 2012

राष्ट्र संरक्षण के लिए नहीं राष्ट्र भक्षण के लिए आरक्षण चाहिए

"इस सदी के दूसरे दशक के शुरुआती दौर में हम ठगे से खड़े हैं ...एक महास्वप्न का मध्यांतर है ....देश के संरक्षण के लिए किसी आरक्षण की जरूरत ही नहीं है यहाँ तो देश के भक्षण के लिए आराक्षण की मांग है ....आरक्षण का आशीर्वाद पा कर जैसे भष्मासुर शंकर के सिर पर हाथ रख कर उनको भष्म करने चल पडा हो ....क्रान्ति के लिए किसी आरक्षण की जरूरत नहीं होती ...देश की आज़ादी के लिए जान देने को किसी आरक्षण की जरूरत  नहीं होती ...गांधी, भगत सिंह ,आज़ाद, आंबेडकर , लाजपत राय, जय प्रकाश नारायण, लोहिया आदि सभी का जन्म गुलाम भारत में हुआ था और सभी ने मिल कर देश को आज़ाद करा दिया ...सभी ने अपने अपने रास्तों से अंग्रेजों पर चोट की और उसे देश से खदेड़ दिया . क्या कभी सोचा है कि आज़ादी के बाद भारत माता क्यों बाँझ हो गयी ? आज़ादी के बाद फिर एक अदद गांधी ...भगत सिंह ,आज़ाद, आंबेडकर, लाजपत राय, जय प्रकाश नारायण, लोहिया जैसे किसी नेता का जन्म नहीं हुआ,-- क्यों ? ....राजनीति गोलमाल कर मालामाल होने ...मलाई खाने की जगह हो गयी ...और हर उस जगह जहां देश का संरक्षण नही बल्कि भक्षण करना हो आरक्षण आसान किश्तों में लागू किया गया ...आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र हुए ...याद रहे आरक्षण का दाव कोंग्रेस का नहीं है यह गैर कोंग्रेसीयों का राजनीतिक दाव है ...मंडल कमीशन का गठन 1977 में हुआ था जब मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री, अटल बिहारी बाजपेई विदेश मंत्री, अडवानी -सूचना प्रसारण मंत्री और चरण सिंह गृह मंत्री थे ...मंडल कमीशन लागू हुआ तब वीपी सिंह प्रधान मंत्री थे जिनको भाजपा का बाहर से समर्थन था ...इस बार भी पदोन्नति में आरक्षण को भाजपा का समर्थन है ...कुल मिला कर प्रतिभा के कातिलों में भाजपा की भी समानुपातिक साझेदारी है ....सियाचिन पर राष्ट्र की चौकीदारी करने के लिए कोई क्यों नहीं माँगता आरक्षण ...नश्ल एक वैज्ञानिक तथ्य है इससे इनकार नहीं किया जा सकता ...आप अपने खेत में अच्छी नश्ल का बीज क्यों बोते हैं ?...आप अपने घर पर अच्छी नश्ल का कुत्ता क्यों पालते हैं ? अच्छी नश्ल का घोड़ा ,बैल, गाय ,भैंस क्यों पालते हैं ? ...घर का वृहद् स्वरुप ही तो राष्ट्र है तो फिर राष्ट्र को भी उपयोगी कर्मचारी /जनसेवक अच्छी नश्ल के ही पालने होंगे जिसके चयन के लिए जरूरी है स्वतंत्र प्रतियोगिता फिर आरक्षण क्यों ?... आप सुनना चाहते हैं अच्छी आवाज़ ...आप सूंघना चाहते हैं अच्छी सुगंध ...आप खरीदना चाहते हैं अच्छी कार ...अच्छा मकान ...कपडे ...दवा कल को कोई सिरफिरा चिलायेगा सांस में ओक्सीज़ं के अलावा कार्बन डाईओक्साइड का भी आरक्षण हो ...घुडदोड़ में भैसे का आरक्षण हो ...खरगोश को हनुमान चालीसा पढ़ा कर शेर से लड़ा दो हो जाएगा सामाजिक न्याय . --- कुल मिला कर देश के लिए जान देने के लिए आरक्षण की मांग नहीं है यहाँ तो देश की जान लेलेने को आरक्षण माँगा जा रहा है ...राष्ट्र संरक्षण के लिए नहीं राष्ट्र भक्षण के लिए आरक्षण चाहिए ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, December 11, 2012

अरे डॉक्टर यह दिल है मेरा

"अरे डॉक्टर यह दिल है मेरा
वह और होंगे जिनका दिल मशीन होता है
मेरा दिल लोगों के हंसने पर हंसता है
लोगों के रोने पर रोता है
स्नेह से देख ले कोई तो इसमें भी कुछ-कुछ होता है
इसमें करुणा है श्रृंगार है
इसमें जीने की चाहत का अधिकार है
इसमें खो गए सपने हैं
इसमें रो रहे अपने हैं
इसमें देश का सपना है
इसमें एक भीड़ है उसमें एक चेहरा निहायत अपना है
इसमें कुछ चहक है
खून सूंघो उसमें भी कुछ महक है
खून का ग्रुप तुम्हारी स्वार्थी लेबोरेट्री नहीं जांच सकती
मेरे खून का ग्रुप राष्ट्र पोजेटिव है
तुम तो डॉक्टर हो कमीसन खा कर दवा बेचते हो
पैसा लेकर ही दुआ बेचते हो
स्वार्थी हो इस लिए तुम्हारी अर्थी का भी मेरे लिए कोइ अर्थ नहीं
वह व्यर्थ है
मैं होश में तुम्हारे यहाँ नहीं आता
बेहोशी में मुझे लोग यहाँ ले आये होंगे
मत देखो मेरा इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम
मेरे दिल को समझना हो तो मेरी कविता पढ़ लेना
मैं वही लिखता हूँ जो जीता हूँ
तुम स्वार्थी हो मैं तुम्हारे अस्पताल से जाना चाहूंगा
गलती से आ गया ... या ले आया गया ...तब होश में नहीं था
तुम स्वार्थी हो मैं तुम्हारे अस्पताल से जाना चाहूंगा
अगर यह दुनिया भी तुम्हारे जैसी है तो मैं उससे भी जाना चाहूंगा
गलती से आ गया ... या ले आया गया ...तब होश में नहीं था
अरे डॉक्टर यह दिल है मेरा
वह और होंगे जिनका दिल मशीन होता है
मेरा दिल लोगों के हंसने पर हंसता है
लोगों के रोने पर रोता है ." -----राजीव चतुर्वेदी

Monday, December 10, 2012

राजनीतिक दल अब दुकान बन चुके हैं और देश बिक रहा है

"राजनीतिक दल अब दुकान बन चुके हैं और देश बिक रहा है. वह दिन दूर नहीं कि जब देश और प्रदेश के मुख्यालयों में ही नहीं मौल में भी इनकी दुकाने खुल जायेंगी . अभी तो वॉल मार्ट ने देश की राजनीति खरीदी है कल वॉल मार्ट से देश की राजनीति बिकेगी भी . इन कॉरपोरेट सेक्टर और केरेक्टर के जरखरीद गुलामों की गुणवत्ता तो देखिये --- देश की राजनीति में अचानक आढतीयेनुमा नेता जिस तरीके से अच्छादित हो रहे हैं उस से लगता है कि अब राजनीति एक मुनाफे का कारोबार बन चुका है .नितिन गडकारी गल्ला मंदी के साक्षात् आढतीये लगते हैं ...अमर सिंह अब नहीं रहे राजनीतिक पुनर्जन्म की कोशिश में हैं ...अहमद पटेल और राजीव शुक्ला अपनी दम पर कहीं से सभासद भी नहीं हो सकते सो आज बड़े नेता भारतीय राजनीति के चमगादड़ों की बस्ती सूर्य ही नहीं प्रकाश के अन्य श्रोतों के विरुद्ध भी लामबंद हो चुकी है और परिणाम स्वरुप अँधेरा है जो किसी भी चोर के लिए अनुकूल वातावरण है, इसी लिए भारतीय राजनीती में चोरों के गिरोह सक्रीय हैं. जन नेता हाशिये पर चले गए हैं. चन्द्र शेखर मुश्किल से साढ़े चार माह ही प्रधान मंत्री रह पाए. अटल बिहारी बाजपेयी भी समुचित अवसर नहीं पा पाए  किन्तु अपनी दम पर कहीं से सभासद भी न हो सकने के काबिल मन मोहन सिंह गुजरे आठ साल से प्रधानमंत्री है. दस बार के सांसद सोमनाथ चटर्जी कहाँ हैं ? संगमा कहाँ लुप्त हो गए ? बिहार की राजनीति में देवेन्द्र प्रसाद यादव आज कहाँ हैं ? कोंग्रेस में मन मोहन सिंह नेता हैं और हर जमीनी नेता पर भारी हैं. भाजपा में नितिन गडकारी, किरीट सोमिया जैसे आढतीयेनुमा नेता राष्ट्रीय चेहरा हैं या फिर अरुण जेटली जैसे चोकलेटी व्यक्तित्व हैं, जन नेता कहाँ हैं ?...कहाँ गुम हो गए गोविन्दाचार्य ? कहाँ हैं उमा भारती ? भाजपा का एक मात्र राष्ट्रव्यापी विश्वसनीयता रखने वाला नेता नरेंद्र मोदी भाजपा के ही नेताओं द्वारा राष्ट्रीय राजनीति में नहीं प्रस्तुत किया जा रहा. वाम पंथी पार्टियों का हाल भी बेहाल है. एबी वर्धन दशकों से विधायक ही नहीं हो पा रहे सो सीपीआई के राष्ट्रीय नेता हैं. दूसरे बड़े नेता हैं अतुल अनजान जो वास्तव में संसद तो दूर विधान सभा भी दूर सभासदी से भी अनजान हैं वह राष्ट्रीय राजनीती पर अपनी पार्टी का मार्ग निर्देशन कर रहे हैं सो सीपीआई का हाल जग जाहिर है. सीपीएम के नेता है प्रकाश कारंत उनकी वायु सुन्दरी एयर होस्टेस बीबी वृंदा कारंत और सीता राम येचुरी...इन कारंतों और येचुरी पर कहाँ कितना वोट है सभी जानते हैं ...इनकी औकात भी नहीं है कि कहीं से लोकसभा का चुनाव भी लड़लें सो राज्यसभा में घुस कर राज्य कर रहे हैं यह है इनके जनवाद का अवसरवादी सच. जन नेताओं के प्रभाव को नकार कर चमचों को राजनीतिक दलों ने अपना नेता बना लिया है परिणाम राजनीति पराक्रम की नहीं परिक्रमा की चीज हो गयी है...राजनीती व्यवस्था परिवर्तन का उपकरण न होकर व्यवसाय परिवर्तन का उपक्रम हो चुकी है...राजनीति संघर्ष का आगाज नहीं करती अब राजनीति आरामगाह बन चुकी है. राजनीति का कोर्पोरेट केरेक्टर हो चुका है परिणाम सामने है देखें --राजनीतिक दल कहाँ हैं दुकाने हैं ...फार्म हैं और उस पर आढतीयेनुमा नेता दुकानदारी कर रहें हैं. पार्टियों पर गौर करें --कोंग्रेस कहाँ है ? वहां तो सोनियां एंड सन प्राइवेट लिमिटेड है. समाज वादी पार्टी के एक महान नेता और समाजवाद के फुटकर विक्रेता अमर सिंह नहीं रहे तो क्या हुआ फिर से दूकान खुल गयी है आ ही जायेंगे आखिर देह से ले कर देश तक बड़ी मुस्तैदी से बेचते हैं. समाजवादी पार्टी के नाम पर दो फार्म चल रही हैं ---मुलायम सिंह एण्ड सन्स प्राइवेट लिमिटेड तथा मुलायम सिंह एण्ड ब्रदर्स प्राइवेट लिमिटेड. जय ललिता, करुणानिधी, ममता बनर्जी, चौटाला, अजीत सिंह, शरद पवार, बाल ठाकरे, राज ठाकरे, लालू , पासवान, चन्द्र बाबू नायडू, नवीन पटनायक, फारुख अब्दुल्ला और उनके लल्ला सभी की अपनी-अपनी प्रोप्राइटरशिप फार्म हैं. अब बताईये राजनीति कहाँ हो रही है दूकान लगीं हैं और देश बिक रहा है." ----राजीव चतुर्वेदी

विश्व मानवाधिकार दिवस है ...इस रस्म की भस्म आज जगह -जगह गोष्ठी -सैमीनार में चाटी जायेगी


"आज विश्व मानवाधिकार दिवस है ...इस रस्म की भस्म आज जगह -जगह गोष्ठी -सैमीनार में चाटी जायेगी ...वैसे भी मानवाधिकार की दुकान चला कर कई NGO मोटे हो गए हैं ...हम कब तक बाजे सा अपनी अंतरआत्मा को बजाते रहेंगे ? ...गाँव के टाट -पट्टी वाले स्कूल और  शहर के अभिजात्य पब्लिक स्कूलों के बीच सामान शिक्षा का नारा मुंह बाए खडा है ...भूख भयावह हो चुकी है ...गरीबी की रेखा की अवधारणा तो है पर परिभाषा नदारद है ...न्याय बिकाऊ माल है पर टिकाऊ नहीं ...एक अदालत का फैसला दूसरी अदालत पलट देती है और तीसरी अदालत में उम्र बीत जाती है . पेशकार पैरोकारी के नाम से जो पैसा लेता है उस से तो मेम साहब तरकारी मंगवाती हैं बाकी वफादारी करने के लिए उसको और भी मैच फिक्सिंग करनी पड़ती है ... दहेज़ ले कर शादी करने वाली पुरुष वेश्याओं की भीड़ है ...यह हरामखोर दहेज़खोर उस पुलिस में दरोगा / क्षेत्राधिकारी होते है जो दहेज़ उत्पीडन/ हत्याओं की जांच करती है और एक दहेज़खोर जज उस पर कथित इन्साफ करता है ...भला यह दहेज़खोर हरामखोर किस नैतिक अधिकार से दहेज़ के विवादों में दखल देते हैं ? --- इस वर्ष अब तक देश में 87 हजार से अधिक दहेज़ हत्याएं हो चुकी हैं ...घरेलू हिंसा की बात कुछ महिलाओं ने उठाई जरूर पर उनका जमीर साफ़ नहीं था वह चिल्ल -पों करती थीं कि उनको पति से पिटना पड़ता है ...बात दुखद है पर अधूरी ...अगर घरेलू हिंसा गलत है तो निश्चय ही पति द्वारा पत्नी को पीता जाना भी गलत है और पति -पत्नी दोनों के द्वारा बच्चों को पीटा जाना भी गलत है ...पर घरेलू हिंसा के नाम पर पिट रहे बच्चों की वेदना कोई नहीं सुनता क्योंकि उनका कोई वोट बेंक नहीं है ....बाल मजदूर आज भी मजबूर हैं ...असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का कोई संगठन ही नहीं ....विश्व की हर सातवीं बाल वैश्या भारत की बेटी है ...रोशनी ,रास्ते ,राशन और रोजगार पर शहरों का कब्जा है ...कृषि प्रधान देश में कृषि अब घाटे का व्यवसाय हो गया है . कृषि उत्पाद का मूल्य तभी बढ़ता है जब वह खलिहान से आढ़तिये के गोदाम में पहुँच जाता है ...और, ...और ...एक बात कहूँ ? ----हिजड़ों के मानवाधिकार की बात कोई क्यों नहीं करता ? ---इसीलिए न क्योंकि उनका कोई वोट बेंक नहीं है दूसरे नंबर के बहुसंख्यक यानी मुसलमानों को भी अल्पसंख्यक इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनका वोट बैंक है और वास्तविक अल्प संख्यक पारसीयों का कोई वोट बैंक नहीं ...और इस पूरे परिदृश्य को संदेहास्पद तथा अविस्वस्नीय बना दिया है उन मानवाधिकार संगठनों ने जो मानवाधिकारों की केवल इस्लामिक या नक्सली आतंकियों के लिए ही लड़ते है उनके द्वारा मारे गए लोगों के लिए नहीं परिणाम कि आज मानवाधिकार की लड़ाई "दानवाधिकार की लड़ाई में बदल गयी है ...पर याद रहे अभी मासूमियत के गालों पर आंसू सूखे नहीं है और मानवाधिकार के सवाल भी अभी नम हैं सूखे नहीं हैं ... हर तहरीर में तश्वीर देखो इस तरक्की की ." ------ राजीव चतुर्वेदी

Sunday, December 9, 2012

हमारे तुम्हारे दरमियाँ एक दूरी थी



"हमारे तुम्हारे दरमियाँ एक दूरी थी
मकसद बड़ा था मगर कद छोटा था हमारा
उस दूरी को न नाप पाने की मजबूरी थी
हमें मिलने से रोक सकता था ज़माना
कुछ ख्वाहिशें थीं पर बीच में गुरूरों की खाई गहरी थी 
पर घुल -घुल कर हम हवाओं में घुल चुके थे
प्यार की खुशबू हर खाई खलिश की लांघ जाती है
उस और से आती हवा मेरे आँचल पे ठहरी थी ."
----- राजीव चतुर्वेदी

आओ पाखण्ड -पाखण्ड खेलें

"आओ पाखण्ड -पाखण्ड खेलें
 वामपंथी पाखंडों का भी मंतव्य एक है, गंतव्य अलग
दक्षिण पंथी पाखण्ड परिक्रमा में बहुत हैं पराक्रम में नहीं
सेक्यूलर कुछ -कुछ सूअर से मिलता हुआ शब्द है जो सर्व भोजन समभाव लेता है
सेक्यूलर वैचारिक खतना कराये हुए बुद्धिखोर होते हैं
सेक्यूलरों की सृष्टि सही पर दृष्टि कानी होती है
बेईमानी के सभी सिद्धांतों में इनकी मनमानी होती है  
सेक्यूलरों को जम्मू -कश्मीर में हिन्दुओं का पलायन नहीं दीखता
गोधरा की जलती ट्रेन में भूनते हुए हिन्दू तीर्थ यात्री नहीं दीखते
पर प्रति हिंसा प्रति पल दिखने का छल जारी है --यही इनकी गद्दारी है
एक सफल वैश्या व्यावसायिक कर्तव्य-निष्ठा से सेक्यूलर होती है  
हिन्दुओं के पाखण्ड अखंड हैं और प्रचण्ड भी
जिसने महान सभ्यता की पेंदी में छेड़ किया है
 ईसाईयों के पाखण्ड सेव खा कर पैदा हुए हैं
और ईसा  को हर साल सूली पर टांग कर जश्न मना रहे हैं
गैलीलियो की ह्त्या पर पछताने में उनको एक हजार साल से ज्यादा लग गए
यद्यपि ईसाई समय के पावंद होते हैं  
मुसलमानों के पाखण्ड इस शान्ति प्रेमी सभ्यता से मत पूछिए
जब यह हिंसा करें तो "हिंसा हलाल है"
पर जब कोई इनके ऊपर हिंसा करे तो मलाल है
यह इजराइल से गुजरात तक जब भी पिटते है तो शान्ति प्रेमी हो जाते है
वैसे गोधरा काण्ड करते में इनको
शान्ति की याद वैसे ही नहीं आयी जैसे अयसा के प्रति आज तक संवेदना
इस कौम में कर्बला का खलनायक सूफियान आज भी हर मोहल्ले में पाया जाता है
यह माना कि यह कर्बला से आज तक ग़मगीन हैं
पर आज भी इनके यहाँ यजीद और मोबीन हैं ." 
----- राजीव चतुर्वेदी    

आओ पाखण्ड -पाखण्ड खेलें

"आओ पाखण्ड -पाखण्ड खेलें
 वामपंथी पाखंडों का भी मंतव्य एक है, गंतव्य अलग
दक्षिण पंथी पाखण्ड परिक्रमा में बहुत हैं पराक्रम में नहीं
सेक्यूलर कुछ -कुछ सूअर से मिलता हुआ शब्द है जो सर्व भोजन समभाव लेता है
सेक्यूलर वैचारिक खतना कराये हुए बुद्धिखोर होते हैं
सेक्यूलरों की सृष्टि सही पर दृष्टि कानी होती है
बेईमानी के सभी सिद्धांतों में इनकी मनमानी होती है  
सेक्यूलरों को जम्मू -कश्मीर में हिन्दुओं का पलायन नहीं दीखता
गोधरा की जलती ट्रेन में भूनते हुए हिन्दू तीर्थ यात्री नहीं दीखते
पर प्रति हिंसा प्रति पल दिखने का छल जारी है --यही इनकी गद्दारी है
एक सफल वैश्या व्यावसायिक कर्तव्य-निष्ठा से सेक्यूलर होती है  
हिन्दुओं के पाखण्ड अखंड हैं और प्रचण्ड भी
जिसने महान सभ्यता की पेंदी में छेड़ किया है
 ईसाईयों के पाखण्ड सेव खा कर पैदा हुए हैं
और ईसा  को हर साल सूली पर टांग कर जश्न मना रहे हैं
गैलीलियो की ह्त्या पर पछताने में उनको एक हजार साल से ज्यादा लग गए
यद्यपि ईसाई समय के पावंद होते हैं  
मुसलमानों के पाखण्ड इस शान्ति प्रेमी सभ्यता से मत पूछिए
जब यह हिंसा करें तो "हिंसा हलाल है"
पर जब कोई इनके ऊपर हिंसा करे तो मलाल है
यह इजराइल से गुजरात तक जब भी पिटते है तो शान्ति प्रेमी हो जाते है
वैसे गोधरा काण्ड करते में इनको
शान्ति की याद वैसे ही नहीं आयी जैसे अयसा के प्रति आज तक संवेदना
इस कौम में कर्बला का खलनायक सूफियान आज भी हर मोहल्ले में पाया जाता है
यह माना कि यह कर्बला से आज तक ग़मगीन हैं
पर आज भी इनके यहाँ यजीद और मोबीन हैं ." 
----- राजीव चतुर्वेदी    

Saturday, December 8, 2012

वह कसमों सा आया और रस्मों सा चला गया

"वह कसमों सा आया और रस्मों सा चला गया ,
मैं पेड़ों सी खडी रही
वह हवा सा गुज़र गया
हिला गया बदन मेरा
खिला गया वह मन मेरा
वह गुज़र गया तो पता चला
मुझे गुजारिशों पे गुरूर था .
" ---- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 6, 2012

साम्प्रदायिकता को कानी आँख से देखने की कवायद न करें


"हिन्दू और मुसलमान भारत में यह दो अलग-अलग राष्ट्र विकसित हो रहे हैं --- यह खतरनाक है . पाकिस्तान के इशारे पर प्रथकतावादी यही चाहते हैं . एक समय था जब सुबह रेडिओ पर मुहम्मद रफ़ी का गाया --"...मन तडपत हरि दर्शन को ..." गूंजता था तो लता गाती थीं --"...अल्लाह तेरो नाम ...दाता तेरो नाम ..." यह भी हो सकता है कि यह उनकी व्यावसायिक विवशता रही हो . आज दोनों तरफ की साम्प्रदायिकता सत्य और न्याय को कानी आँख से देख रही है ---ज़रा गौर करें ---बाबरी मस्जिद की शहादत पर हर साल छाती पीटने वाले मुसलमान यह तो मानते हैं कि बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना गलत था पर क्या यह बताएँगे कि जब औरंगजेब के जमाने से जब हिन्दुओं के मंदिर तोड़े जा रहे थे तब तुम्हारी इन्साफ पसंदी कहाँ थी ? हिन्दुओं के छः हजार से अधिक मंदिर तोड़े गए और मुसलमानों की तरफ से इन्साफ पसंदी की तब से अब तक एक भी आवाज नहीं फूटी ....देश में एक मात्र जम्मू -कश्मीर वह राज्य है जो सदैव मुसलमान शासित रहता है वहां गुजरे एक दशक में 200 से अधिक मंदिर तोड़ दिए गए पर जब हिन्दुओं के मंदिर तोड़े जाते हैं तो मुसलमानों की तरफ से शातिराना चुप्पी है .अगर पूजाघर /इबादतगाह तोड़ना गलत है तो जो गलती औरंगजेब के जमाने से आज तक मुसलमान जारी किये हुए हैं और शातिराना चुप्पी साधे हैं वही काम जब एक बार हिन्दुओं ने बाबरी मस्जिद पर कर दिया तो वह गुनाह है और बीस साल से छाती पीट रहे हैं, ---क्या यह न्याय संगत है ? दूसरे, सभी जानते हैं कि मोबीन से लेकर सूफियान की राज सत्ता के रहते मुहम्मद साहब कभी मक्का में प्रवेश ही नहीं कर सके और अपने आख़िरी दौर में उन्होंने अपनी प्राण रक्षा के लिए भारत में शरण ली थी जहाँ उन्होंने जम्मू-कश्मीर जा कर अखरोट की लकड़ी से भव्य मस्जिद बनाई . चूंकि वह मुक़द्दस मस्जिद स्वयं मुहम्मद साहब ने बनाई थी अतः मुसलमानों के एक तीर्थ की तरह वह चरार-ए-शरीफ नामक मस्जिद जानी जाने लगी . जिसे उसी कालखंड में एक मुसलमान आतंकी मस्तगुल ने जला कर राख कर दिया कि जिस कालखंड में बाबरी मस्जिद ढहाई गयी . यानी बात साफ़ है कि चरार -ए -शरीफ जैसी स्वयं मुहम्मद साहब की बनाई मस्जिद को अगर कोई पाकिस्तानी मुसलमान जला कर राख कर दे तो कोई बात नहीं ...देश में मुहम्मद साहब की आख़िरी निशानी नहीं रही तो कोई बात नहीं पर बाबरी मस्जिद पर छाती पीटना नहीं भूलेंगे .राम और कृष्ण दोनों की जन्म स्थली पर मुग़ल आक्रमणकारीयों ने मस्जिद बनाई . मुहम्मद साहब की बनाई मस्जिद चरार -ए -शरीफ का कोइ दर्द नहीं ? जम्मू-कश्मीर आज़ादी से अब तक मुसलमान शासित राज्य है वहां हिन्दू कितना सुरक्षित है यह कभी सोचा है उन कट्टरपंथी मुसलमानों ने जहां से लाखों कश्मीरी पंडित दो दशकों से पलायन कर रहे हैं ? जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं को अपने तीर्थ अमरनाथ यात्रा करने पर हर साल क़त्ल -ए -आम का शिकार होना पड़ रहा है क्या यह जम्मू -कश्मीर का नज़ारा इन कानी आँख से सेक्यूलर सत्य देखते लोगों को दिखाई नहीं देता ? यह लोग जम्मू-कश्मीर नहीं देखते पर गुजरात देखते हैं  ...वही गुजरात जहां महाराष्ट्र से पलायन करके शाहीन और उसका परिवार जा बसा है और महफूज़ महसूस कर रहा है ...गुजरात के दंगों की तो सुनियोजित शातिराना शैली में बातें करेंगे पर क्या यह बताएँगे कि गुजरात के दंगे क्यों शुरू हुए ? गोधरा में हिन्दू तीर्थ यात्रियों से भरी ट्रेन जला कर तीर्थ यात्रियों को ज़िंदा जला डालने का गुनाह और उस पर अब तक की शातिराना चुप्पी साम्प्रदायिकता को कानी आँख से देखना ही है,--- इससे बाज आयें ...अब बहुत हो चुका ...शान्ति से रहने की कोशिश करें एक -दूसरे के जख्म न कुरेदें ...हिन्दू भी शौर्य दिवस मनाने से बाज आयें क्योंकि  अगर अपनी सरकार में बाबरी मस्जिद ढहा देना शौर्य था तो औरंगजेब तुमसे बड़ा सूरमा था जिसने अपनी सरकार में 6000 से अधिक मंदिर ढहाए ...फारुख अब्दुला /शेख अब्दुला भी 200 से अधिक मंदिर ढहा कर शौर्य से सरकार चला रहे हैं और मस्त गुल ने भी चरार -ए -शरीफ जला कर राख कर दी थी क्या वह "शौर्य" था या शातिर की करतूत ? लाखों हिन्दू लोग अमन और वतन के लिए बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर मुसलमानों के जज्वात के साथ हैं पर गोधरा काण्ड की निंदा करती एक आवाज़ भी मुसलमानों के मुँह से आज तक नहीं फूटी क्यों ? जम्मू-कश्मीर में 200 से अधिक मंदिर तोड़े जाने पर अभी तक देश में क्या है कोई अमन पसंद मुसलमान है जो बोले ? साम्प्रदायिकता को कानी आँख से देखने की कवायद न करें ." -----राजीव चतुर्वेदी


Wednesday, December 5, 2012

आओ हम दुःख की रजाई ओढ़ कर सो जाएँ धीरे से

"आओ हम दुःख की रजाई ओढ़ कर सो जाएँ धीरे से
और मैं तुमसे ये पूछूं -- " खुश तो हो ? "
सर्द हैं आहें,    हवाएं खौफ से खामोश हैं
सहमे से मकानों की टूटी खिड़कियों से आती चांदनी चर्चा करेगी
हरारत की इबारत दर्ज हो जब सांस में तेरी
जरूरत का जनाजा सुबह सपने ओढ़ कर
उस चौखट को जब लांघेगा जहाँ दरवाजे अब गुमशुदा हैं
सहम के पूछती है रात -- "सफ़र लंबा है तेरा ?"
आओ हम दुःख की रजाई ओढ़ कर सो जाएँ धीरे से
और मैं तुमसे ये पूछूं खुश तो हो ?"     ---- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, December 4, 2012

पैसे के आते ही भाषाएँ बदल जाती हैं रातों-रात

"मेरी चीख
तुम नहीं सुनोगे
अब तुम तक नहीं पहुंचेगी मेरी कोई आवाज़
पैसे के आते ही भाषाएँ बदल जाती हैं रातों-रात
मैं वही हूँ
बदला नहीं हूँ
तुम्हारी गुड मोर्निंग के जवाब में कहूंगा शुभ प्रभात .
"---- राजीव चतुर्वेदी

लोकतंत्र के इस पड़ाव पर

"आज प्रभावों से पस्त
और अभावों से ग्रस्त एक बस्ती में
दो औरतें नल के पानी की चाहत में
नितांत संसदीय भाषा में संसद -संसद खेल रही थी
न नल में पानी था न सरकार की आँख में पानी था
राशन भाषण अनुशासन के अनुच्छेद आकार ले रहे
शब्दकोष में गाली थी जो
मतभेदों की मतवाली भाषा अब मदान्ध महसूस हो रही
ऐसे त्रासद दौर में जीती मतदाताओं की पूरी पीढी
मूलभूत आवश्यकता की चाहत में घोर यंत्रणा झेल रही थी

एक तरफ राशन के रस्ते
और वहां भाषण गुलदस्ते
जनता को विश्वास बहुत था
वोट वहां मिलते थे सस्ते
नेताओं की दूसरी पीढी जनता के विश्वास से देखो खेल रही है
जनता का बेटा जनता है
नेता का बेटा नेता है
जन्मजात जनतंत्र सीखती
घोटाले का मन्त्र सीखती
गुंडों का अंब तंत्र सीखती
शातिर सी मंशा लेकर भी सभ्य दीखती
सत्ता की सीढ़ी पर चढ़ती नेताओं की नाकाबिल पीढी
लोकतंत्र के इस पड़ाव पर
जनादेश का नया खिलोना खेल रही है ."
---- राजीव चतुर्वेदी

भारत में वैश्या वृत्ति भी है और प्रवृत्ति भी


" भारत में वैश्या वृत्ति भी है और प्रवृत्ति भी यहाँ दो प्रकार का देह व्यापार हो रहा है एक तो दहेज़ के नाम पर देह व्यापार जिसमें पुरुष वेश्याएं अपनी देह बेच रही हैं और दूसरे प्रकार का देह व्यापार कि जिसमें नारी देह सामान की तरह खरीदने का अपमान है। पहले पुरुष वेश्याओं की बात हैं .---- दहेज़ निश्चय ही "देह व्यापार " है और दहेज़ ले कर शादी करनेवाले दूल्हे / पति "पुरुष वैश्या". दहेज़ वैश्यावृत्ति है और दहेज़ की शादी से उत्पन्न संताने वैश्या संतति. याद रहे वैश्या की संताने कभी क्रांति नहीं करती तबले सारंगी ही बजाती हैं .लेकिन ताली दोनों हाथ से बज रही है. जब तक सपनो के राजकुमार कार पर आएंगे पैदल या साइकिल पर नहीं तब तक दहेज़ विनिमय होगा ही . जबतक लड़कीवाले लड़के के बाप के बंगले कार पर नज़र रखेंगे तब तक लड़केवाले भी लड़कीवालों के धन पर नज़र डालेगे ही. इस तरह की वैश्यावृत्ति से आक्रान्त समाज में अब लडकीयाँ अपने थके हुए माँ -बाप की गाढ़ी कमाई पुरुष देह को अपने लिए खरीदने के लिए खर्च करने को मौन /मुखर स्वीकृति देती हैं ...यदि स्वीकृति नहीं भी हो तो विरोध तो नहीं ही करती हैं। लडकीयाँ दहेज़ से लड़ना ही नहीं चाह रहीं। सुविधा की चाह उन्हें संघर्ष की राह से बहुत दूर ले आई है। देश में दूसरे तरह का देह व्यापार स्त्री देह व्यापार है। जिस देश में साल में दो बार नौ -नौ दिन नौ देवी जैसे पर्व मनाये जाते हों ...अस्य नार्यन्ती पूज्यन्ते जैसे जुमले गुनगुनाये जाते हों गार्गी, सीता, यशोदा, अन्नपूर्णा, सरस्वती के संस्कारों की विराशत के देश में आज भी विश्व के सबसे बड़े देह व्यापार के बाजार हैं वह भी वहां जहां दुर्गा पूजा की दीवानगी है यानी कलकत्ता जी हाँ में कोलकाता के सोना गाछी और बहू बाज़ार नामक रेड लाईट एरिया की बात कर रहा हूँ। विडंबना यह कि मानवाधिकार के लिए छाती पीटने के आदी वामपंथी यहाँ तीस साल राज्य कर के गुजर गए और अब एक महिला ममता का राज्य है। क्या आपको पता है कि विश्व की हर सातवीं बाल वैश्या भारत की बेटी है। देश में सुबोध लडकीयाँ मुम्बई -दिल्ली जैसे शहरों में खुलेआम आपने आपको विभिन्न बहानो और आवरणों में बेच रही हैं और अबोध गरीब लडकीयाँ खुले-आम खरीदी-बेची जा रही हैं। कभी अरबी शेख से शादी के नाम पर कभी शादी के नाम पर और अक्सर "गायब हो गयी" के नाम पर लडकीयाँ देह बाज़ार में भेजी जा रही हैं। फिल्म "तलाश" में करीना का एक संवाद है----" वेश्यावृति अपराध है साहब हमरे देश में, जो अपराध करता है वो खुद अपनी गिनती कैसे करवाए? और जिसकी गिनती नहीं वो अपने गायब होने की रिपोर्ट कैसे कराये? हजारो लडकिया ऐसे ही गायब हो जाती है साहब और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।" कुल मिला कर भारत में सामाजिक संस्तुति से होता पुरुष वेश्याओं का देह व्यापार यानी "दहेज़" और स्त्री वेश्याओं की बढ़ती संख्या इस राष्ट्र को कलंक की कगार पर ले आये हैं। ऐसे में क्रान्ति की संभावना कोई नहीं क्योंकि याद रहे --वैश्या संताने क्रांति नहीं करती,...नाच बलिये करते हैं तबले-सारंगी ही बजाते हैं।"-- राजीव चतुर्वेदी

Monday, December 3, 2012

आम आदमी को "आम" की तरह ख़ास आदमी चूसता रहा है

"आम आदमी को "आम" की तरह ख़ास आदमी चूसता रहा है ...मुग़ल कालीन जुमला है "कत्ले आम" यानी यहाँ भी आम आदमी का ही क़त्ल होता था ...अंग्रेजों के समय भी आम आदमी ही गुलाम था ...नेहरू से मनमोहन तक भी आम आदमी की खैर नहीं रही ...रोबर्ट्स बढेरा को भी बनाना रिपब्लिक घोटाले की डकार लेते हुए मेंगो रिपब्लिक लगने लगा कार्टून की दुनिया में आर के लक्ष्मण के "आम आदमी" की हैसियत काक के कार्टूनों में भी नहीं बदली ...आम आदमी पर वामपंथी कविता सुनते ख़ास आदमी ने भी द्वंदात्मक भौतिकवाद दनादन बघारा ...आम आदमी की चिंता में संसद के ख़ास आदमी अक्सर खाँसते हैं ...अब केजरीवाल को भी आम आदमी को आम की तरह चूसना है ...अरे भाई आम आदमी वह है जिसे केरोसीन के तेल का मोल पता हो ...राशन की दूकान की कतार में कातर सा खडा हो ...आलू की कीमत से जो आहात होता हो ...जो बच्चों के साथ खिलोनो की दूकान से कतरा कर निकलता हो ...जो बच्चों को समझाता हो कार बालों को डाईबिटीज़ हो जाती है क्योंकि वह पैदल नहीं चलते ...आम आदमी अंगरेजी नहीं बोलता ...आम आदमी के बच्चे मुनिस्पिल स्कूल में पढ़ते है। वहां टाट -पट्टी पर बैठ कर इमला लिखते हैं ...वह जब कभी रोडवेज़ बस से चलता है ...उसका इनकम टेक्स से उसका कोई वास्ता नहीं होता किन्तु वह इनकम टेक्स अधिकारी से भी उतना ही डरता है जितना और सभी घूसखोर अधिकारियों से डरता है क्योंकि घूस देने पर उसके सपनो का एक कोना तो टूट ही जाता है ...आम आदमी देश की मिट्टी से जुडा होता है वह खेत की मिट्टी देख कर बता देता है कि यह बलुअर है या दोमट ...आम आदमी मिट्टी देख कर बता देता है इस मिट्टी में कौन सी फसल होगी बिलकुल वैसे ही जैसे कोई केजरीवाल बताता हो इस मिट्टी में कौन सा वोट उगेगा ?" --- राजीव चतुर्वेदी

Friday, November 30, 2012

यहाँ राष्ट्र के भक्षण के हर अवसर पर आरक्षण है

"मैं चाहता था कि राष्ट्र योग्य हाथों में हो
पर तेतीस प्रतिशत दलितों का कोटा है
सताईस प्रतिशत पिछड़ों का कोटा है
आबादी के हिसाब से तो पारसी जैन और सिख ही असली अल्पसंख्यक हैं पर
बरबादी करने की क्षमता से दूसरे नंबर के बहुसंख्यक
मुसलमानों को भी
अल्पसंख्यक मान लिया जाए

यह तो गिनती थी बौद्धिक विकलांगों की
यद्यपि शरीर में बुद्धि भी शामिल है
पर यह सिद्दांत भी न्याय की बात करता है अतः उनपर लागू नहीं होता
अभी बुद्धि के अलावा शेष शारीरिक विकलांग शेष हैं
द्रोणाचार्य और एकलव्य के प्रति हर प्राश्चित का प्रतिशत है
हर भक्षण करने वाले को संरक्षण है
परभक्षी को आरक्षण है
सत्ता वंशानुगत है
पदोन्नति क्रमानुगत है
नौकरी जुगत है
योग्यता गतानुगत है
बुद्धि विगत है
हम अच्छी नश्ल के गाय भेस कुत्ते घोड़े पालते हैं पर आदमी नहीं
याद रहे हर विशेषण शोषण का समानुपातिक हक़ होता है
यहाँ राष्ट्र के भक्षण के हर अवसर पर आरक्षण है ."
----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, November 29, 2012

शायद उनकी नज़रों में मैं पाकीज़ा नहीं

"मैं मेहनत करती हूँ
मेरी आत्मा में खरोंचें हैं
पैरों में विबाईयाँ
शायद उनकी नज़रों में मैं पाकीज़ा नहीं
कि लोग मुझसे भी कहें --
आपके पाँव बहुत सुन्दर हैं
इन्हें जमीन पर मत रखना ."
----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, November 27, 2012

विदा होती हूँ मैं ...


"रात की तन्हाई में नदी में डूबती कश्ती देखी कभी तुमने ?
मेरी आँखों में जलते चरागों में डूबती है रात खाली हाथ   
ख्वाब है कोई नहीं अब उस हकीकत का
जो लोक लाजों के भय से दफ्न है दिल में मेरे
यह हकीकत है कि इक बरात मेरे घर पे आयेगी मुझे लेने
जो सच था वह अफ़साना मुझे अफ़सोस देता है
आंसुओं को पी यहाँ मुस्का रही हूँ मैं
और हकीकत यह भी है कि देह मेरी दे दी गयी है
फ़साना छोड़ दो यह फैसला पापा का है मेरी शादी का
मैं जाती हूँ देह रख लो
सहेज कर दहेज़ रख लो
यह घर मेरा कहाँ था ?
वह घर भी तो पराया है
तुम्हारी प्रतिष्टा का हर प्राचीर
प्यार को व्यापार बना कर खुश हुआ होगा
न दहलीज मेरी थी, यहाँ न देह मेरी थी
देह पर मेरी यहाँ कभी संस्कार काबिज था, कभी परिवार काबिज था
कभी पति था मेरा उसका अधिकार काबिज था  
देह तेरी हो मगर यह रूह मेरी है
विदा होती हूँ मैं ..." ---- राजीव चतुर्वेदी

यह आईना दिखाता अनुरोध है !!

"सिख यानी कि सरदार जांबाज मेहनत कर अपना भाग्य खुद बदलने वाले स्वाभमानी लोगों का पंथ है ...मुगलों के दौर में यह उनसे संघर्ष करते रहे जिसमें इनकी कुर्बानी के अंतहीन किस्से हैं ...अंग्रेजों के दौर में यह आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर जूझे ...यह दुनिया में कई जगह ताकतवर स्थिति में हैं और देश का नाम ऊंचा कर रहे है ...अंग्रेजों ने सुनियोजित तरीके से इनको उपहास का विषय बनाया ...इन पर चुटकुलों का प्रचलन हुआ जो आज भी जारी है ...सिख अल्प संख्यक समुदाय है वैसे ही जैसे मुसलमान ...अल्पसंख्यक तो यह मुसलमानों से भी ज्यादा हैं पर भारत को अपना समझते हैं ...भारत के लिए जान देते हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहते फिर भी हम इस महान सम्प्रदाय को निशाने पर ले कर चुटकुले गढ़ते हैं इनकी मजाक बनाते हैं क्योंकि यह सहिष्णु है ...चुटकुले हिन्दूओं को ले कर क्यों नहीं ? चुटकुले मुसलमानों को ले कर क्यों नहीं ?--क्योंकि वह असहिष्णु हैं ? जैनियों पारसीयों को ले कर क्यों नहीं ? ----कृपया इस महान पंथ को याद करे ...गुरु तेग बहादुर ...गुरु गोविन्द सिंह ...भगत सिंह ...ऊधम सिंह जैसे महान सपूतों के सम्प्रदाय की मजाक न बनाएं--- यह आईना दिखाता अनुरोध है !!" --- राजीव चतुर्वेदी

आम आदमी को "आम" की तरह ख़ास आदमी चूसता रहा है


"आम आदमी को "आम" की तरह ख़ास आदमी चूसता रहा है ...मुग़ल कालीन जुमला है "कत्ले आम" यानी यहाँ भी आम आदमी का ही क़त्ल होता था ...अंग्रेजों के समय भी आम आदमी ही गुलाम था ...नेहरू से मनमोहन तक भी आम आदमी की खैर नहीं रही ...रोबर्ट्स बढेरा को भी बनाना रिपब्लिक घोटाले की डकार लेते हुए मेंगो रिपब्लिक लगने लगा कार्टून की दुनिया में आर के लक्ष्मण के "आम आदमी" की हैसियत काक के कार्टूनों में भी नहीं बदली ...आम आदमी पर वामपंथी कविता सुनते ख़ास आदमी ने भी द्वंदात्मक भौतिकवाद दनादन बघारा ...आम आदमी की चिंता में संसद के ख़ास आदमी अक्सर खाँसते हैं ...अब केजरीवाल को भी आम आदमी को आम की तरह चूसना है ...अरे भाई आम आदमी वह है जिसे केरोसीन के तेल का मोल पता हो ...राशन की दूकान की कतार में कातर सा खडा हो ...आलू की कीमत से जो आहात होता हो ...जो बच्चों के साथ खिलोनो की दूकान से कतरा कर निकलता हो ...जो बच्चों को समझाता हो कार बालों को डाईबिटीज़ हो जाती है क्योंकि वह पैदल नहीं चलते ...आम आदमी अंगरेजी नहीं बोलता ...आम आदमी के बच्चे मुनिस्पिल स्कूल में पढ़ते है। वहां टाट -पट्टी पर बैठ कर इमला लिखते हैं ...वह जब कभी रोडवेज़ बस से चलता है ...उसका इनकम टेक्स से उसका कोई वास्ता नहीं होता किन्तु वह इनकम टेक्स अधिकारी से भी उतना ही डरता है जितना और सभी घूसखोर अधिकारियों से डरता है क्योंकि घूस देने पर उसके सपनो का एक कोना तो टूट ही जाता है ...आम आदमी देश की मिट्टी से जुडा होता है वह खेत की मिट्टी देख कर बता देता है कि यह बलुअर है या दोमट ...आम आदमी मिट्टी देख कर बता देता है इस मिट्टी में कौन सी फसल होगी बिलकुल वैसे ही जैसे कोई केजरीवाल बताता हो इस मिट्टी में कौन सा वोट उगेगा ?" --- राजीव चतुर्वेदी

Monday, November 12, 2012

शोकगीत में उगी हुई यह कविता तुम्हें कैसी लगी ?

"हमेशा की तरह इस बार भी त्यौहार पर मुझे लोग पूछेंगे
बता देना --वह अब यहाँ नहीं रहता
दर -ओ -दीवार में भी नहीं
दिल -ओ -दिमाग में भी नहीं
यहाँ तो मर गया था वह
जनाजा जिम्मेदारी से वह खुद ही ले गया अपना, जरूरत के लिफ़ाफ़े में
वह किश्तों में मर रहा है फिर भी ज़िंदा है 
हमारे लिए तो वह मर चुका है
तुम्हारे लिए ज़िंदा हो तो तलाश लो
ज़िंदा होगा कहीं अपने वीराने में
वह मर तो गया था बहुत पहले
पर सुना है सांस लेता है अभी
लोगों का मन रखने को हंसता भी है
प्यार के अभिवादन में मुस्कुराता भी है
वह मिजाज से रंगीन नहीं ग़मगीन सा था
वह कभी भी दीपावली पर पटाके नहीं चलाता था
उसे शोर नहीं पसंद ...संगीत पर भी वह नहीं थिरकता
दैहिक सुन्दरता उसे मुग्ध नहीं करती
दार्शनिक सुन्दरता वह समझता है
मरा हुआ आदमी शांत होता है न
पर संवेदना से वह सहम सा जाता है
शायद इसीलिए लोग उसे ज़िंदा मानते हैं ...औरों से ज्यादा ज़िंदा
उसके वीराने में कोई दस्तक दे ...यह उसे पसंद नहीं था पहले
उसकी मौजूदगी ऐसी थी जैसे शवयात्रा में कोई खिलखिला कर हंस पड़े
पर वह मर चुका है
उसके मरने की खबर सुन कर कुछ लोग खुश हैं 
वह मर कर भी उनको खुशी दे गया
जो दुखी हैं वह इसलिए कि अब वह और खुशी नहीं दे सकेगा
वह अन्दर से तिलमिलाता
और बाहर से खिलखिलाता
अपनी शवयात्रा में शामिल है
सुना है वह बहुत साहसी है ...मरने से नहीं डरता
मर चुका आदमी भला मरने से डरेगा भी क्यों ?
मैंने उसे छोड़ दिया तो कौन सी बड़ी बात है
शरीर को आत्मा भी तो छोड़ देती है एक रोज
वह डूब रहा है अपने ही सन्नाटे में
बाहर के सन्नाटे से शोकाकुल है वह
वह अजीब है
डूबता हुआ आदमी, तैरता है तुम्हारी यादों में
जैसे लाश तैरती हो नदी में
जैसे आस तैरती हो सदी में
शोकगीत में उगी हुई यह कविता तुम्हें कैसी लगी ?
मरने के पहले वह बहुत कुछ जानना चाहता था, ...यह भी."
  ---- राजीव चतुर्वेदी 

अतः आज हम मनाते हैं महिला मुक्ति दिवस

" !! भगवान् कृष्ण ने आज नरकासुर का वध करके उसके शोषण से 16000 महिलाओं को मुक्त कराया था। नरकासुर का राज्य वर्तमान भारत के पूर्वोत्तर राज्यों (असाम /सिक्किम /मेघालय मणिपुर ) में था। यह हमला करके महिलाओं को उठा लेजाता था। कृष्ण महिला समानता और स्वतंत्रता के पक्षधर थे। जब उनको नरकासुर की करतूतों का पता चला तो उन्होंने लगभग कमांडो की शैली में कार्यवाही करते हुए नरकासुर का वध किया था। किन्तु न भूलें अभी नरकासुर के और भी छोटे, बड़े, मझोले संस्करण समाज में मौजूद हैं। अभी भी नरकासुर के क्षेत्र से विश्व की सब से ज्यादा बाल वेश्याएं आ रही हैं। अभी भी वहां देह व्यापार के सबसे बड़े अड्डे हैं। अभी भी भारतीय समाज में दहेज़खोर हैं ...अभी भी महिलाओं को मुकम्मल मुक्ति नहीं मिली है। क्या आज के दिन हम भगवान् कृष्ण से कोइ प्रेरणा लेंगे ? नरकासुर केनाम से ही इस दिन को नरक चतुर्दसी कहते हैं। नारी शोषण की मानसिकता का आज वध हुआ था अतः आज हम मनाते हैं महिला मुक्ति दिवस !! "---राजीव चतुर्वेदी


Sunday, November 11, 2012

धन्य त्रियोदसी


"!! धन्यवाद ज्ञापन ही "धन्य त्रियोदसी" यानी कि धनतेरस का उद्देश्य है. आज के दिन ही एक लम्बे निर्वासन के बाद भगवान् राम जो नैतिकता / मर्यादा के प्रतीक माने जाते हैं अपने स्थान पर वापस आये थे. इसे प्रतीकात्मक रूप से बोला जाए तो today after a long exile virtues ( नैतिकता / मर्यादा ) returned home. This story relates to Ram's exile and his return to Ayodhya. इस धन्यभाव के  "धन्य" का अपभ्रंश हो कर "धन" होगया . अब धन प्रधान समाज में धनतेरस है. सरकारी दफ्तरों मैं , अदालत के पेशकारों मैं , सत्ता के दलालों मैं , साहूकारों की गद्दी पर धनतेरस है और असली भारत धन को तरस रहा है उसकी "धन तरस" है . !!---- धन्य त्रियोदसी की शुभ और मंगल कामना।" --- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, November 6, 2012

सपने भी सहमे हैं इन बच्चों के

"सपने भी सहमे हैं इन बच्चों के अपनों की बात करें भी क्यों ?
मानवता के अक्षांश अबोधों को क्या मालुम
यह सदी सुबोधों की कुछ शातिर सी भी है
और अबोधों की बस्ती पर इन सिद्धों की नज़र गिद्ध सी है
देशांतर के दिशाबोध से हर सुबोध संपन्न बना है
यहाँ अबोधों के बच्चों को अब गुलाम बनना ही होगा
जूझ रहे जीवन में इनके जूठन एक सहारा होगी
लालकिले के प्राचीरों से धारावी की धरा भी देखो
समझ सको तो समझ ये जाना
संभ्रांतों को मिली स्वतंत्रता अब सवाल है
भारत का जन -गण-मन तो अब भी फाटे हाल है." ---- राजीव चतुर्वेदी

Monday, November 5, 2012

मैं भी मुस्कुराना चाहता था

"मैं भी मुस्कुराना चाहता था,
यह एक पंक्ति की बात तुम्हें कविता तो नहीं लगी होगी
कविता के ठेकेदारों के लिए यह कविता है भी नहीं
यह कहानी भी नहीं है ...उपन्यास भी नहीं कि इसका कोई बाजार हो
यह बड़े आदमी के साथ घटी कोई छोटी सी घटना भी तो नहीं है कि
इतिहास कहा जाये
इस लिए इतिहासविदों के लिए इतिहास भी नहीं है
यह किसी बेजान दारूवाला की दारू जैसी भविष्यवाणी भी नहीं
यह समाज शास्त्र भी नहीं ...अर्थशास्त्र भी
नहीं
भौतिक ..रसायन ..भूगोल ...या बायलोजी भी नहीं ...सायक्लोजी भी नहीं
यह एक व्यक्ति की इच्छा है वोट बैंक की नहीं अतः राजनीति भी नहीं
संविधान के किसी भी प्राविधान में मुस्कुराना तो मौलिक अधिकार भी नहीं
इस लिए यह असंवैधानिक इच्छा है
इस मुश्किल हालात में मुस्कुराने का हक़ तो था मुझे
मैं भी मुस्कुराना चाहता था
मैं जानता हूँ तुम्हें यह कविता नहीं लगेगी
पर फिर भी
मैं मुस्कुराना चाहता था ."
--- राजीव चतुर्वेदी

...वरना मैं चुप हो जाऊंगा

"हर कविता मेरा आंसू है,-क्या तुम पर उसका साँचा है?
यह बात बताना तुम मुझको वरना मैं चुप हो जाऊंगा."
---- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, November 4, 2012

जब मौत मेरी हमसफ़र हो तो डरूं किससे यहाँ ?

"जिन्दगी के कई सफ़र में मौत मेरी घात में थी,
जब मौत मेरी हमसफ़र हो तो डरूं किससे यहाँ ?"
                 --- राजीव चतुर्वेदी

यह स्मृति है... स्मृत का क्या ?

"बाबा के मरने के बाद भी
मैं सुन सकता हूँ उनकी खांसती आवाज
और उस आवाज़ के बीच में गाय का रम्भाना
वह मरफ़ी का ट्रांजिस्टर और उसके साथ भजन गुनगुनाना
पाकिस्तान के हमले की बुलेटिन पर बुदबुदाती विबशता
दूर शहर में बंगले में नाती, गमले के पौधे
और गाँव में गाय को पानी पिलाने की चिंता
वह गाँव में दोपहर को पंहुचता सुबह का अखबार
जिसको पढ़ कर बांचे जाते थे समाचार और समाज के सरोकार
जिन्दगी की शाम को सुबह का इंतज़ार
उम्र के अंतिम दौर में दादी का अपने सुहाग के दीर्घायु होने का अब भी शर्माता सा सपना
वह रात को सोते समय दूध का गिलास
वह सुबह ..वह आँगन ...वह तुलसी का घरोंदा
वह भूरा और कलुआ जैसा जूठन पर अधिकार जताता कुत्ता
जिसकी आँखों में हिंसा कम और प्यार ज्यादा था
अब तो दादी- बाबा की बस स्मृति शेष है
बाबा की बरसी पर पिता और चाचाओं ने बेच दिया था बाबा का मकान
वह बूढा बैल, श्यामा गाय, शीसम का तखत,
उम्र की दीमग से सहेज कर रखी
दादी के यहाँ से दहेज़ में आयी मेज
जूट के पट्टे पर झूला सा झुलाती वह आराम कुर्सी
वह लोभी आढ़तिया अब भी अपनी गद्दी पर लेटा है
पापा के पढने को दादी की हंसुली गिरवी रखी जहां थी
वह तोता भी उड़ गया कहीं
वह पिजड़ा भी अब खाली है
यह स्मृति है... स्मृत का क्या ?
अब तो स्मृत ही शेष बची है
चलो यहाँ      
कल अपनी भी बारी होगी
कुछ ऐसी ही तैयारी होगी." ----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, October 31, 2012

उसकी दैहिकता का संज्ञान कराते वस्त्रों में

"उसकी दैहिकता का संज्ञान कराते वस्त्रों में
वह सब कुछ था जो राग द्वेष में रोचक था
उसकी आत्मा का अक्षांश अक्ष की अटखेली में गायब था
देह जहां थी उसकी आत्मा उससे अलग खड़ी थी
पुरुषों की परिभाषा उसकी परिसीमा सी प्रश्न पूछती
परिधि नापती प्रतिरक्षा को परेशान थी प्रत्याशा में
और आह भारती थी आत्मा उसके आर्तनाद में
देह से ऊपर उठे लोग ही वैदेही की व्याख्या का व्याकरण लिखेंगे
आवरण और आचरण की कसौटी कष्ट तो देगी तुम्हें
आत्मा की आहटें दिल में तेरे जो गूंजती है
मैं तेरे पास आया था महज सुनने उन्हें
देह तेरी,... देह के रिश्ते सभी उन्हें क्या नाम दूं ?
देह से हट कर अगर मेरी आत्मा तुझे आत्मीय लगती हो
तो पुकारो मैं खडा हूँ दूर बेहद दूर ...
तेरी आत्मा के अंतिम किनारे पर." -
--- राजीव चतुर्वेदी

Monday, October 29, 2012

मैं बोलना चाहता था शत प्रतिशत सच

"मैं बोलना चाहता था शत प्रतिशत सच
पर पच्चीस प्रतिशत सच इसलिए नहीं बोल सका क्योंकि
उससे देश के अल्प संख्यकों के नाम पर खैरात खा रहे
दूसरे नंबर के बहुसंख्यक समुदाय मुसलमानों को ठेस पहुँचती
वैसे भी इस्लाम या तो खतने में रहता है या खतरे में
मैं पंद्रह प्रतिशत सच इसलिए नहीं बोल सका क्योंकि
उससे वास्तविक अल्पसंख्यकों जैसे
पारसी ,बौद्ध ,जैन और सिखों की आस्था को ठेस पहुँचती
पचास प्रतिशत सच इस लिए नहीं बोल सका कि
सनातन धर्मियों को ठेस न पहुँच जाय
दस प्रतिशत सच से
आर्य समाजी भी आहात हो सकते थे सो वह भी नहीं बोला
आखिर सभी की भावनाओं का ख्याल जो रखना था
इसलिए सौ प्रतिशत सच का एक प्रतिशत सच भी मैं नहीं बोल सका
अब क्या करूँ ? सच की शव यात्रा निकल रही है फिर भी फेहरिश्त अभी बाकी है
संविधान पर कुछ बोलो तो आंबेडकरवादियों को ठेस पहुँच जायेगी
यों तो मैं तमाम घूसखोर जजों को जानता हूँ
जो अब पेशकार के जरिये नहीं सीधे ही घूस ले लेते हैं
कुछ पेशकार के जरिये भी लेते हैं
पर उनकी वीरगाथा गाने से न्याय की अवमानना जो होती है
सांसदों विधायकों की बात करो तो उनके विशेषाधिकार का हनन हो जाता है
मैं लिखना चाहता था शत प्रतिशत सच
पर उससे तो अखबार के कारोबार को ठेस पहुँचती थी
मैं बोलना चाहता था शत प्रतिशत सच
इसीलिए अब सोचता हूँ
प्रकृति की बात करूँ ...प्रवृति की नहीं
और इसीलिए अब बाहर कोलाहल अन्दर सन्नाटा है.
" ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, October 25, 2012

मैं एक कविता सी बहती रही

"मैं एक कविता सी बहती रही,
तू मौजूद था काव्य का उनवान बन कर
जैसे दरवाजे पर रंगोली
जैसे माथे पर रोली
जैसे आती हो मेरी कल्पनाओं में डोली
मैं नदी थी, तू गुजरता था तूफ़ान बन कर
मैं हकीकत से हार जाती थी
तू खडा रहता था अरमान बन कर
मै तो सर खोल कर चली घर से
तैने सर ढक दिया पल्लू बन कर
मैं सोचती थी पर वह दिन दूर था
मेरी कल्पनाओं में सिन्दूर था
हकीकत एक दिन हांफती सी मेरे द्वार पर थी
तू नहीं था
वहम था मेरा
मेरे अफ़सोस के अफ़साने का उनवान पढ़ा क्या तुमने ?
बारिशों की बूँद बेबस हैं --ये रेगिस्तान है
और इस बीराने में
झकझोरती हवाओं के बीच झांकते तारों की भीड़ 
उस भीड़ में मैं अब भी तुम्हें पहचान लेती हूँ
एक एकाकी समंदर मेरे अन्दर सत्य का
इस प्यार को जुबान मैं दे चुकी हूँ
हो सके उनवान इसको दे सको तो दे ही देना
जानती हूँ में ही हूँ ...हमसफर मेरी परछाईं है
और कोई भी नहीं." ----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, October 24, 2012

अगर आप उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं तो

"अगर उच्च नैतिकता के द्योतक राम सर्वमान्य प्रतीक थे और हैं तो निश्चय ही नैतिकता के मानक सर्वमान्य, निर्विवाद और सार्वभौमिक होना चाहिए, अतः मुझे कुछ भी नहीं कहना. पर अगर आप उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं तो पुरुष होने के नाते मैं इस "मर्यादा पुरुषोत्तम प्रतियोगिता" के बिना उन्हें यह मानद उपाधि तो नहीं दे सकता. वह कौन सी मर्यादाएं थीं वह कौन से मानक थे जिस की कसौटी पर राम "मर्यादा पुरुषोत्तम" थे ? क्या राम को "मर्यादा पुरुषोत्तम" की मानद उपाधि देने वाले विवाहोपरांत बिदा होती अपनी बेटी को आशीर्वाद दे सकेंगे कि --"जाओ बेटी तुम्हारा दाम्पत्य जीवन सीता जैसा हो" ? राम कैसे पिता थे यह लव -कुश के आईने में देखिये. लव -कुश की वेदना की व्याख्या किये बिना आप कौन होते हैं यह बताने बाले ? अपने आधीन महिला के के प्रति राम बनाम रावण आचरण का तुलनात्मक अध्ययन तो कीजिये. राम जी की पत्नी सीता लंका में रावण की बंधक थीं पर पूरी गरिमा के साथ किन्तु सूर्पनखा दंडकारण्य में कि जहां उसके भाईयों का राज्य था घूमती हुयी राम -लक्ष्मण को मिल जाती है तो दोनों भाई उस पर पिल पड़ते हैं और मिल कर उसका नाक कान काट डालते हैं. एक अकेली निहत्थी महिला पर हथियार उठाना ...उस पर अंग भंग करने की हिंसा करना वैसे ही है जैसे अक्सर पता चलता है कि किसी लडकी पर किसी ने तेज़ाब फैंक दिया. ---यह किस समाज की कौन सी नैतिकता थी ?...कैसे मर्दों की कौन सी मर्यादा थी ? अपनी बहन के प्रति इस घटना से भी उत्तेजित हो कर रावण ने सीता जी के प्रति कोई हिंसा नहीं की--- इस कसौटी पर भी महानता का मूल्यांकन करते चलिए. चौदह साल के बनवास के बाद भी और भाई भारत द्वारा चौदह साल सही ढंग से शास न चलाने के बाद भी राम ने भरत को सिंघासन से उतार दिया और खुद उस पर बैठे फिर भी असीम महत्वाकांक्षा ने हिलोरें लीं और राजसूय यज्ञ कर विश्व विजय अभियान चलाया . राजसूय यज्ञ के लिए पत्नी की अनिवार्यता थी और सीता परित्यक्ता थीं तो सोने की सीता बना कर बैठा ली गयीं जैसे सीता उनकी पत्नी नहीं युद्ध की चल वैजन्ती हो. और उदध के मानक क्या गढ़े उस पर भी गौर करें -- विभीषण जिसे आज भी राजनीतिक शब्दावली में गाली ही माना जाता है. छिप कर बाली को मारा और पूजा करते में मेघनाद को मारा --यह कौनसी यौद्धिक नैतिकताएं थी ? याद रहे जब कुतुबनुमा गलत होगा तो समाज दिशाहीन होगा और इसका दूसरा पहलू यह भी है कि जब समाज दिशाहीन होता है तो निश्चय ही उसका कुतुबनुमा गलत होता है. चूंकि राम हमारी आस्था के केंद्र हैं उनकी भाग्वाद्ता पर बहस नहीं करना चाहिए किन्तु मैं पुरुष भी हूँ अतः यह सवाल तो मेरे मन में है ही कि राम कैसे पति थे यह सीता से पूछो ? राम कैसे पिता थे --यह लव-कुश से पूछो ? राम कैसे जेठ थे यह उर्मिला (लक्ष्मण की पत्नी ) से पूछो जिसने वियोग झेला ? और प्राकृतिक जीवन का प्रणेता अप्राकृतिक मौत से क्यों मरा ? अपने चारो भाईयों के साथ उन्होंने क्यों जल समाधि ली ? ---क्या है कोई उत्तर ? ---याद रहे जब कुतुबनुमा गलत होगा तो समाज दिशाहीन होगा."
                                                                                                                     ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, October 14, 2012

विश्वनाथ से सारनाथ तक हर अनाथ से पूछा मैंने


"विश्वनाथ से सारनाथ तक हर अनाथ से पूछा मैंने,
कहाँ कबीरों की बस्ती है ?
क्या कबीर अब भी रहता है तेरे मन में ?
सच के संकेतों सा वह क्या सूझ रहा है ?
पाखंडों से अब भी क्या वह जूझ रहा है ?
लहरतारा से लहुराबीर...
हर अमीर से हर कबीर अब क्यों अधीर
है ?
बुद्धू से वह बौद्ध बुद्ध की चाह में उसकी राह देखते भटक रहे हैं सारनाथ में
और विश्व्नाथों की धरती अब अनाथ है
मालवीय के मूल्य और मुख्तारों से गुंडे, शेष बचे कासी के पण्डे
घाटों पर घट रही कीर्ति काशी की देखो
संकटमोचन केंद्र बिंदु है हर लोचन का...यही त्रिलोचन की बस्ती का सच है देखो
विश्वनाथ से सारनाथ तक हर अनाथ से पूछा मैंने,
कहाँ कबीरों की बस्ती है ?
क्या कबीर अब भी रहता है तेरे मन में ?
सच के संकेतों सा वह क्या सूझ रहा है ?
पाखंडों से अब भी क्या वह जूझ रहा है ?"
----राजीव चतुर्वेदी

देह के सपने

"देह के सपने मुझे आते नहीं हैं,
देश के सपने मुझे सोने नहीं देते."
---राजीव चतुर्वेदी

वह चर्चित अन्धेरा चरागों तले

"वह चर्चित अन्धेरा चरागों तले,
चांदनी में नहाया फिर चुप हो गया.
ख्वाब जो तेरी खाली सी आँखों में था,
इस शहर में था आया फिर गुम हो गया."
----राजीव चतुर्वेदी

एक कविता आज बिखरी है ,---तुम्हें अच्छी लगेगी

"एक कविता
जो पिघली थी मेरे दिल में
जो बहती थी मेरे मन में
आज बिखरी है ,---तुम्हें अच्छी लगेगी
मैं जानता हूँ इस कदर मेरा बिखरना ---तुम्हें अच्छा लगा है
रगड़ कर मेरा निखरना तुम्हें सच्चा लगा है
मेरा बिखरना देख कर तुम खुश हुए कविता समझ कर
इस आचरण के व्याकरण पर गौर कर लो
बियांबान दौर में जब सत्य भी सन्नाटे से सहमा था मैं चीखा था
मेरे बयानों में जो कांपती आवाज में दर्ज था, -- वह दर्द तेरा था

लोग उसको कविता समझ बैठे
एक कविता
जो पिघली थी मेरे दिल में
जो बहती थी मेरे मन में
आज बिखरी है ,---तुम्हें अच्छी लगेगी
मैं जानता हूँ इस कदर मेरा बिखरना ---तुम्हें
अच्छा लगा है." ----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, October 3, 2012

वह उसकी ही अमानत है

"मेरी आँखों में अक्श था उसका, आंसू तो थे नहीं गिरते तो गिरते कैसे ?
गिरा तहजीब से, बिखरा तरतीब से, --- मैंने उठाया फिर नहीं
अब जमीन पर जो नमीं सी चस्पा है वह उसकी ही अमानत है."
----राजीव चतुर्वेदी 

हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?

"हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?
यह अजीब दौर है
खूंरेज़ आँखों में खूबसूरत से ख्वाब सिमटे हैं
यह अजीब दौर है
सभ्यता के सवालों को लिए सलीब सा
हर किसी के हाथ में ढाल तो है तलवार नहीं
युद्ध जारी है प्रबुद्धों में यहाँ
बुद्ध गिद्ध में अंतर करना बहुत कठिन है
शातिरों ने शान्ति के स्कूल खोले हैं
शौर्य की आँखों में खून नहीं
हूर की आँखों में अब वह नूर नहीं
साहित्यकारों का नहीं शब्द हलवाईयों का यह दौर है
अनुप्राश के च्यवनप्राश पर निर्भर है संस्कृति की जीवन रेखा
हर तारा जो टूट रहा है नक्षत्रों से छूट रहा है
उस से पूछो प्रलय विलय का अंतर क्या है ?
शब्द जलेबी बन जाए तो मुझे बताना कविता की परिभाषा क्या है ?
राग-द्वेष से उबारो तो फिर यह बतलाना राजनीति की भाषा क्या है ?हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?
यह अजीब दौर है
खूंरेज़ आँखों में खूबसूरत से ख्वाब सिमटे हैं
यह अजीब दौर है
सभ्यता के सवालों को लिए सलीब सा
हर किसी के हाथ में ढाल तो है तलवार नहीं."
----राजीव चतुर्वेदी 

होठों पर रूठी सी

"होठों पर रूठी सी
सपनो में झूठी सी
दिल में आहट सी
दिमाग में बौखलाहट सी
आँख में काजल सी
पैर में पायल सी
याद में धुंधली सी
जज्बात में घायल सी
साहित्य में संस्कार सी
परिवार में तिरस्कार सी

विज्ञान में आविष्कार सी
मंच पर पुरष्कार सी
दर्शन में वेदान्त सी
सच में सिद्धांत सी
अस्तित्व में सीमान्त सी
स्पर्श रेखा की तरह छू कर गुजर जाती है तू
इस गुजरते दौर में गुजारिश भी अब क्या करूं ?
तू सतह पर स्पर्श करती एक रेखा है
केंद्र में आती तो आती भी कैसे
जिन क्षणों में तैने छुआ था मुझे
उन क्षणों का शुक्रिया."
-----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, September 23, 2012

तेरे अन्दर -मेरे अन्दर, एक समंदर


"तेरे अन्दर -मेरे अन्दर, एक समंदर
उस समन्दर के अंदर
सिद्धांत के कुछ बुलबुले
सवाल कुछ चुलबुले
नाराज सी नैतिकता
निरीह नीति
समय के सामने कुछ संकेत सीमित से
समन्दर के अन्दर झिलमिलाती तारों की परछाईं के प्रश्न
शेष सी यादें कई
इतिहास के उपहास की कुछ तल्खीयां
झिलमिलाती आँख में आंसू से रंगी तश्वीर कुछ
और कुछ रिश्ते समय के सेतु पर विश्राम करते से
और इस कोलाहल में बैठी याद तेरी देखता हूँ जब कभी
तैरती है याद तेरी बादलों में बिजलियों सी कौंध जाती है
और मेरी याद की पदचाप तेरे द्वार पर जा-जा कर ठहरती है
जिस पर गुजरता हूँ मैं वह रास्ता नहीं रिश्ता ही है
कुछ के लिए गुमनाम सा ...कुछ के लिए बदनाम सा ...मेरे लिए अभिमान सा."
----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, September 19, 2012

गणपति को याद रखो हे पर कार्तिकेय को क्यों भूल गए ?


"गणपति को याद रखो हे गणराज्य के जन-गण-मन पर कार्तिकेय को क्यों भूल गए ? कार्तिकेय के पास राजसत्ता नहीं रही इसी लिए भूल गए तुम उस स्वतंत्र प्रतियोगी को.वरना शंकर-पार्वती का बेटा तो वह भी था. सच तो यही है कि जिसकी राजसत्ता होती है हम उसके ही यशोगान करते हैं. लेकिन दूसरा पहलू भी है .

प्लेटो की रिपब्लिक से और रोम गणराज्य से पहले महाभारत के शान्ति पर्व से भी पहले प्रथम गणराज्य (Republic) के गणपति (Head of Republic) गणेश थे. गणराज्य का गणपति कैसा हो परिकल्पना देखिये-- राजसत्ता का स्वरूप देखें हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और यानी क़ानून व्यवस्था का नागरिकों में भय तो हो पर दमन नहीं, नागरिकों की वेदना सुनने के लिए शाशन के कान बड़े बड़े हों. गणराज्य के गणपति की नाक (सूंड) लगातार जमीनी सचाई की महक सूंघती रहे. राजसत्ता ताकतवर किन्तु भावुक हो. राजसत्ता का कद बड़ा हो बौना न हो. और गणराज्य के नेता की सवारी कारों का काफिला न हो गणेश की सवारी की तरह छोटे चूहे जैसी सवारी हो या यों समझ लें जैसे हमारा प्रधानमन्त्री / राष्ट्रपति किसी छोटी कर से चले. इस आईने में देखें तब के गणराज्य के गणपति को, तब की राजनीति के गणेश से अब की राजनीति के गोबर गणेशों तक. गणेश चतुर्थी की बधाई !!"
----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, September 18, 2012

एक अहसास निखरता है मेरे मन में गुमाँ बनता है

"एक अहसास निखरता है मेरे मन में गुमाँ बनता है,
एक अफ़सोस बिखरता है बियाबानो तक
एक अरमान मेरे दिल में धधकता है धुंआ बनता है,
उस धुँएं में तश्वीर तुम्हारी, तासीर मेरी तकदीर किसी और की है,
सपने जो खो गए हैं उनकी सुबह का सूरज शिनाख्त कर लेगा
पर हर हकीकत का हस्र है यही
हैरान सी गुमनाम खड़ी होगी किसी चौराहे पर
पूछ लेना उससे वह मेरा पता बतला देगी
चले आना
...यही बात गूंजती है मेरे मन में गुजारिश की तरह."
-----राजीव चतुर्वेदी

जीवन में च्यवनप्राश और विचारों में क्रांतिप्राश

"जीवन में च्यवनप्राश और विचारों में क्रांतिप्राश दीर्घायु बनाता है. कृष्ण ने भारत में दो क्रांतियाँ कीं पहली कंस की राज सत्ता के विरुद्ध किसान क्रान्ति दूसरी स्थापित राज सत्ता के विरुद्ध महाभारत...इसके बाद आज तक इस देश में कभी कोई क्रांति नहीं हुई ...हाँ ग़दर अवश्य हुए ...आज देश में जगह जगह क्रांति के कुटीर उद्योग चल रहे हैं ...वामपंथी साथ साल से क्रांति कराह रहे हैं ...कुछ क्रांति का कथक कर रहे हैं ...कुछ कविता में क्रान्ति कर रहे हैं ...कुछ कार्टून में क्रांति करके खुद कार्टून बन रहे हैं...कुछ कोकशास्त्रीय कवि क्रांति का प्रचार ऐसे कर रहे हैं जैसे कंडोम हो ...कुछ मोमबत्ती मार्का लडकीयाँ भी जश्न  के तरीके से जनानी क्रांति कर रही हैं...कुछ NGO क्रान्ति का थोक और खुदरा कारोबार कर रहे हैं...इस बीच तमाम हरी ,भूरी ,नीली ,काली ,लाल , पीली ,सफ़ेद क्रांति भी सुनी जा रही हैं...कुछ माचिश से बीड़ी सुलगाने के बाद शेष आग से क्रांति की काल्पनिक मशाल सुलगा कर अपनी सामाजिक प्रासंगिकता सिद्ध कर रहे हैं तो कुछ अपना वजूद. क्रांति के लिए जरूरी है संकल्प की सूझ और विकल्प की बूझ. क्या किसी के पास है कोई वैकल्पिक व्यवस्था का मसौदा ? क्या किसी के पास है कोई संकल्प का शिलालेख ? यह पीढी इसे तैयार कर ले तब अगली पीढी के लिए क्रांति की पृष्ठ भूमि तैयार हो सकेगी अन्यथा अपने -अपने चेहरे पर फेयर एंड लबली की तरह क्रांति की क्रीम लगा कर अपना अपना बाज़ार तैयार करिए --- संदीप पाण्डेय,अग्निवेश, इसके सटीक उदाहरण हैं."----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, September 13, 2012

आगे लोकतंत्र का खतरनाक मोड़ है...

"जनतंत्र की नहीं है यह लड़ाई...जनतंत्र के अपने अपने मन्त्र की भी नहीं है यह लड़ाई...यह लड़ाई है एनार्की ( Anarchy ) यानी अराजकता से उत्पन्न स्वेच्छाचारिता की और द्वंद्व यह कि किसकी स्वेच्छाचारिता देश को हांके. यही वजह है कि व्यवस्था के विभिन्न अंग गुजरे कुछ सालों से एक दूसरे से टकराते नज़र आ रहे हैं. न्यायपालिका न्याय करने की कम विधायिका की अधिक भूमिका में नज़र आ रही है और टुकड़े -टुकड़े क़ानून बना रही है तथा क़ानून बनाने के निर्देश जारी कर रही है. मुकदमों की विवेचना करवा रही है और शेष समय व्यवस्था के अन्य अंगों की मुक्त कंठ से आलोचना कर रही है. इनसे कौन पूछे कि न्याय करने की जिम्मेदारी निभा नहीं पा रहे लाखों मुकदमें लंबित हैं तो "अपनी फजीहत, दूसरे को नसीहत" क्यों दिए जा रहे हो ? विधायिका की अपनी स्वेच्छाचारिता है और वह इस हद तक कि एक व्यक्ति जो लोक सभा का चुनाव ही नहीं लड़ता है वह बिना जनादेश के गुजरे आठ सालों से प्रधानमंत्री बना बैठा है जिसके हर मंत्रालय पर गंभीर घोटालों की आरोप हैं पर हम उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रहे. ऐसे लोग एक दूसरे से लड़ते दिखने की कला में पारंगत हैं . यह लड़ते तो दिखते हैं पर दरअसल लड़ते कभी नहीं,--देखलो --लालू ,मुलायम , ममता , शिबू सोरेन , मायाबाती. यह सभी घोटाला केसरी मन मोहन सरकार बचाने के लिए एक हैं. इस बीच मन्थराओं के समाज यानी नौकरशाही को भी देख लें जो हर भ्रष्टाचार की नाभिकीय शक्ति है. स्वेच्छाचारिता सदीव से इसका चरित्र है और घूसखोरी इसका जन्म सिद्ध अधिकार है. याद रहे जहाँ मंथरा (नौकरशाही) की चलती है वहां राम (अच्छे लोगों ) को बनवास हो ही जाता है. व्यवस्था के चौथे खम्बे यानी प्रेस की भूमिका नीरा राडिया के बाद उनकी विश्वसनीयता की सड़ी लास  सी उतरा रही है और बदबू दे रही है. पत्रकारिता में कुछ चुलबुल पांडे और कई गुपचुप पांडे हैं. ऐसे माहौल में जनआन्दोलन के नाम पर जनतंत्र का जनाजा निकालते  NGO के वैभव से स्वयंभू नेता बने चेहरों पर भी गौर करें. राष्ट्रीय प्रतीक भंजन का जो सिलसिला औरंगजेब के समय में हिन्दू मूर्ति भंजन से चला था वह अभी थमा नहीं है और यह लोग थमने देना भी नहीं चाहते क्योंकि जब राष्ट्रीय प्रतीक ही टूट जायेंगे तो राष्ट्र का ध्रुवीकरण कैसे होगा और जब राष्ट्र का ध्रुवीकरण ही नहीं होगा तो राष्ट्र बिखर जाएगा. NGO के माध्यम से भारत राष्ट्र को तोड़ने की यही साजिश है इसी लिए इनको अपार विदेशी फंडिंग हो रही है. देखिये औरंगजेब ने भारत के राष्ट्रवाद को तोड़ने के लिए हिन्दू मंदिर तोड़े....अंग्रेजों ने सभ्यता तोड़ी ...समाज को जातियों में तोड़ा ...देश को मजहब में तोड़ा ...भाषा तोडी ....फिर भी किसी तरह जब हम आज़ाद हो ही गए तो देश को भारत -पाकिस्तान में तोड़ा. अंग्रेज गए तो सोवियत  रूस और चीन के टुकड़ों पर पल रहे कम्यूनिस्टों के माध्यम से भारत राष्ट्र के प्रतीक और प्रतिमान तोड़े. कम्यूनिस्टों पर अपना तो कोई देश का देसी प्रतीक व्यक्तित्व था नहीं सो उन्होंने भगत सिंह के व्यक्तित्व को गांधी पर दे मारा...आंबेडकर को दोनों पर दे मारा...सुभाष चन्द्र बोस को तीनो पर दे मारा. निरर्थक की बहसों से सिर फुटौअल हुयी और देश बांटता गया परिणाम सामने है कि आज हमारे पास देश का कोई सर्वमान्य प्रतीक व्यक्तित्व शेष ही नहीं बचा ...न चित्र न चरित्र ...वह यही चाहते थे और आज हमारी नयी पीढी फिल्म के रंडी -भडुओं को या खेल के लोगों को अपना हीरो मां बैठी है. जो समाज खेल को गंभीरता में लेता है वह गंभीर चीजों को खेल में लेने को अभिशिप्त हो जाता है. अब आज जब कोई राष्ट्रीय सर्वमान्य प्रतीक व्यक्तित्व हमारे पास शेष ही नहीं बचा तो अब राष्ट्रीय मूर्ति भंजक अभियान की निगाहें राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे अशोक की लाट और भारत माता जैसी काल्पनिक किन्तु राष्ट्रवादी अवधारणाओं को विकृत / विद्रूप करने लगीं. इसी अपनी-अपनी स्वेच्छाचारिता की आकांक्षा का आग्रह है जनतंत्र को लोकपाल के बहाने अपनी फ़ुटबाल बनाते केजरीबाल के आन्दोलन की.  औरंगजेब के समय से चला मूर्ति भंजक अभियान अभी जारी है...कोई कभी मुम्बई में आज़ाद मैदान में शहीद जवानो के स्मृत स्मारक को तोड़ रहा है तो कोई अशोक की लाट के सर्वमान्य राष्ट्रीय सम्प्रभु प्रतीक की विकृत प्रस्तुति को अपनी स्वतंत्रता बता रहा है. सावधान, आगे लोकतंत्र का खतरनाक मोड़ है...जो लोग आज राष्ट्रीय प्रतीक तोड़ रहे हैं या उनको विकृत/ विद्रूप कर रहे हैं कल अगर उनको मौक़ा मिला तो राष्ट्र को भी ऐसा ही विकृत /विद्रूप बना देंगे."-----राजीव चतुर्वेदी


Wednesday, September 12, 2012

झांको उसमें अक्स तुम्हारा भी उभरेगा

"कविता पारिभाष है या आभाष ?---मुझे क्या मालुम
मैंने जो लिखा उसमें शब्द की तुकबंदीयाँ तो थीं नहीं
लय थी प्रलय की और उसमें विचारों का बसेरा था 
सांझ थी साझा हमारी और चुभता सा सबेरा था
देह से मैं दूर था पर स्नेह के तो पास था
मेरा प्यार भी था प्यार सा सुन्दर सलोना
एक गुडिया का खिलौना ...एक बच्चे का बिछौना ...एक हिरनी का हो छौना
प्यार का मेरे बहन उनवान लिखती थी
प्यार का मेरे खिड़कियों से झांकती खामोशियाँ अरमान रखती थीं
काव्य में मेरे महकते खेत थे,...खेतों में खडी इक भूख थी...गाय का बच्चा और उसकी हूक थी
नागफनी के फूल परम्परा से कांटे थे
घाव मिले थे हमको वह भी तो बांटे थे
कविता में मेरी तैरा करती नाव नदी में आशंकित सी
कविता में मेरे सर्द हवाएं थी...तूफानों को लिए समन्दर था
मेरे शब्दों में सिमटा था कोलाहल मेरे अन्दर था
कविता में मेरी आंधी थी...देवदार के पेड़, चिनारों की चीखें थीं
केसर की क्यारी में अंगारों की खेती थी
तितली थी फूलों पर बैठी आंधी से बेख़ौफ़ प्यार की परिभाषा सी
आंसू की वह बूँद पलक पर टिकी हुयी भूगोल दिखाती सी
मेरे आंसू की वह बूँद पलक पर कविता जैसी झलक रही है
झांको उसमें अक्स तुम्हारा भी उभरेगा."
----राजीव चतुर्वेदी   

Tuesday, September 11, 2012

वह शब्द रक्त से व्यक हुए हैं

"मेरा मौन
गिर कर टूटा था जमीन पर
एक खनक के साथ
मेरी उंगलीयाँ बटोरती हैं मौन के टुकड़े
खून मेरा है ...उंगलीयाँ मेरी हैं ...ख्वाब मेरे हैं ...ख्वाहिशें तेरी हैं
जो शब्द बिखरे हैं तेरे हमशक्ल से क्यों हैं ?
इन शब्दों की आहत सी आहट में संगीत सुनो तो सुन लेना
उसमें धड़कन मेरी भी शामिल है
वह शब्द रक्त से व्यक हुए हैं
सपने मेरे सिसकी तेरी भी शामिल है
आवारा अहसास हमारा लाबारिस है."
----राजीव चतुर्वेदी  


Monday, September 10, 2012

बुद्धिजीवी और बुद्धिखोर का अंतर ही अभिव्यक्ति की आज़ादी की अंतरकथा है

"बुद्धिजीवी और बुद्धिखोर का अंतर ही अभिव्यक्ति की आज़ादी की अंतरकथा है. इसके बीच से जाती है पत्रकारिता की पगडंडी. चूंकि पत्रकारिता बाजार है सो बाजार का आचरण और बाजार का व्याकरण लागू होना ही था, सो होगया. जब पत्रकारिता बाजार में है तो बिकाऊ होगी ही. ऐसे में सच दो प्रकार का हो जाता है, एक  --बिकाऊ सच और दूसरा टिकाऊ सच . टिकाऊ सच वाले बुद्धिजीवी कहे जाने के हकदार हैं और बिकाऊ सच गढ़ने और मढने वाले बुद्धिखोर. आज राजनीति और नौकरशाही में हरामखोर तथा पत्रकारिता में बुद्धिखोर प्रचुर मात्रा में हैं--एक खोजो हजार  मिलते हैं. मांग से ज्यादा आपूर्ति है इसलिए इन हरामखोरों और बुद्धिखोरों का बाजार भाव गिर गया है. पत्रकारिता में किसी विचारधारा को चिन्हित कर प्रसार संख्या बढाने का हथकंडा उतना ही पुराना है जितनी हमारी आजादी. जैसे ही देश में समाजवादी विचारधारा का उदय हुआ याद करें पत्रकारिता के क्षेत्र में "दिनमान" नामक समाचार पत्रिका ने दस्तक दी. अनजाने में समाजवादी विचारधारा ने दिनमान के होकर का काम किया और दोनों ही खूब चलीं. फिर समाजवादी विचारधारा का लोहिया की मृत्यु के बाद पराभव हुआ तो दिनमान भी बंद हो गयी. १९७७ में कोंग्रेस विरोधी लहर पर सवार हो कर ई समाचार पत्रिका "माया" को याद करें. ग़ैर कोंग्रेसवाद के प्रथम दौर का खात्मा वीपी सिंह से मोहभंग के साथ ही हो गया सो माया भी बंद हो गयी. इस बीच अंग्रेजी में सन्डे और हिन्दी में रविवार आयीं किन्तु ग़ैर कोग्रेसवाद की नकारात्मक विचारधारा के पतन के साथ इनका भी प्रकाशन बंद हो गया किन्तु इस बीच इंडियन एक्सप्रेस प्रकाशन ने हिन्दी में जनसत्ता का प्रकाशन किया यह उस कालखंड की घटना थी जब इन्द्रा गांधी की ह्त्या हुई थी और फिर राजीव गांधी विराट बहुमत हासिल कर प्रधानमंत्री बने थे लेकिन दिल्ली की नाक के नीचे हरियाणा में देवीलाल ने ग़ैर कोंग्रेसवाद का झंडा फहरा कर सरकार बना ली. जब जनता दल की सरकार बनने जा रही थी तब वीपीसिंह और चन्द्र शेखर के बीच कौन प्रधानमंत्री बनेगा यह द्वंद्व हुआ. ऐसे में शक्ति संतुलन के पासंग देवी लाल थे और देवी लाल को रहस्यमय तरीके से चन्द्र शेखर से विश्वासघात करके वीपी सिंह की तरफ करने  का मायाबी काम किसी राजनैतिक व्यक्ति ने नहीं किया था बल्कि जनसत्ता के प्रधान सम्पादक प्रभाष जोशी ने किया था. क्या यह राजनैतिक धड़ेबाजी पत्रकारिता का काम था या पत्रकारिता में लाइजनिंग जैसी विधाओं का घालमेल ? खैर ग़ैर कोंग्रेसवाद के अवसान के साथ ही जनसत्ता भी ख़त्म होगया और प्रभाष जोशी राज्य सभा में येन केन प्रकारेण पहुँचने की अभिलाषा लिए प्रखर और प्रतापी पत्रकार का संतापी स्वरूप लेकर दिवंगत हो गए. आपातकाल की प्रेस सेंसरशिप (१९७५-७७ ), फिर राजीव गांधी का मानहानि विधेयक (१९८४-८५) और अब मन मोहन सिंह का सोसल साईट सेंसर का प्रयास लोगों को यह दलील देता है कि प्रेस की स्वतंत्रता पर तीनो बार कोंग्रेस के समय ही हमला किया गया पर यह अर्ध सत्य है. क्या समाजवादी मुलायम सिंह की सरकार ने उत्तर प्रदेश में प्रेस पर हल्लाबोल नहीं किया था ? क्या कांसी राम ने लखनऊ में दैनिक जागरण पर हमला नहीं किया था ? क्या ममता बनर्जी प्अभिव्यक्ति की आजादी बर्दाश्त करती हैं ? क्या कारगिल युद्ध के बाद ताबूत घोटाले के आक्षेपों से क्षुब्ध अटल सरकार ने प्रेस पर दबाव नहीं बनाया था ?  इस परिदृश्य में पत्रकारिता में बुद्धिजीवी लुप्तप्राय प्रजाति है और बुद्धिखोर उपलब्धप्राय प्रजाति. यह बुद्धिखोर पत्रकार ख्याति पाने के लिए विवाद का मवाद बनने की जुगत लगा ही लेते हैं. अन्ना आन्दोलन इसका ताजा उदाहरण है. कई बुद्धिखोर अपने बिलों से निलाल पड़े और देश में क्रान्ति के कुटीर उद्योग ही चल पड़े. प्यार की ईलू -ईलू कवितायें लिखने वाले कुमार विश्वास क्रान्ति के स्वयंभू प्रवक्ता हो गए और कवि सम्मलेन में उनकी दिहाड़ी बढ़ गयी इस प्रकार एक विचारधारा पर चढ़ कर वह बाजार के कीमती कवि और सफल बुद्धिखोर हो गए. असीम त्रिवेदी भी छः माह पहले तक देश में ढंग से नहीं जाने जाते थे पर आज वह चर्चा की गुलेल पर सवार हैं. पर सवाल है क्या बाजारू हथकंडे से राष्ट्रीय प्रतीकों से खेला जा सकता है ? क्या राष्ट्रीय प्रतीक हमारा खिलौना हैं या उनका सार्वभौमिक सम्मान हम सभी की संवैधानिक वाध्यता है ?   क्या सपा नेता आज़म खान द्वारा भारत माता को डायन कहना जायज था ? ...क्या कश्मीर में तिरंगा झंडा अलगावबादीयों द्वारा सडक पर जूतों से कुचला जाना जायज था ? क्या कहीं भारतीय संविधान को जलाया जाना जायज है ? --अगर नहीं तो फिर किसी कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी द्वारा भारतीय सम्प्र्क़भुता के प्रतीक चिन्ह अशोक की लाट के शेरों के मुह को कुत्ते का मुह बना कर प्रस्तुत करना भला कैसे जायज है ? आप राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों को कुरूप भला कैसे कर सकते हैं ? यह सही है कि अन्ना के आन्दोलन को उकेरते हुए असीम अच्छे सम्प्र्षित करने वाले कार्टून बना रहे थे पर यह भी सही है कि इसी अतिरेक में उन्हें अपनी सीमाओं का ध्यान नहीं रहा और मर्यादा का उलंघन कर बैठे. स्वतन्त्रता और स्वच्छंदता में अंतर होता है.   व्यंग व्यवस्था पर होना चाहिए अव्यवस्था का प्रतिपादक नहीं. यहाँ Facebook पर अभिषेक तिवारी (राजस्थान पत्रिका ) ,श्याम जगोटा और श्री कुरील बहुत ही पैनी  अभिव्यक्ति के व्यंग चित्र बना रहे हैं. व्यंग व्यवस्था के स्वरुप को बरकरार रखने के लिए हो तो आग्रह है और व्यवस्था को कुरूप बनाता तो तो दुराग्रह .व्यंगों की भी एक आचार संहिता तो है ही." ----राजीव चतुर्वेदी