Sunday, September 23, 2012

तेरे अन्दर -मेरे अन्दर, एक समंदर


"तेरे अन्दर -मेरे अन्दर, एक समंदर
उस समन्दर के अंदर
सिद्धांत के कुछ बुलबुले
सवाल कुछ चुलबुले
नाराज सी नैतिकता
निरीह नीति
समय के सामने कुछ संकेत सीमित से
समन्दर के अन्दर झिलमिलाती तारों की परछाईं के प्रश्न
शेष सी यादें कई
इतिहास के उपहास की कुछ तल्खीयां
झिलमिलाती आँख में आंसू से रंगी तश्वीर कुछ
और कुछ रिश्ते समय के सेतु पर विश्राम करते से
और इस कोलाहल में बैठी याद तेरी देखता हूँ जब कभी
तैरती है याद तेरी बादलों में बिजलियों सी कौंध जाती है
और मेरी याद की पदचाप तेरे द्वार पर जा-जा कर ठहरती है
जिस पर गुजरता हूँ मैं वह रास्ता नहीं रिश्ता ही है
कुछ के लिए गुमनाम सा ...कुछ के लिए बदनाम सा ...मेरे लिए अभिमान सा."
----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, September 19, 2012

गणपति को याद रखो हे पर कार्तिकेय को क्यों भूल गए ?


"गणपति को याद रखो हे गणराज्य के जन-गण-मन पर कार्तिकेय को क्यों भूल गए ? कार्तिकेय के पास राजसत्ता नहीं रही इसी लिए भूल गए तुम उस स्वतंत्र प्रतियोगी को.वरना शंकर-पार्वती का बेटा तो वह भी था. सच तो यही है कि जिसकी राजसत्ता होती है हम उसके ही यशोगान करते हैं. लेकिन दूसरा पहलू भी है .

प्लेटो की रिपब्लिक से और रोम गणराज्य से पहले महाभारत के शान्ति पर्व से भी पहले प्रथम गणराज्य (Republic) के गणपति (Head of Republic) गणेश थे. गणराज्य का गणपति कैसा हो परिकल्पना देखिये-- राजसत्ता का स्वरूप देखें हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और यानी क़ानून व्यवस्था का नागरिकों में भय तो हो पर दमन नहीं, नागरिकों की वेदना सुनने के लिए शाशन के कान बड़े बड़े हों. गणराज्य के गणपति की नाक (सूंड) लगातार जमीनी सचाई की महक सूंघती रहे. राजसत्ता ताकतवर किन्तु भावुक हो. राजसत्ता का कद बड़ा हो बौना न हो. और गणराज्य के नेता की सवारी कारों का काफिला न हो गणेश की सवारी की तरह छोटे चूहे जैसी सवारी हो या यों समझ लें जैसे हमारा प्रधानमन्त्री / राष्ट्रपति किसी छोटी कर से चले. इस आईने में देखें तब के गणराज्य के गणपति को, तब की राजनीति के गणेश से अब की राजनीति के गोबर गणेशों तक. गणेश चतुर्थी की बधाई !!"
----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, September 18, 2012

एक अहसास निखरता है मेरे मन में गुमाँ बनता है

"एक अहसास निखरता है मेरे मन में गुमाँ बनता है,
एक अफ़सोस बिखरता है बियाबानो तक
एक अरमान मेरे दिल में धधकता है धुंआ बनता है,
उस धुँएं में तश्वीर तुम्हारी, तासीर मेरी तकदीर किसी और की है,
सपने जो खो गए हैं उनकी सुबह का सूरज शिनाख्त कर लेगा
पर हर हकीकत का हस्र है यही
हैरान सी गुमनाम खड़ी होगी किसी चौराहे पर
पूछ लेना उससे वह मेरा पता बतला देगी
चले आना
...यही बात गूंजती है मेरे मन में गुजारिश की तरह."
-----राजीव चतुर्वेदी

जीवन में च्यवनप्राश और विचारों में क्रांतिप्राश

"जीवन में च्यवनप्राश और विचारों में क्रांतिप्राश दीर्घायु बनाता है. कृष्ण ने भारत में दो क्रांतियाँ कीं पहली कंस की राज सत्ता के विरुद्ध किसान क्रान्ति दूसरी स्थापित राज सत्ता के विरुद्ध महाभारत...इसके बाद आज तक इस देश में कभी कोई क्रांति नहीं हुई ...हाँ ग़दर अवश्य हुए ...आज देश में जगह जगह क्रांति के कुटीर उद्योग चल रहे हैं ...वामपंथी साथ साल से क्रांति कराह रहे हैं ...कुछ क्रांति का कथक कर रहे हैं ...कुछ कविता में क्रान्ति कर रहे हैं ...कुछ कार्टून में क्रांति करके खुद कार्टून बन रहे हैं...कुछ कोकशास्त्रीय कवि क्रांति का प्रचार ऐसे कर रहे हैं जैसे कंडोम हो ...कुछ मोमबत्ती मार्का लडकीयाँ भी जश्न  के तरीके से जनानी क्रांति कर रही हैं...कुछ NGO क्रान्ति का थोक और खुदरा कारोबार कर रहे हैं...इस बीच तमाम हरी ,भूरी ,नीली ,काली ,लाल , पीली ,सफ़ेद क्रांति भी सुनी जा रही हैं...कुछ माचिश से बीड़ी सुलगाने के बाद शेष आग से क्रांति की काल्पनिक मशाल सुलगा कर अपनी सामाजिक प्रासंगिकता सिद्ध कर रहे हैं तो कुछ अपना वजूद. क्रांति के लिए जरूरी है संकल्प की सूझ और विकल्प की बूझ. क्या किसी के पास है कोई वैकल्पिक व्यवस्था का मसौदा ? क्या किसी के पास है कोई संकल्प का शिलालेख ? यह पीढी इसे तैयार कर ले तब अगली पीढी के लिए क्रांति की पृष्ठ भूमि तैयार हो सकेगी अन्यथा अपने -अपने चेहरे पर फेयर एंड लबली की तरह क्रांति की क्रीम लगा कर अपना अपना बाज़ार तैयार करिए --- संदीप पाण्डेय,अग्निवेश, इसके सटीक उदाहरण हैं."----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, September 13, 2012

आगे लोकतंत्र का खतरनाक मोड़ है...

"जनतंत्र की नहीं है यह लड़ाई...जनतंत्र के अपने अपने मन्त्र की भी नहीं है यह लड़ाई...यह लड़ाई है एनार्की ( Anarchy ) यानी अराजकता से उत्पन्न स्वेच्छाचारिता की और द्वंद्व यह कि किसकी स्वेच्छाचारिता देश को हांके. यही वजह है कि व्यवस्था के विभिन्न अंग गुजरे कुछ सालों से एक दूसरे से टकराते नज़र आ रहे हैं. न्यायपालिका न्याय करने की कम विधायिका की अधिक भूमिका में नज़र आ रही है और टुकड़े -टुकड़े क़ानून बना रही है तथा क़ानून बनाने के निर्देश जारी कर रही है. मुकदमों की विवेचना करवा रही है और शेष समय व्यवस्था के अन्य अंगों की मुक्त कंठ से आलोचना कर रही है. इनसे कौन पूछे कि न्याय करने की जिम्मेदारी निभा नहीं पा रहे लाखों मुकदमें लंबित हैं तो "अपनी फजीहत, दूसरे को नसीहत" क्यों दिए जा रहे हो ? विधायिका की अपनी स्वेच्छाचारिता है और वह इस हद तक कि एक व्यक्ति जो लोक सभा का चुनाव ही नहीं लड़ता है वह बिना जनादेश के गुजरे आठ सालों से प्रधानमंत्री बना बैठा है जिसके हर मंत्रालय पर गंभीर घोटालों की आरोप हैं पर हम उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रहे. ऐसे लोग एक दूसरे से लड़ते दिखने की कला में पारंगत हैं . यह लड़ते तो दिखते हैं पर दरअसल लड़ते कभी नहीं,--देखलो --लालू ,मुलायम , ममता , शिबू सोरेन , मायाबाती. यह सभी घोटाला केसरी मन मोहन सरकार बचाने के लिए एक हैं. इस बीच मन्थराओं के समाज यानी नौकरशाही को भी देख लें जो हर भ्रष्टाचार की नाभिकीय शक्ति है. स्वेच्छाचारिता सदीव से इसका चरित्र है और घूसखोरी इसका जन्म सिद्ध अधिकार है. याद रहे जहाँ मंथरा (नौकरशाही) की चलती है वहां राम (अच्छे लोगों ) को बनवास हो ही जाता है. व्यवस्था के चौथे खम्बे यानी प्रेस की भूमिका नीरा राडिया के बाद उनकी विश्वसनीयता की सड़ी लास  सी उतरा रही है और बदबू दे रही है. पत्रकारिता में कुछ चुलबुल पांडे और कई गुपचुप पांडे हैं. ऐसे माहौल में जनआन्दोलन के नाम पर जनतंत्र का जनाजा निकालते  NGO के वैभव से स्वयंभू नेता बने चेहरों पर भी गौर करें. राष्ट्रीय प्रतीक भंजन का जो सिलसिला औरंगजेब के समय में हिन्दू मूर्ति भंजन से चला था वह अभी थमा नहीं है और यह लोग थमने देना भी नहीं चाहते क्योंकि जब राष्ट्रीय प्रतीक ही टूट जायेंगे तो राष्ट्र का ध्रुवीकरण कैसे होगा और जब राष्ट्र का ध्रुवीकरण ही नहीं होगा तो राष्ट्र बिखर जाएगा. NGO के माध्यम से भारत राष्ट्र को तोड़ने की यही साजिश है इसी लिए इनको अपार विदेशी फंडिंग हो रही है. देखिये औरंगजेब ने भारत के राष्ट्रवाद को तोड़ने के लिए हिन्दू मंदिर तोड़े....अंग्रेजों ने सभ्यता तोड़ी ...समाज को जातियों में तोड़ा ...देश को मजहब में तोड़ा ...भाषा तोडी ....फिर भी किसी तरह जब हम आज़ाद हो ही गए तो देश को भारत -पाकिस्तान में तोड़ा. अंग्रेज गए तो सोवियत  रूस और चीन के टुकड़ों पर पल रहे कम्यूनिस्टों के माध्यम से भारत राष्ट्र के प्रतीक और प्रतिमान तोड़े. कम्यूनिस्टों पर अपना तो कोई देश का देसी प्रतीक व्यक्तित्व था नहीं सो उन्होंने भगत सिंह के व्यक्तित्व को गांधी पर दे मारा...आंबेडकर को दोनों पर दे मारा...सुभाष चन्द्र बोस को तीनो पर दे मारा. निरर्थक की बहसों से सिर फुटौअल हुयी और देश बांटता गया परिणाम सामने है कि आज हमारे पास देश का कोई सर्वमान्य प्रतीक व्यक्तित्व शेष ही नहीं बचा ...न चित्र न चरित्र ...वह यही चाहते थे और आज हमारी नयी पीढी फिल्म के रंडी -भडुओं को या खेल के लोगों को अपना हीरो मां बैठी है. जो समाज खेल को गंभीरता में लेता है वह गंभीर चीजों को खेल में लेने को अभिशिप्त हो जाता है. अब आज जब कोई राष्ट्रीय सर्वमान्य प्रतीक व्यक्तित्व हमारे पास शेष ही नहीं बचा तो अब राष्ट्रीय मूर्ति भंजक अभियान की निगाहें राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे अशोक की लाट और भारत माता जैसी काल्पनिक किन्तु राष्ट्रवादी अवधारणाओं को विकृत / विद्रूप करने लगीं. इसी अपनी-अपनी स्वेच्छाचारिता की आकांक्षा का आग्रह है जनतंत्र को लोकपाल के बहाने अपनी फ़ुटबाल बनाते केजरीबाल के आन्दोलन की.  औरंगजेब के समय से चला मूर्ति भंजक अभियान अभी जारी है...कोई कभी मुम्बई में आज़ाद मैदान में शहीद जवानो के स्मृत स्मारक को तोड़ रहा है तो कोई अशोक की लाट के सर्वमान्य राष्ट्रीय सम्प्रभु प्रतीक की विकृत प्रस्तुति को अपनी स्वतंत्रता बता रहा है. सावधान, आगे लोकतंत्र का खतरनाक मोड़ है...जो लोग आज राष्ट्रीय प्रतीक तोड़ रहे हैं या उनको विकृत/ विद्रूप कर रहे हैं कल अगर उनको मौक़ा मिला तो राष्ट्र को भी ऐसा ही विकृत /विद्रूप बना देंगे."-----राजीव चतुर्वेदी


Wednesday, September 12, 2012

झांको उसमें अक्स तुम्हारा भी उभरेगा

"कविता पारिभाष है या आभाष ?---मुझे क्या मालुम
मैंने जो लिखा उसमें शब्द की तुकबंदीयाँ तो थीं नहीं
लय थी प्रलय की और उसमें विचारों का बसेरा था 
सांझ थी साझा हमारी और चुभता सा सबेरा था
देह से मैं दूर था पर स्नेह के तो पास था
मेरा प्यार भी था प्यार सा सुन्दर सलोना
एक गुडिया का खिलौना ...एक बच्चे का बिछौना ...एक हिरनी का हो छौना
प्यार का मेरे बहन उनवान लिखती थी
प्यार का मेरे खिड़कियों से झांकती खामोशियाँ अरमान रखती थीं
काव्य में मेरे महकते खेत थे,...खेतों में खडी इक भूख थी...गाय का बच्चा और उसकी हूक थी
नागफनी के फूल परम्परा से कांटे थे
घाव मिले थे हमको वह भी तो बांटे थे
कविता में मेरी तैरा करती नाव नदी में आशंकित सी
कविता में मेरे सर्द हवाएं थी...तूफानों को लिए समन्दर था
मेरे शब्दों में सिमटा था कोलाहल मेरे अन्दर था
कविता में मेरी आंधी थी...देवदार के पेड़, चिनारों की चीखें थीं
केसर की क्यारी में अंगारों की खेती थी
तितली थी फूलों पर बैठी आंधी से बेख़ौफ़ प्यार की परिभाषा सी
आंसू की वह बूँद पलक पर टिकी हुयी भूगोल दिखाती सी
मेरे आंसू की वह बूँद पलक पर कविता जैसी झलक रही है
झांको उसमें अक्स तुम्हारा भी उभरेगा."
----राजीव चतुर्वेदी   

Tuesday, September 11, 2012

वह शब्द रक्त से व्यक हुए हैं

"मेरा मौन
गिर कर टूटा था जमीन पर
एक खनक के साथ
मेरी उंगलीयाँ बटोरती हैं मौन के टुकड़े
खून मेरा है ...उंगलीयाँ मेरी हैं ...ख्वाब मेरे हैं ...ख्वाहिशें तेरी हैं
जो शब्द बिखरे हैं तेरे हमशक्ल से क्यों हैं ?
इन शब्दों की आहत सी आहट में संगीत सुनो तो सुन लेना
उसमें धड़कन मेरी भी शामिल है
वह शब्द रक्त से व्यक हुए हैं
सपने मेरे सिसकी तेरी भी शामिल है
आवारा अहसास हमारा लाबारिस है."
----राजीव चतुर्वेदी  


Monday, September 10, 2012

बुद्धिजीवी और बुद्धिखोर का अंतर ही अभिव्यक्ति की आज़ादी की अंतरकथा है

"बुद्धिजीवी और बुद्धिखोर का अंतर ही अभिव्यक्ति की आज़ादी की अंतरकथा है. इसके बीच से जाती है पत्रकारिता की पगडंडी. चूंकि पत्रकारिता बाजार है सो बाजार का आचरण और बाजार का व्याकरण लागू होना ही था, सो होगया. जब पत्रकारिता बाजार में है तो बिकाऊ होगी ही. ऐसे में सच दो प्रकार का हो जाता है, एक  --बिकाऊ सच और दूसरा टिकाऊ सच . टिकाऊ सच वाले बुद्धिजीवी कहे जाने के हकदार हैं और बिकाऊ सच गढ़ने और मढने वाले बुद्धिखोर. आज राजनीति और नौकरशाही में हरामखोर तथा पत्रकारिता में बुद्धिखोर प्रचुर मात्रा में हैं--एक खोजो हजार  मिलते हैं. मांग से ज्यादा आपूर्ति है इसलिए इन हरामखोरों और बुद्धिखोरों का बाजार भाव गिर गया है. पत्रकारिता में किसी विचारधारा को चिन्हित कर प्रसार संख्या बढाने का हथकंडा उतना ही पुराना है जितनी हमारी आजादी. जैसे ही देश में समाजवादी विचारधारा का उदय हुआ याद करें पत्रकारिता के क्षेत्र में "दिनमान" नामक समाचार पत्रिका ने दस्तक दी. अनजाने में समाजवादी विचारधारा ने दिनमान के होकर का काम किया और दोनों ही खूब चलीं. फिर समाजवादी विचारधारा का लोहिया की मृत्यु के बाद पराभव हुआ तो दिनमान भी बंद हो गयी. १९७७ में कोंग्रेस विरोधी लहर पर सवार हो कर ई समाचार पत्रिका "माया" को याद करें. ग़ैर कोंग्रेसवाद के प्रथम दौर का खात्मा वीपी सिंह से मोहभंग के साथ ही हो गया सो माया भी बंद हो गयी. इस बीच अंग्रेजी में सन्डे और हिन्दी में रविवार आयीं किन्तु ग़ैर कोग्रेसवाद की नकारात्मक विचारधारा के पतन के साथ इनका भी प्रकाशन बंद हो गया किन्तु इस बीच इंडियन एक्सप्रेस प्रकाशन ने हिन्दी में जनसत्ता का प्रकाशन किया यह उस कालखंड की घटना थी जब इन्द्रा गांधी की ह्त्या हुई थी और फिर राजीव गांधी विराट बहुमत हासिल कर प्रधानमंत्री बने थे लेकिन दिल्ली की नाक के नीचे हरियाणा में देवीलाल ने ग़ैर कोंग्रेसवाद का झंडा फहरा कर सरकार बना ली. जब जनता दल की सरकार बनने जा रही थी तब वीपीसिंह और चन्द्र शेखर के बीच कौन प्रधानमंत्री बनेगा यह द्वंद्व हुआ. ऐसे में शक्ति संतुलन के पासंग देवी लाल थे और देवी लाल को रहस्यमय तरीके से चन्द्र शेखर से विश्वासघात करके वीपी सिंह की तरफ करने  का मायाबी काम किसी राजनैतिक व्यक्ति ने नहीं किया था बल्कि जनसत्ता के प्रधान सम्पादक प्रभाष जोशी ने किया था. क्या यह राजनैतिक धड़ेबाजी पत्रकारिता का काम था या पत्रकारिता में लाइजनिंग जैसी विधाओं का घालमेल ? खैर ग़ैर कोंग्रेसवाद के अवसान के साथ ही जनसत्ता भी ख़त्म होगया और प्रभाष जोशी राज्य सभा में येन केन प्रकारेण पहुँचने की अभिलाषा लिए प्रखर और प्रतापी पत्रकार का संतापी स्वरूप लेकर दिवंगत हो गए. आपातकाल की प्रेस सेंसरशिप (१९७५-७७ ), फिर राजीव गांधी का मानहानि विधेयक (१९८४-८५) और अब मन मोहन सिंह का सोसल साईट सेंसर का प्रयास लोगों को यह दलील देता है कि प्रेस की स्वतंत्रता पर तीनो बार कोंग्रेस के समय ही हमला किया गया पर यह अर्ध सत्य है. क्या समाजवादी मुलायम सिंह की सरकार ने उत्तर प्रदेश में प्रेस पर हल्लाबोल नहीं किया था ? क्या कांसी राम ने लखनऊ में दैनिक जागरण पर हमला नहीं किया था ? क्या ममता बनर्जी प्अभिव्यक्ति की आजादी बर्दाश्त करती हैं ? क्या कारगिल युद्ध के बाद ताबूत घोटाले के आक्षेपों से क्षुब्ध अटल सरकार ने प्रेस पर दबाव नहीं बनाया था ?  इस परिदृश्य में पत्रकारिता में बुद्धिजीवी लुप्तप्राय प्रजाति है और बुद्धिखोर उपलब्धप्राय प्रजाति. यह बुद्धिखोर पत्रकार ख्याति पाने के लिए विवाद का मवाद बनने की जुगत लगा ही लेते हैं. अन्ना आन्दोलन इसका ताजा उदाहरण है. कई बुद्धिखोर अपने बिलों से निलाल पड़े और देश में क्रान्ति के कुटीर उद्योग ही चल पड़े. प्यार की ईलू -ईलू कवितायें लिखने वाले कुमार विश्वास क्रान्ति के स्वयंभू प्रवक्ता हो गए और कवि सम्मलेन में उनकी दिहाड़ी बढ़ गयी इस प्रकार एक विचारधारा पर चढ़ कर वह बाजार के कीमती कवि और सफल बुद्धिखोर हो गए. असीम त्रिवेदी भी छः माह पहले तक देश में ढंग से नहीं जाने जाते थे पर आज वह चर्चा की गुलेल पर सवार हैं. पर सवाल है क्या बाजारू हथकंडे से राष्ट्रीय प्रतीकों से खेला जा सकता है ? क्या राष्ट्रीय प्रतीक हमारा खिलौना हैं या उनका सार्वभौमिक सम्मान हम सभी की संवैधानिक वाध्यता है ?   क्या सपा नेता आज़म खान द्वारा भारत माता को डायन कहना जायज था ? ...क्या कश्मीर में तिरंगा झंडा अलगावबादीयों द्वारा सडक पर जूतों से कुचला जाना जायज था ? क्या कहीं भारतीय संविधान को जलाया जाना जायज है ? --अगर नहीं तो फिर किसी कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी द्वारा भारतीय सम्प्र्क़भुता के प्रतीक चिन्ह अशोक की लाट के शेरों के मुह को कुत्ते का मुह बना कर प्रस्तुत करना भला कैसे जायज है ? आप राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों को कुरूप भला कैसे कर सकते हैं ? यह सही है कि अन्ना के आन्दोलन को उकेरते हुए असीम अच्छे सम्प्र्षित करने वाले कार्टून बना रहे थे पर यह भी सही है कि इसी अतिरेक में उन्हें अपनी सीमाओं का ध्यान नहीं रहा और मर्यादा का उलंघन कर बैठे. स्वतन्त्रता और स्वच्छंदता में अंतर होता है.   व्यंग व्यवस्था पर होना चाहिए अव्यवस्था का प्रतिपादक नहीं. यहाँ Facebook पर अभिषेक तिवारी (राजस्थान पत्रिका ) ,श्याम जगोटा और श्री कुरील बहुत ही पैनी  अभिव्यक्ति के व्यंग चित्र बना रहे हैं. व्यंग व्यवस्था के स्वरुप को बरकरार रखने के लिए हो तो आग्रह है और व्यवस्था को कुरूप बनाता तो तो दुराग्रह .व्यंगों की भी एक आचार संहिता तो है ही." ----राजीव चतुर्वेदी        

Wednesday, September 5, 2012

आरक्षण भारतीय राजनीति के इतिहास का उपहास है


"आरक्षण भारतीय राजनीति के इतिहास का उपहास है. जब भी कोई राजनेता ---"देश को खा नहीं पायेंगे तो बिखेर ही देंगे " के हथकंडे अपनाता है तो अंत में आरक्षण का दांव अजमाता है. मोरारजी के प्रधानमन्त्रित्व काल में जब चरण सिंह की प्रधान मंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ने अंगड़ाई ली तो उन्होंने मंडल कमीशन का दाव खेला. चरण सिंह ने जैसे ही "सता अजगर की" का नारा दिया यानी " अ" से अहीर, "ज" से जाट और गूजर का "गर" हो गया अजगर, तब से जाट अपनी दम पर नहीं बल्कि कृपा से सत्ता के गलियारे में दखलंदाजी कर पा रहे है. देखलें उनके बेटे अजीत सिंह को. चरण सिंह का "अजगर" अब मुलायम सिंह का "अगर -मगर" हो गया . फिर वी .पी.सिंह ने सत्ता सम्हाली तो देवीलाल की महत्वाकांक्षा ने प्रधानमंत्री बनने की अंगड़ाई ली तो राजनीति के ट्रंपकार्ड की तरह वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिश लागू करदीं. किन्तु अपने चरित्र के अनुसार मंडल कमीशन का भष्मासुर वी.पी. सिंह को भष्म कर गया और देवी लाल भी राजनीतिक हुतात्मा हो गए . फिर अर्जुन सिंह की महत्वाकांक्षाओं ने अंगड़ाई ली किन्तु राजनीति में और उठने से पहले ही ऊपरवाले ने उनको उठा लिया और उनकी फोटो पर जनता में जूते की पर घर पर गेंदे की माला पड़ने लगी. अब यही आरक्षण का अजगर कोंग्रेस ने अपनी सत्ता बचाने के लिए आख़िरी दांव की तरह इस्तेमाल किया है. कोयले और थोरियम के घोटालों के बाद प्रति माह नए घोटालों के निबाले खाती कोंग्रेस अब इसे पचा पाने की क्षमता नहीं रखती थी सो जन बहश का रुख आरक्षण के दांव से मोड़ने की आख़िरी कोशिश है. पर अब तक का आरक्षण का इतिहास साक्षी है कि जिस सरकार ने भी इसका कार्ड खेला वह सरकार बेकार हो गयी और नेता इतिहास का उपहास बन गया. जिन नेताओं ने इसकी राजनीति की वह वक्त की कम्पोस्ट खाद बन कर दूसरों की राजनीति को उपजाऊ बना रहे हैं जैसे शरद यादव अब आपने ही पार्टी के नितीश के मारे बिहार में नहीं घुस पाते पर दिल्ली की राजनीति की कम्पोस्ट खाद तो हैं ही. राम विलास पासवान का राजनीतिक चिराग बिहार में और वंश का चिराग मुम्बई में गुल ही हो चुका है. दलितों के चंदे पर पलता बांदा उदित राज अक्ल से कम्पोस्ट खाद जैसा महकता है और शक्ल से कम्पोस्ट खाद है ही. कभी कांसीराम की कमसिन बहन मायावती आज प्रौढ़ हो चुकी है. बहुजन की जगह सर्वजन की सत्ता की बात करने लगीं और कांसी राम की मृत्युपरांत वैकल्पिक व्यवस्था में सतीश चन्द्र मिश्रा के ब्रम्ह्नात्व को अंगीकार करके सत्ता की तुरुप का का पत्ता खेल ही चुकी हैं. कुल मिला कर इतिहास के उपहास की पुनरावृत्ति होने जा रही है और नेष्ठ कोंग्रेस की राजनैतिक अन्तेष्ठी के नक्षत्र बन चुके हैं." -----राजीव चतुर्वेदी

अब्राहम लिंकन का पत्र अपने बेटे के शिक्षक के नाम


"मैं जानता हूँ और मानता हूँ कि
हर व्यक्ति न तो सही ही होता है और नहीं होता है सच्चा
नेक लोगों के विचार एक हों यह जरूरी भी नहीं

सिखा सकते हो तो मेरे बेटे को सिखाओ कि कौन बुरा है और कौन अच्छा

बता सकते हो तो उसे बतान कि चालाक और विद्वान् में अंतर होता है
दुष्ट लोगों की सफलता का सच भी उसे बताना
पर यह जरूर बताना कि बुरे यं
त्रणा और आदर्श प्रेरणा देते हैं
सभी नेता स्वार्थी ही नहीं होते समर्पित नेता भी होते हैं हालांकि कम ही होते हैं
समाज में शत्रु और मित्र पहले से नहीं होते, बनाने से बनते हैं
कुरूप और स्वरुप दृष्टि के अनुरूप होते हैं
बता सकते हो तो उसे बताना कि
करुणा पाने से बेहतर है करुणा जताना
कृपा से मिले बहुत से बेहतर है मेहनत से थोड़ा पाना
सिखा सकते हो तो उसे सिखाना कि हार के बाद भी मुस्कुराना
बता सकते हो तो उसे यह भी बताना कि
ईर्ष्या और द्वेष "प्रतियोगिता की भावना" के प्रतिद्वंद्वी हैं
जितनी जल्दी हो उसे यह बताना कि
दूसरों को आतंकित करने वाला दरअसल स्वयं ही आतंकित होता है
क्योंकि उसके मन में ही चोर होता है,

उसे दिखा सको तो दिखाना किताबों में खोया हुया खजाना

पर यह भी बताना कि
दूसरों की लिखी किताब पढने वालों से बेहतर है खुद किताब बन जाना
उसको इतना भी नहीं पढ़ाना कि भूल जाए वह अंतर्मन के गीत गुनगुनाना
उसको चिंता और चिंतन का समय देना ताकि वह जाने झरनों का निनाद
मधु मक्खी का गुनगुनाना .फूलों की महक ,चिड़िया की चहक, तारों का टिमटिमाना

उसे सिखा सको तो सिखाना

शातिर सफलता से बेहतर है सिद्धांत के जोखिम उठाना
सत्य स्वतंत्र होता है और साहसी ही विनम्र होते हैं
यों तो रेंगते लोगों की भीड़ है पर नायक तो वही है जिसकी मजबूत रीढ़ है
उसे सिखा सकते हो तो सिखाना
सदमें में मुस्कुराना
वेदना में गाना
लोगों की फब्तियों को मुस्कुरा कर सह जाना
अगर सिखा सकते हो तो उसे यह भी सिखाना
अपने बाहुबल और बुद्धि का संतुलन बनाना
वैसे तो मेरा हर गुरु से यह अनुरोध है
पर चाह लो तो तुम कर सकते हो, इसका मुझे बोध है
हर बच्चे का तुम्हारे साथ एक ही रिश्ता है
समझ लो हर बच्चा एक प्यारा सा फ़रिश्ता है."
----- (अनुवाद --राजीव चतुर्वेदी )


Monday, September 3, 2012

कऊओं की बस्ती में भी कोयल की कूक सवेरा करती है

"गूंगे लोगों से गुफ्तगू करते-करते थक गया हूँ मैं,
दीवारों से जब बात करो तो वह भी गूंजा करती है,
गद्दारों की पीढी सच के आगे रुकती है फिर सोचा करती है
इन आत्ममुग्ध लोगों में कविता क्या कहना ?
कऊओं की बस्ती में भी कोयल की कूक सवेरा करती है."

             ----राजीव चतुर्वेदी
 

Sunday, September 2, 2012

मेरी इच्छा चूल्हे की चिंगारी जैसी

"मेरी इच्छा चूल्हे की चिंगारी जैसी,
और ऊपर फूंस के छप्पर सी दुनिया."

----राजीव चतुर्वेदी