"जिन्दगी के रंग जब रूठे हों मुझसे,-- क्या करूँ मैं ?
रिश्ते रास्तों में कहीं छूटे हों मुझसे ,---क्या करूँ मैं ?
ओढ़ कर तनहाई अपनी सांस की शहनाई सुनता हूँ
अपने अथाही मौन को मैं तोड़ता हूँ अपनी कविता से
संविधानो की शपथ के शब्द जब झूठे हों मुझसे --क्या करूँ मैं ?" ----राजीव चतुर्वेदी
रिश्ते रास्तों में कहीं छूटे हों मुझसे ,---क्या करूँ मैं ?
ओढ़ कर तनहाई अपनी सांस की शहनाई सुनता हूँ
अपने अथाही मौन को मैं तोड़ता हूँ अपनी कविता से
संविधानो की शपथ के शब्द जब झूठे हों मुझसे --क्या करूँ मैं ?" ----राजीव चतुर्वेदी