"यद्यपि मैं दारू के स्वाद से अभी तक वंचित हूँ
...यह मेरे पुरखों का संस्कार था या अभिशाप मुझे क्या मालुम ? ...लेकिन यह
तय है कि दारू एक कालजयी पेय है ...देवता हों या दानव सभी इसको पी कर टुन्न
रहते थे ...सुर सुरा पीते थे ...ससुरे पियक्कड़ ...मौलवी
जी बताते हैं कि दारू पीना हराम है तो अपने मजहब के हरामियों की संख्या भी
गिन लें वैसे उनको शायद यह नहीं पता कि "अल -कोहल" अरबी का मूल शब्द है
...अजीब तासीर है इस दिव्य पेय की कि पीने वाले के मुंह में बबासीर हो जाता
है ...जो देसी पीता है वह देशी गालियाँ बकता है और जो अंगरेजी पीता है वह
अंगरेजी गालियाँ बकता है ...दारू रिश्तों में रिरियाती है पर रिश्वत का
सबसे कारगर उपाय है ...दारू गांधी के मद्य निषेध के नारे की कब से हवा
निकाल चुकी है और सरकारी आय का बड़ा माध्यम है ...एक किस्सा है --मिर्ज़ा
ग़ालिब ने एक मौलवी को चुनौती दी -- "गर है हिम्मत तो मस्जिद हिला के देख
...वरना आ मेरे पास ...थोड़ी पी और हिलती हुयी मस्जिद देख ." ...ईसा के
अनुयाईयों ने भी खूब दारू पी और पिलाई और तमाम मोनालिसा की रोती सूरत
उन्हें मुस्कुराती नज़र आयी ...वैसे ठेके पर ठर्रा जिसने चढ़ाई उसको नाली भी
संगम या आब -ए -जमजम नज़र आयी ...इसीलिए कहता हूँ दारू एक कालजयी धर्म
निरपेक्ष पतित पावन पेय है ." -----राजीव चतुर्वेदी
Wednesday, March 20, 2013
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