लो हम आ गए हवा के ताजे झोंके की तरह। इस बीच कुछ भी नहीं बदला। बदला है तो बस कैलेंडर का फड़फड़ाता पन्ना। एक बार फिर 'गण' की सवारी करने तिरंगा हाथ में लेकर 'तंत्र' आ गया। गणतंत्र दिवस पर 'गण' गुनगुनाएगा ''जन-गण-मन अधिनायक जय हे! भारत भाग्य विधाता।'' कौन है और कैसा है भारत का यह 'जन-गण-मन' और क्यों अधिनायक की जय कर रहा है? 'अधिनायक' यानी तानाशाह की जय जहां होगी, वहां फिर लोकतंत्र कैसा? दर्शन शास्त्र की दो विधाएं हैं- नीतिशास्त्र और तर्कशास्त्र। तर्कशास्त्र का सिद्धांत है कि ''जब आधार वाक्य ही गलत होगा तो निष्कर्ष सदैव भ्रामक निकलेंगे।'' यही हो रहा है हमारे राष्ट्रगान के साथ। इसका आधार वाक्य 'जन-गण-मन अधिनायक जय हो' ही गलत है तो निष्कर्ष भी भ्रामक ही होगा। निष्कर्ष से यहां अभिप्राय 'जनादेश' से है। गुजरे साठ सालों में भारतीय 'जन-गण-मन' की कमर 'तंत्र' की तानाशाही ने तोड़ दी है और अधिनायक की जय-जयकार करते हुए देश में खलनायक तो खूब हैं पर 'लोकनायक' के जन्म की संभावना शेष नहीं है।
राष्ट्र के प्रतीक नामों पर गौर करें- गांधी, लोकमान्य तिलक, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अश्फाक उल्ला, जयप्रकाश नारायण, सावरकर आदि-आदि। सभी आजादी से पहले जन्मे थे। स्वतंत्र होने के बाद देश का वातावरण ऐसा नहीं रहा कि इस तरह के एक भी प्रतीक चरित्र यह राष्ट्र पैदा कर पाता। परिणाम कि गुलाम भारत के युवाओं के प्रतीक सुभाष होते थे तो आज शाहरुख खान हैं। इसीलिए तल्खी में एक तनकीद की गई है- ''गालिब ने झुककर टैगोर के कान में कुछ यूं कहा- चुप रहो अब मुल्क का कौमी तराना ईलू-ईलू हो गया।'' देश का युवा अब गांधी, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस जैसा नहीं बनना चाहता। वह इस छल को जान चुका है कि राष्ट्र के लिए खून देने वाले लोग इस राष्ट्र के अधिनायकवादी तंत्र द्वारा भुला दिए जाते हैं और याद किए जाते हैं वह लोग जिनके बाप-दादे अंग्रेजों के समय चाटुकारिता कर रायबहादुर, राय साहब बने थे और आज भी आनंद में ओत-प्रोत हैं। रानी लक्ष्मीबाई के किसी वंशज का कहीं कोई पता है? वह भारत की स्वतंत्रता सेनानी थी इसीलिए। लेकिन 'सिंधिया' को सभी जानते हैं, जबकि इस खानदान द्वारा अंग्रेजों की तरफदारी करके रानी झांसी लक्ष्मीबाई मरवा दी गई थीं।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाखंडी च्यवनप्राश खाने वाले भाजपाइयों को राजमाता सिंधिया आदरणीय लगती थीं, किंतु रानी झांसी का कोई वंशज नहीं। माधवराव सिंधिया सत्ता भोगे और छोड़ गए अपने पीछे ज्योतिरादित्य सिंधिया। उधर राजस्थान में भी वसुंधरा राजे सिंधिया भाजपा की कृपा से मुख्यमंत्री पद भोग चुकी हैं और यशोधरा राजे सिंधिया भी 'जन-गण-मन' की छाती पर सवार हैं। रामप्रसाद बिस्मिल की बहन शाहजहांपुर में चाय की गुमटी लगाए अगर उदास आंखों से तिरंगा देखती हैं तो देखा करें। बिठूर में नाना फड़नवीस और तात्या टोपे के खानदानियों का कोई पुरसाहाल नहीं है। तो 'अधिनायक जय हो' करते करते हमने किस 'भारत' के कौन से 'भाग्य विधाता' बना डाले? यह भारत तो भाग्यविधाता है राहुल, प्रियंका, ज्योतिरादित्य और जितिन जैसे लोगों का। हम तो इस राजतंत्र में रहते हुए मंथरा के वंशज बना दिए गए हैं। हम बच्चों को देश का लोकतांत्रिक संचालक स्वामी नहीं नौकर बनाना चाहते हैं। फिर चाहे वह प्रथम श्रेणी हो या चतुर्थ श्रेणी। 'अधिनायक' की जय जयकार करते हुए इतिहास की पगडंडियों पर हमारा जो उपहास हुआ है उसे हम भूले नहीं हैं। फिर भी लोकतंत्र के नाम पर षड्यंत्र करते हुए जो खलनायक 'अधिनायक' बन बैठे उन पर हमने कभी गौर किया? सत्ता के सभी अंग- न्यायपालिका, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका अपनी-अपनी सुविधाओं की तानाशाही पर आमादा होकर 'अधिनायक जय हो' कर रहे हैं। न्यायपालिका का चेहरा भ्रष्टाचार के आरोपों से आक्रांत दिख रहा है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के जज अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने से कतरा रहे हैं। भविष्य निधि घोटाला जैसे सुनियोजित घोटाले भी अब उजागर हो रहे हैं। मुलायम सिंह - अमर सिंह की कृपा से सर्वोच्च न्यायालय का एक मुख्य न्यायाधीश अगर नोएडा में बेशकीमती जमीनें पा जाता है तो दिनाकरन मुद्दे पर दूसरे खुलकर जातिवादी कार्ड खेलते नजर आ रहे हैं। वैसे भी 'न्याय' नागरिक को मुफ्त में तो नहीं मिलता। पेशकार अहलमद के गुलछर्रे का गणित तो सभी जानते हैं और किसका कौन खास है इसका भी ख्याल न्यायनीति निर्धारित करती है। लेकिन अवमानना का कानून हमें बोलने और पूछने से रोकता है। अब भला जज साहब से यह कौन पूछे कि- आप के पास आय के ज्ञात स्त्रोत से अधिक पैसा कैसे आया? कभी सुना है कि किन्हीं जज साहब के यहां आयकर का छापा? यह थी न्यायपालिका के अधिनायक की जय।
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