Friday, January 22, 2010

संक्रमित समाजवाद

  • सवालों की सूली पर सैफई का सूरमा
सोचा भी न था कि सपा सहम जाएगी। सहम गई वह भी शिखण्डी से। पुरुषार्थ की पोल और अब उसका ढोल बज उठा है। बनिएनुमा बाबू साहब की बगावत एक ओर ठिठकी खड़ी है दूसरी ओर मुलायम इस उड़ती चिड़िया को चुगा डाल रहे हैं। इस बीच सैफई (इटावा) से चले समाजवाद के स्वरूप भी बदले हैं और संस्कार भी। लोहिया का लाल टोपी वाला समाजवाद, करहल (मैनपुरी) के विधायक नत्थू सिंह का समाजवाद, कमाण्डर अर्जुन सिंह भदौरिया के साथ सीखा समाजवाद कुइया गांव के चौधरी शालिग्राम, चौधरी रामस्वरूप से सखा भाव में सीखा समाजवाद, पूर्वज पत्रकार देवी दयाल दुबे के देश धर्म अखबार की इबारत बनने वाला समाजवाद बहुत पीछे छोड़ आज समाजवादी पार्टी ने स्वयं को वैचारिक वीरानगी भोगने को अभिशप्त कर लिया है। वैसे तो लोहिया के सपनों को भी आसान किश्तों में श्रद्धांजलि देने का सिलसिला 1980 में ही शुरू हो गया था, लेकिन सतह पर तब आया जब बनियेनुमा ठाकुर अमर सिंह ने फिलहाल ही फिरोजाबाद की हार न पचा पाने की पहली डकार ली थी। इस बीच लोहिया का समाजवाद साइकिल से उतरकर सुब्रतराय सहारा के हवाई जहाज पर चढ़-उतर रहा था और साइकिल लावारिस थी। स्वाभिमानी साइकिल सवार समाजवादियों की सुध तो तभी आती थी कि जब चुनाव हों। समाजवादी चरित्र के पतन की परिक्रमा पूरी हो चुकी है अब नई पारी की नई तरह से शुरुआत हो तो बात बने, और बात भी किसकी? - प्रोफेसर राम गोपाल की, अखिलेश की, शिवपाल की, प्रतीक की। यही असमय का असमंजस सपा को संघर्ष की सड़क पर नहीं आने दे रहा बल्कि कमरों की कलह में कैद किए है।
दूसरों के राज सत्ता के मार्ग में बबूल बोने की प्रवृत्ति का पराभव अपने पैरों में चुभते अपने ही बोए बबूल के कांटे निकालते हो रहा है। 1980 में समाजवादी नेता कमाण्डर अर्जुन सिंह भदौरिया को इटावा लोकसभा से हराने के लिए रामसिंह शाक्य का जातीय गणित कौन सा समाजवाद था? कभी भी अपने बलबूते संसद न देख पाने वाले बसपा के साहब कांशीराम को इटावा से लोकसभा भेजकर मुलायम सिंह ने अपने लिए भविष्य का भस्मासुर तैयार किया था। उत्तर प्रदेश में सरकार भी बनाकर एक नए जातीय राजनीतिक शिल्प का शिलान्यास भी कर डाला था। आज उन्हीं कांशीराम की बसपा और बसपा की सुप्रीमो मायावती मुलायम सिंह को राजनीतिक रूप से मुलायम कर चुके हैं।
इस बीच सैफई से चला समाजवाद धीरे-धीरे सम्पन्न होता हुआ नव सामन्तवाद का शहरी स्वरूप हो चुका है। अमर सिंह की अगुवाई में समाजवादी पार्टी का समाजशास्त्र कमजोर और अर्थशास्त्र बहुत मजबूत हुआ है। राजनीति के तुरुप के पत्ते अब चले जा चुके हैं। डकैत फूलन देवी को जब राजनीति में लाए थे तब सपा का चेहरा ठाकुर विरोधी उभरा था, क्योंकि  बेहमई काण्ड में फूलन देवी पर ठाकुरों के सामूहिक संहार का कलंक था फिर फूलन देवी के दिल्ली में सपा के इटावा सांसद के पास जाते हुए हुई रहस्यमयी हत्या और अमर सिंह की उतनी ही रहस्यमयी सपाई शुरुआत अभी लोग समझ भी न पाए थे कि इटावा में विजय सिंह सेंगर - एडवोकेट के परिवार की रहस्यमय हत्या बदलते सामाजिक व चारित्रिक समीकरणों के सवाल ही खड़े कर गई।
संघर्ष से कतरा रहे हैं मुलायम
दरअसल सुविधाजीव हो चुकी सपा में अब संघर्ष का माद्‌दा शेष नहीं बचा है। जातीय गणित का झुनझुना अब बेसुरा सा लगता है। बिखरते वोट बैंक की राजनीति तभी संभल सकती थी कि जब मुलायम सिंह बसपा से कोई संघर्ष करते पर वह बड़ी चालाकी से संघर्ष करने से कतरा रहे हैं। वह अब राजनीतिक युद्ध करना नहीं चाहते महज युद्ध करते हुए दिखना चाहते हैं। 'छवि' बनाने के काम में अब 'प्रेस' का एक खास वर्ग भी उनके साथ नहीं क्योंकि 'विवेकाधीन कोष' अब उनके विवेक पर भारी नहीं पड़ पा रहा है और वह उसकी व्यावहारिक पुनरावृत्ति चाहते हैं। बाबरी मस्जिद की शहादत से बना 'मुया' यानी मुसलमान-यादव गठजोड़ बाबरी मजिस्जद की इस बरसी पर पर ढह गया। इलाहाबाद के अतीक अहमद, रामपुर के आजम खां, बलरामपुर के रिज़वान जहीर इस्तेमाल हो चुके खाली डिब्बों से बाहर फेंके जा चुके हैं। कुर्मी नेता बेनी प्रसाद वर्मा, लोधी नेता गंगाचरण राजपूत, धनीराम वर्मा एक-एक कर डूबते जहाज से कूद-कूद कर भाग चुके हैं। दरअसल मुलायम सिंह को सत्ता की पालकी ढोने वाले कहार चाहिए थे, क्रान्तिकारी कद्दावर स्वाभिमानी नेता नहीं। इसीलिए सपा में भगदड़ है और हमले के पहले ही यह लोग हताश दिखाई दे रहे हैं।
समाजवाद की अगुवाई अब छात्र राजनीति के मोहन सिंह या आनंद कुमार जैसे समझदार लोग नहीं करते। अब तो तबले, हरमोनियम और सारंगी से समाजवाद की धुन सुनाई जा रही है और लोहिया के समाजवादी स्वप्न-दोष की नायिका हैं जयाप्रदा। अमर सिंह के साक्षात दर्शन भर से मृत लोहिया की तस्वीर भी आंदोलित हो जाती होगी ऊपर से नए समाजवादी संजय दत्त की नई नवेली 'सेकिंड हैंड' बीवी मान्यता से लेकर मनोज तिवारी का समाजवाद सुब्रत राय सहारा और अनिल अंबानी का समाजवाद सैफई के समाजवादियों को संकट के समय न उधर करहल की तरफ दिख रहा है इधर हेंबरा इटावा की तरफ। सवाल यह भी है कि जयाप्रदा जैसों की जनानी क्रान्ति कितना समाजवाद लाई है? और अमर सिंह की ''देहिक - दैविक- भौतिक ताप'' हरने की क्षमता की सपा को क्या और जरूरत नहीं है?
इस बीच सियासत की सड़क पर कई साथ आए और गए। 1984 में मैनपुरी करहल के पास मईखेड़ा गांव में मुलायम सिंह पर कातिलाना हमला हुआ था। करहल विधायक रहे चौधरी नत्थू सिंह यादव ने स्तम्भ की तरह मुलायम सिंह का साथ दिया था। वैसे भी नत्थू सिंह यादव को ही मुलायम सिंह को छात्र राजनीति से विधायी राजनीति में लाने का श्रेय है। यह दौर वह था कि जब बलराम सिंह यादव के राजनीतिक-आपराधिक दबदबे से मुलायम सिंह भी आक्रांत थे। धीरे-धीरे मुलायम सिंह यादवों के एक मात्र नेता के रूप में उभरे और इस क्रम में बड़े यादव छत्रप हशिए पर धकेल दिए गए। करहल में नत्थू सिंह के बेटे सुभाष यादव, इटावा में दर्शन सिंह यादव, रामसेवक (गंगापुरा), शिकोहाबाद में अशोक यादव, एटा में लटूरी सिंह और फिर उनके बेटे अवधपाल यादव, बुलंदशहर में डी.पी. यादव, आजमगढ़ में उमाकांत रमाकान्त यादव, फैजाबाद के मित्रसेन यादव आदि। यही उत्थान के दांव पतन की पगडंडी कब बन गए सैफई के सूरमाओं को पता भी नहीं चला। यादव राजनीति पूरे परिवार से आक्रान्त हो गई और आज समाजवादी पार्टी एक राजनीतिक दल नहीं बल्कि व्यापारिक फर्म के स्वरूप में है - 'मुलायम सिंह एण्ड सन्स प्राइवेट लिमिटेड' और 'मुलायम सिंह ब्रदर्स प्राइवेट लिमिटेड'। कभी छोटे लोहिया यानी जनेश्वर मिश्र का कद समय के साथ बढ़ा नहीं, घटकर और छोटा हो गया। यादवों में सवाल है कि इस 'प्रथम' प्रतीत होते राजनीतिक परिवार की बहुएं गैर यादव जातियों से क्यों हैं? सैफई के यादव क्या प्रतीक को भी अखिलेश जैसा ही शत-प्रतिशत यादव मानेंगे? क्या मुलायम के साथ समाजवादी पार्टी भी बूढ़ी हो चली है या अखिलेश की अगुआई में अंगड़ाई अभी शेष है?
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in January 16, 2010 Issue)

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