Tuesday, March 16, 2010

सार्थक संपादक का संकल्प

'मैं राह का चिराग हूं, सूरज तो हूं नहीं,
जितनी मेरी बिसात है जला जा रहा हूं मैं।'
 
काफिले गुजर रहे हैं। विस्थापित हो रही सभ्यताओं संस्कृति और सामाजिक मूल्यों के काफिले। काफिले भी आ रहे हैं नए संस्कारों, सभ्यता और संस्कृति के काफिले। इस स्थापना और विस्थापना के बीच। इस सृजन, उत्सर्जन और विसर्जन के बीच विश्वास और विवशता के नारे हैं। हमारी राह क्या हो? यह बेबसी है, बेचैनी और विडम्बना भी। आज इसी दो राहे पर मंडी लगी 'मीडिया मंडी'। इस 'मीडिया मंडी' में कुछ शब्द टिकाऊ हैं, किन्तु अधिकांश बिकाऊ।
 
विज्ञापन खबरें बनाकर बेचे जा रहे हैं। अधिकांश अखबार लोकतंत्र के यंत्र नहीं षड्यंत्र बन चुके हैं। केवल सुविधाजनक सत्य की ही पल्लेदारी हो रही है। दूर-दर्शन भी परोक्षत: देह व्यापार में लिप्त है। वहां भी राहुल दुल्हनिया ले गया है, सुबकती श्वेता (राहुल की पहली पत्नी) को कोई नहीं पूछ रहा। सोनिया गांधी हों या सुषमा स्वराज सभी की वरीयता है संसद, उधर दूसरी ओर आधी आबादी खुले में शौच जाने को अभिशप्त है उसकी वरीयता है शौचालय। संसद व शौचालय के बीच बिखरी सभ्यता की वरीयता और वेदना अलग-अलग है। क्या इस वेदना की वाहक है भारतीय मीडिया?
 
'मीडिया मंडी' यानी 'बाजार' जहां वही बिकेगा जो दिखेगा और वही दिखेगा जो इस मंडी में टिकेगा। जब हम मीडिया के लोग अपना खरीदार तलाशते मंडी में बिकाऊ होकर खड़े ही हो गए तो बाजार का आचरण और बाजार का व्याकरण। फिर संवाददाता, लेखक, सम्पादक, मीडिया मालिक आदरणीय क्यों हों? अब 'समाचार व्यापारी', समाचार कर्मचारी, समाचार आढत, समाचार हलवाई, समाचार चाट। कुल मिलाकर यही परिदृश्य है। मीडिया मंडी की इन वैश्य और वैश्यावृत्ति से असहमत व्यक्ति पर विकल्प क्या है? - कोई नहीं। ऐसे में संकल्प ही शेष है। किसी सार्थक संपादक का संकल्प।
 
मुगलकाल में 'अखबार' शब्द आया। बादशाह को जनता का हाल बताने के लिए दरबार में जो आलेख पढ़ा जाता था उसे 'अखबार' कहते थे। तब हो या अब बादशाह यही चाहते थे कि समाज विभाजित रहे, एक इकाई न बन सके और उसमें परस्पर द्वंद्व जारी रहे। अंग्रेजों ने भी यही किया।
 
गांधी, तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी, मदनमोहन मालवीय, भगत सिंह, रामनाथ गोयनका जैसों ने मीडिया को सूचना, समाचार और विचार का वाहक बनाया ताकि विभक्त भारतीय समाज को संवेदना के सूत्र में बांध कर संगठित किया जा सके। भारतीय समाज ऊष्मा का कुचालक समाज था उसे ऊष्मा का सुचालक समाज बनाया जा सके। यहां ऊष्मा के सुचालक और कुचालक का अन्तर स्पष्ट कर दूं। लकड़ी का कोई लट्ठा अगर एक सिरे से जलाया जाए तो उससे उसका दूसरा सिरा गर्म नहीं होता। वह ऊष्मा का कुचालक है। लोहे की सरिया का एक सिरा भट्ठी में डाल दें तो दूसरा सिरा तपने लगता है। वह ऊष्मा का सुचालक है। महात्मा गांधी आदि ने यही किया था। जम्मू कश्मीर में कुछ हो तो तमिलनाडु सुलगने लगता था। नोआखली में कुछ हो तो गुजरात बेचैन दिखता था।
 
हम आजाद हुए और फिर हमें आसान किस्तों में ऊष्मा का कुचालक बना दिया गया। यही अंतर है असली महात्मा गांधी और शेष बचे फर्जी गांधियों में। दिनमान, रविवार जैसे कई प्रयोग हुए पर कुछ समय टिमटिमा कर राह के ये दिए भी धुआं पहन गए, और वह दिन भी आ गया कि जब संजय गांधी के साथ अपनी जवानी में क्रान्ति कर चुकी अम्बिका सोनी ने मीडिया को प्रवचन देते हुए कह डाला - ''मीडिया जन विश्वास की इस आस्था पर खड़ी है कि उसे लोगों तक सच और उचित सूचनाएं पहुंचानी है। जब पैसे लेकर सूचनाएं समाचारों की तरह पढ़ाई जा रही हों तो वह जनता को दिशा भ्रमित करेंगी और सही निर्णय तक पहुंचने में बाधा डालेंगी। इसलिए इससे इनकार ही नहीं किया जा सकता कि जनता के सही निष्पक्ष सूचना पाने के अधिकार को मीडिया से ही खतरा है और मीडिया की इस प्रकार की चरित्रहीनता से जनता को तुरन्त सुरक्षा देना जरूरी है।'' अम्बिका सोनी ने मंडी में खड़ी मीडिया को प्रवचन दे डाला और अपराध बोध से यह सुन लेना पड़ा। आगे ऐसा न हो, इसका उपचार क्या है?
 
वैकल्पिक मीडिया या संकल्प की मीडिया। हमने तय कर लिया है। हमारा संकल्प ही हमारा सामर्थ्य है। हम प्रयास कर रहे हैं कि हमारे प्रयासों की प्रायोजक भारतीय 'जन-गण-मन' हो। हम आपके सरोकारों वाले सच को लेकर आप तक पहुंचें और आपकी वेदना को बंद पड़े कानों में ठूंस दें। लोकतंत्र के चौकीदारों को हम जगाएं। हमने संकल्प किया है आपको वैकल्पिक मीडिया देने का। हम चल पड़े हैं इन्हीं जज्बात और जुनून के साथ। देखना है कि यह जन चेतना की जरूरतों का जुलूस कब बन पाता है? हम समाज को ऊष्मा का सुचालक समाज बनाने आए हैं। हम पर आईना है और आप पर सूरत-ए-हाल। हम राह के चिराग हैं, हमारा संकल्प है कि हम जलेंगे अंधेरे से जूझने के लिए, नई सुबह के सूरज का स्वागत ही हमारा संकल्प है।
 
हमें विश्वास है कि नई सुबह के नए सूरज के स्वागत में आप भी होंगे हमारे साथ। एक तरह के पत्रकारीय संस्कारों का अगर सूर्यास्त हुआ है तो दूसरी तरह के पत्रकारीय संस्कार दूसरे कोने से उदित हो रहे हैं। सच के पानी की पैमाइश करने वालों को पता है कि उसके नीचे भी दहक रहा है एक ज्वालामुखी। हमारे पास दो ही रास्ते हैं या तो सूरज में अपनी सच की परछाई की पैमाइश कर लें या पैरों तले पाताल में तलाशें सोते हुए ज्वालामुखी।
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in March 20, 2010 Issue)

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