"आरक्षण भारतीय राजनीति के इतिहास का उपहास है. जब भी कोई राजनेता ---"देश को खा नहीं पायेंगे तो बिखेर ही देंगे " के हथकंडे अपनाता है तो अंत में आरक्षण का दांव अजमाता है. मोरारजी के प्रधानमन्त्रित्व काल में जब चरण सिंह की प्रधान मंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ने अंगड़ाई ली तो उन्होंने मंडल कमीशन का दाव खेला. चरण सिंह ने जैसे ही "सता अजगर की" का नारा दिया यानी " अ" से अहीर, "ज" से जाट और गूजर का "गर" हो गया अजगर, तब से जाट अपनी दम पर नहीं बल्कि कृपा से सत्ता के गलियारे में दखलंदाजी कर पा रहे है. देखलें उनके बेटे अजीत सिंह को. चरण सिंह का "अजगर" अब मुलायम सिंह का "अगर -मगर" हो गया . फिर वी .पी.सिंह ने सत्ता सम्हाली तो देवीलाल की महत्वाकांक्षा ने प्रधानमंत्री बनने की अंगड़ाई ली तो राजनीति के ट्रंपकार्ड की तरह वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिश लागू करदीं. किन्तु अपने चरित्र के अनुसार मंडल कमीशन का भष्मासुर वी.पी. सिंह को भष्म कर गया और देवी लाल भी राजनीतिक हुतात्मा हो गए . फिर अर्जुन सिंह की महत्वाकांक्षाओं ने अंगड़ाई ली किन्तु राजनीति में और उठने से पहले ही ऊपरवाले ने उनको उठा लिया और उनकी फोटो पर जनता में जूते की पर घर पर गेंदे की माला पड़ने लगी. अब यही आरक्षण का अजगर कोंग्रेस ने अपनी सत्ता बचाने के लिए आख़िरी दांव की तरह इस्तेमाल किया है. कोयले और थोरियम के घोटालों के बाद प्रति माह नए घोटालों के निबाले खाती कोंग्रेस अब इसे पचा पाने की क्षमता नहीं रखती थी सो जन बहश का रुख आरक्षण के दांव से मोड़ने की आख़िरी कोशिश है. पर अब तक का आरक्षण का इतिहास साक्षी है कि जिस सरकार ने भी इसका कार्ड खेला वह सरकार बेकार हो गयी और नेता इतिहास का उपहास बन गया. जिन नेताओं ने इसकी राजनीति की वह वक्त की कम्पोस्ट खाद बन कर दूसरों की राजनीति को उपजाऊ बना रहे हैं जैसे शरद यादव अब आपने ही पार्टी के नितीश के मारे बिहार में नहीं घुस पाते पर दिल्ली की राजनीति की कम्पोस्ट खाद तो हैं ही. राम विलास पासवान का राजनीतिक चिराग बिहार में और वंश का चिराग मुम्बई में गुल ही हो चुका है. दलितों के चंदे पर पलता बांदा उदित राज अक्ल से कम्पोस्ट खाद जैसा महकता है और शक्ल से कम्पोस्ट खाद है ही. कभी कांसीराम की कमसिन बहन मायावती आज प्रौढ़ हो चुकी है. बहुजन की जगह सर्वजन की सत्ता की बात करने लगीं और कांसी राम की मृत्युपरांत वैकल्पिक व्यवस्था में सतीश चन्द्र मिश्रा के ब्रम्ह्नात्व को अंगीकार करके सत्ता की तुरुप का का पत्ता खेल ही चुकी हैं. कुल मिला कर इतिहास के उपहास की पुनरावृत्ति होने जा रही है और नेष्ठ कोंग्रेस की राजनैतिक अन्तेष्ठी के नक्षत्र बन चुके हैं." -----राजीव चतुर्वेदी
Wednesday, September 5, 2012
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