Sunday, December 22, 2013

मैं हवा हूँ मेरे मित्र ,मेरे साथ चाहो तो बहो वरना घरों में चुपचाप रहो

" मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे साथ चाहो तो बहो
वरना घरों में चुपचाप रहो
तुम पर दर ...उस पर बाजे से बजते दरवाजे हैं
हर मौसम में खीसें निपोरती खिड़कियाँ हैं
मौसम को कमरे में बंद करने का दंभ है
सांसारिक सम्बन्ध है ...काम का अनुबंध है ...सुविधाओं का प्रबंध है
संवेदनाओं का पाखंडी निबंध है
जिसमें शब्दों की बाढ़ किनारे छू कर लौट आती है हर बार
मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे पास अपना कुछ भी नहीं
न दर है न दरवाजा न खिड़की न रोशनदान कोई
कोई बंधन भी नहीं
बहते लोगों के सम्बन्ध नहीं होती
स्वतंत्र लोगों के अनुबंध नहीं होते
निश्छल लोगों के प्रबंध नहीं होते
निर्बाध वेग का निबंध कैसा ?
मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे साथ चाहो तो बहो
वरना बाहर के कोलाहल से
अपने अन्दर के सन्नाटे का द्वंद्व सहो
और कुछ न कहो

देखना एक दिन मैं अपने प्रवाह में लीन हो जाऊंगा
और तुम अपने ही अथाह में विलीन हो जाओगे
तब यह दर ...यह दरवाजे ...यह खिड़कियाँ
तुम्हें हर पूछने वाले से कह देंगे
बहुत कुछ सह गया है वह
हवा में बह गया है वह
चुपके से ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 19, 2013

कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना

"कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और अन्हादों को गुनगुनाना
मरा हुआ व्यक्ति कविता नहीं समझता
मरे हुए शब्द कविता नहीं बनते
ज़िंदा आदमी कविता समझ सकता ही नहीं
ज़िंदा शब्द कविता बन नहीं सकते
कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और अन्हादों को गुनगुनाना
इस लिए भाप में नमीं को नाप
अनहद की सरहद मत देख हर हद की सतह को नाप
कविता संक्रमण नहीं विकिरण है
आचरण का व्याकरण मत देख
शब्देतर संवाद सदी के शिलालेख हैं
उससे तेरी आश ओस की बूंदों जैसी झिलमिल करती झाँक रही है
जैसे उडती हुयी पतंगें हवा का रुख भांप रही हैं
नागफनी के फूल निराशा की सूली पर
और रक्तरंजित सा सूरज डूब रहा है आज हमारे मन में देखो
उसके पार शब्द बिखरे हैं लाबारिस से
उन शब्दों पर अपने दिल का लहू गिराओ
कुछ आंसू मुस्कान मुहब्बत मोह स्नेह श्रृगार मिलाओ
शेष बचे सपने सुलगाओ उनमें कुछ अंगार मिलाओ
अकस्मात ही अक्श उभर आये जैसा भी
गौर से देखो उसमें कविता की लिपि होगी 
कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और अन्हादों को गुनगुनाना ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Saturday, December 14, 2013

मैंने इश्क की इबादत कब की ?

"मैंने इश्क की इबादत कब की ?
ये रवायत थी कवायद कब की ?
मैंने तो सोचा था इश्क से महकेगी फिज़ा
मैंने सोचा था कुछ फूल यहाँ महकेंगे
मैंने तो सोचा था कुछ जज़वात यहाँ चहकेंगे
मैंने सोचा था चांदनी ओढ़े हुए कुछ ख्वाब खला में होंगे
मैंने सोचा था इकरा तेरे रुखसार का उनवान होगी
मैंने सोचा था तेरे बदन की खुशबू मेरी मेहमां होगी
मैंने चन्दा को समेटा था तेरे माथे पे बिंदी की जगह
तू इबादत थी या आदत मेरी,-- सहमी हुयी शहनाई से भी पूछ ज़रा
तू शराफत थी या शरारत मेरी,-- तन्हाई से भी पूछ ज़रा
मैंने इश्क की इबादत कब की ?
यह महज शब्द है अल्फाजों में सिमटा सा हुआ
अब इसे अहसास उढा कर मैं सो जाऊंगा." ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 5, 2013

सुनो... तुम पूछती हो न कि तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै....??


"सुनो...
तुम पूछती हो न कि
तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै....??

यह तुमने क्या किया ?
मैं कहना तो चाहता था "असीम "
पर रिश्तों की दीवारें लाँघ कर आतीं
हर रिश्ता एक सीमा है
एक प्रकार है
एक संस्कार है 

एक प्राचीर है जिसकी अपनी ही दीवार है
एक अवधि है
एक परिधि है
यह तुमने क्या किया ?
एक रिश्ते के नाम में एक अहसास को सीमित किया
मैं तुमसे असीम प्यार करना चाहता था
पर यह तुमने क्या किया ?
हमारे अस्तित्व के बीच बहती हवाओं से एक अनवरत अहसास को
एक रिश्ते का नाम दिया --- यह तुमने क्या किया ?
तुम बेटी हो सकती हो
बहन हो सकती हो
पत्नी हो सकती हो
प्रेमिका हो सकती हो
तुम कुछ भी हो सकती हो पर सीमाओं में
इसी लिए मैं तुमसे सीमित प्यार करता हूँ
असीम नहीं

सुनो...
तुम पूछती हो न कि
तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै....??

यह तुमने क्या किया ?
मैं कहना तो चाहता था "असीम "
पर रिश्तों की दीवारें लाँघ कर आतीं
। " ---- राजीव चतुर्वेदी

तुम कभी भी वह नहीं थे जो मैंने तुम्हें समझा

"तुम कभी भी वह नहीं थे जो मैंने तुम्हें समझा
फिर भी यह मरीचिका और मृगतृष्णा का रिश्ता था और रास्ता भी एक
परिभाषा और अभिलाषा के बीच प्रतीत की पगडण्डी का परिदृश्य प्रश्न है
तो उत्तर कैसा ?
जो लोग सूरज की रोशनी में रास्ता नहीं देखते

वह पूछते हैं ध्रुवतारे से सप्तर्षि की पहेली
सभ्यता की हर शुरूआत में प्रश्न प्रतीकों में अंगड़ाई लेता है
हर सुबह के गुनगुनाते सूरज का गुनाह है यह
तुमने कुछ कहा ही नहीं और मैंने सुन लिया
सत्य के संकेत उगते हैं निगाहों में।
" ----- राजीव चतुर्वेदी