एक पत्रिका आकार ले रही है। शर्त, अनुबंध, आग्रह, पूर्वाग्रह की परिधियों से दूर की दुनिया की पैमाइश करने की पशोपेश भी इसका मकसद है। सवाल है कि टीवी चैनलों की चिचियाती आवाजों व समाचार सुंदरियों के शोख अंदाजों की बीच सच की संकटग्रस्त आवाज को कौन सुनेगा और सुनाएगा? आखिर एक और समाचार पत्रिका की जरूरत ही क्या थी? क्या अपने गुरुत्व और अक्षांश का बोध हमें है? हमारा सैद्धांतिक ध्रुव क्या है और धुरी कितनी मजबूत है? क्या हम किसी कुतुबनुमा का काम भी कर पाएंगे?- निश्चय ही इन सवालों के जंगल के बीच हमारी पगडंडी जाती है और इस पगडंडी पर प्रकाश के लिए कोई ट्यूबलाइट नहीं। बस पत्रकारिता के कुछ उत्साही जुगनुओं का जुनून है।
जहां सिद्धांत, शून्य से एक सौ अस्सी अंश तक मनचाहे तरीके से तोड़े-मरोड़े जाते हों। जहां विधायिका बांझ और न्यायपालिका नकारा हो। जहां समाचारों के नाम पर षड्यंत्रों का प्रचलन हो। जहां सच के सैकड़ों संस्करण बाजार में मौजूद हों। जहां 'आम आदमी' की जुबान भी खींच कर खास आदमी ने तह करके अपने पर्स में रख ली हो। जहां भूखे पेट भरे गोदाम हों। जहां देश का देसी 'जन-गण-मन' अपने ही देश के कई प्रदेशों से खदेड़ा जा रहा हो। जहां राष्ट्र में एक 'महाराष्ट्र' हो। जहां न्याय अपवाद और अन्याय परंपरा हो। ऐसे हमलावर दौर में हम आ रहे हैं मुर्दा हो चुके समाज के मुद्दई बनकर और शेष बचे सिसकते जिंदा समाज की जुबान बनकर। हमारा संकल्प है सार्थक शब्दों का सृजन।
जिस दिन दुनिया के पहले विमान अपहरणकर्ता आतंकवादी याशर अराफात को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया। जिस दिन कुख्यात डकैत फूलन देवी का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए चला था। जिस दिन अफगान युद्ध के लिए स्वयंभू सूरमा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया जा रहा था, उस दिन हर कसाई के खंजर पर शांति लिखा जा रहा था। उस दिन हर बुद्ध फफक-फफक कर रोया था। शातिराना शांति, विवशता की शांति, बुद्धू की शांति और बुद्ध की दैवीय शांति का अंतर समझने और समझाने का अवसर आ गया है।
नार्वे वह देश है जो श्रीलंका सरकार से लिट्टे की पक्षधरता करते हुए मध्यस्थता करता है। यह वह शहर है जहां से ऑक्सफेम सहित तमाम एनजीओ मार्का स्वयंसेवकों की समृद्धि के अनुदान आते हैं। जहां तमाम शातिरों को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। इस बीच वैश्वीकरण की जो बहस तमाम स्वयंभू कोलम्बसों और गूलर के भुनगों के बीच जारी है। इस बहस में भारत का 'जन-गण-मन' कहां है? यह वैभव का ही वैश्वीकरण है कि गरीबी का भी वैश्वीकरण होगा? जब हम समृद्धि के समाज की बात करेंगे तब तमाम मुलायम, माया, मनमोहन, मोंटेक की पत्रकारीय उपेक्षा नहीं होगी। रोशनी, रास्ते, राशन, रोजगार और राजनीति पर शहरों का कब्जा है। हम गांवों के अंधेरे को साक्षी मान शहरों के टिमटिमाते उजाले से सवाल करेंगे कि क्यों शहर, गांवों को लील रहे हैं? क्यों कृषि लाभकारी नहीं है? क्यों है यह न्याय का असंतुलन। इस हमलावर दौर में हमने सबसे अलग एक कदम उठाया है। किसी सार्थक सुधार का सुनहला सपना हम नहीं दिखा सकते। हमको इस अदम्यता में अपने अकेलेपन का अहसास है। हमें क्रांति की मशाल होने का दंभ भी नहीं है, लेकिन हमें हक है अगरबत्ती की तरह सुलगने का, सुगंध फैलाने का। सच की आध्यात्मिक सुगंध।
निष्पक्ष और बांझ पत्रकारिता से ऊबकर हम पक्षधरता की पत्रकारिता करने आए हैं। झूठ के विरुद्ध सच की पक्षधरता, अन्याय के विरुद्ध न्याय की पक्षधरता, भ्रष्टाचार के विरुद्ध ईमानदारी की पक्षधरता, अंधेरे के विरुद्ध उजाले की पक्षधरता, कातिल के विरुद्ध कातर की पक्षधरता। सभी कीड़ों के विरुद्ध कीटनाशक की पक्षधरता। मच्छर के विरुद्ध 'ऑल आउट' की पक्षधरता। राष्ट्रद्रोही के विरुद्ध राष्ट्रवादी की पक्षधरता। हर अफजल गुरु के विरुद्ध उसे फांसी दे सकने वाले वाले जल्लाद की पक्षधरता।
कुल मिलाकर हर कसाई के विरुद्ध हर बकरी की पक्षधरता, हर कातिल के विरुद्ध किसी बूढ़े गांधी की पक्षधरता की पत्रकारिता करने हम आए हैं। भय से लड़ सकने वाले हर भगत सिंह की पक्षधरता हमारा संकल्प है। कुल मिलाकर कातर क्रोंच की तरह यह असहाय पीढ़ी तड़प रही है। सभ्यता को बुद्ध चाहिए। चूंकि हम स्वर हैं, इसलिए नश्वर नहीं हैं। पत्रकारिता की छोटी हथेली पर हमारी जीवन रेखा कितनी लंबी और गहरी है, यह कोई स्वयंभू ज्योतिषी ही बताए। मुझे बस इतना पता है कि -
इस डर से कि वह मिट जाएंगी।
स्थगित नहीं किया जा सकता,
किसी भी हादसे से टकराना।
1 comment:
sir aapne samajbad par bhut achaa likha hi.by line ko bhi aacha risponce mil rha hi.
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