Friday, January 29, 2010

विकल्प नहीं संकल्प

गांधी की हत्या तो हम सब कर ही चुके हैं और अब बिखरी है हमारे बीच एक प्रौढ़ उदासी। शब्द सहमे हैं, दिशाएं संज्ञाशून्य हैं, कुतुबनुमा स्तब्ध है। मंत्र और षड्‌यंत्र का शोर आपको दिन में ढंग से जागने नहीं देता और रात को ठीक से सोने भी नहीं देता। ऐसे में एक मासूम सा सवाल खड़ा होकर पूछ ही बैठता है - हम क्या करें? है कोई उत्तर?

इस सवाल का उत्तर न्यायपालिका के पास है, व्यवस्थापिका के पास है, विधायिका के पास है, पत्रकारिता के पास भी है पर कोई भी उत्तर दे नहीं रहा, क्यों? देना ही नहीं चाहता है। हम सुविधाजनक शब्दों के ही पराक्रमी पल्लेदार हैं। हम गांधी या गैलीलियो नहीं बनना चाहते। निश्चित वर्तमान के बदले अनिश्चित भविष्य में छलांग लगाने वालों की लंबी फेहरिस्त में कुछ कोलम्बस तो हमें याद हैं बाकी तो डूब मरे समुद्र के खारी पानी में। इस बीच कोलम्बस और गूलर के भुनगों के बीच वैश्वीकरण की जो बहस चल पड़ी है उसका न कोई अक्षांश है, न देशान्तर, न इस महास्वप्न का मध्यान्तर।

आंकड़ों की अंगड़ाई से स्पष्ट है कि देश में इस बीच समृद्धि भी बढ़ी है और गरीबी भी। मध्यम वर्ग असमंजस में है अमीर दिखना चाहता है और इस प्रयास में गरीब होता जा रहा है। देश की आजादी से अब तक प्रशासनिक अधिकारियों की तनख्वाह में 7300 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है क्या आपकी भी समृद्धि इसी दर से बढ़ी है? न्यायपालिका हो, विधायिका या व्यवस्थापिका सभी ने स्वयं ही बिना आपसे कोई जनादेश लिए आपकी मुफलिसी का मजाक उड़ाते हुए अपनी तनख्वाह बढ़ा ली और आप देख रहे हैं टुकुर-टुकुर बेजुबान जानवरों जैसे। वेदना को कहीं कह सकने, कहीं उकेर सकने में सक्षम समृद्ध शब्दकोश भी आपके काम नहीं आ रहे। न्यायपालिका का न्याय का संवेदनशील चेतन चेहरा नहीं दिखाई। वहां तो न्याय की मूर्ति यानी न्यायमूर्ति बैठे हैं। मूर्ति हैं तो जड़ होंगे ही फिर आप न्यायिक चेतना की अपेक्षा ही इनसे क्यों करते हैं। 'जस्टिस' तो 'जस्ट' यानी 'उचित' करेगा। किसके लिए उचित 'सत्ता' के लिए या 'जन-गण-मन' के लिए? हमें तो 'न्याय' चाहिए और 'न्याय' का अंग्रेजी अनुवाद है ही नहीं जबकि हमारी न्याय की भाषा तो अंग्रेजी है तो झेलो 'जस्टिस'। जब 'न्यास' यानी ट्रस्ट होगा तभी वह 'न्याय' करेगा। यह न्यायपालिका किस जनादेश से मान्यता प्राप्त है। बात-बात में चुनाव होने वाले इस देश में क्या कभी इसलिए भी चुनाव हुए हैं कि नागरिकों से पूछा जाए कि तुम किस तरह की संसद, विधानसभाएं चाहते हो, कैसी हो तुम्हारी न्यायपालिका और नौकरशाही उनकी तनख्वाह और वेतन भत्ते क्या हों? देश में सबसे कम और सबसे अधिक वेतन का अनुपात क्या हो? जब विसंगतियों की सीमाएं ही नहीं हैं तो कैसा समाज कैसा 'लोकतांत्रिक कल्याणकारी समाजवादी गणराज्य।' लेकिन यहां जनता कुछ नहीं तय करती। जनता जाति देखती है, चित्र नहीं, चरित्र नहीं, लिंग देखती हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और दिनाकरन की जाति देखती है, राष्ट्रपति का लिंग देखती है, एक राष्ट्र में महाराष्ट्र बनाकर क्षेत्र देखती है तो फिर गुण तो गौण होंगे ही। नौकरशाही नियंता है और सभी प्रशासनिक अभियानों की अभियंता भी। पर सावधान। जहां मंथरा की चलती है वहां राम को वनवास हो ही जाता है। यह भी याद रखें कि किसी राम का वनवास और जनता का उपवास परस्पर जुड़ी बातें है।

जगह- जगह खींचे जा रहे द्रोपदियों के चीर से संसद के प्राचीर तक दुशासन ही दुशासन दिखाई दे रहे हैं। जब हमारे राष्ट्रपति की 'विशेषता' और 'योग्यता' जानने के लिए शोध की जरूरत हो और पुराने अखबारों की कातर कतरन चीख- चीख कर उनके बैंक घोटालों की चर्चा कर रही हों तब पुरस्कार पराक्रमियों को नहीं परिक्रमा करने वालों को ही मिलेंगे। चाटुकार चटवाल हों या करीना का करीने से काम लगाने वाले कामुक फिल्मी सूरमा सैफ। आप किस कतार में खड़े हैं- सरकार से पुरस्कार पाने वालों की या तिररुकार पाने वालों की?

मूर्तियों में वेदना भी नहीं होती और चेतना भी नहीं होती। हमें न्याय की मूर्तियां नहीं न्याय की चेतना चाहिए। हमें बांझ विधायिका भी नहीं चाहिए कि जो देश को कानून भी न दे पा रही हो क्योंकि हमारे प्राय: सभी प्रमुख कानून अंग्रेजों के बनाए हुए हैं। कल्पना कीजिए कि वह चाहे गांधी के हत्यारे गोडसे हों या गुरु अफजल सभी पर मुकदमा चलाने का 'तंत्र' विदेशी था। वहीं अंग्रेजों का बनाया कानून, अंग्रेजों की बनाई बिल्डिंग और भाषा भी अंग्रेजी। बहुत हो गया देश की अस्मिता की रक्षा के लिए हमें देश का देशी कानून चाहिए, जस्टिस नहीं न्यायाधीश चाहिए। स्त्री, पुरुष या किन्नर की क्या कहें व्यक्ति श्रेष्ठ होना चाहिए। भारत एक चिन्हित और संबोधित जा सकने वाली इकाई का नाम हो तभी गांधी के सपनों का भारत बनेगा। उस गांधी के अलावा शेष सभी गांधी फर्जी हैं। जिस देश में गांधी की हत्या हो चुकी हो उसमें अब हमारी-तुम्हारी ही बारी है। अगर कायर हो तो चुप रहो, रजाई तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। अगर दम है तो बाहर निकलो। कुछ तो बोलो। अभिव्यक्त को सारे खतरे उठाने ही होंगे, लेना होगा सच बोलने का संकल्प। यह द्वंद्व सच बोलने के संकल्प और शातिराना चुप्पी के विकल्प के बीच है। हम तो विकल्प नहीं संकल्प की बात करेंगे।

(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in February 6, 2010 Issue)

1 comment:

krishna said...

BAHUT HE KHUBSURAT AAP NE KAHA