Tuesday, November 27, 2012

विदा होती हूँ मैं ...


"रात की तन्हाई में नदी में डूबती कश्ती देखी कभी तुमने ?
मेरी आँखों में जलते चरागों में डूबती है रात खाली हाथ   
ख्वाब है कोई नहीं अब उस हकीकत का
जो लोक लाजों के भय से दफ्न है दिल में मेरे
यह हकीकत है कि इक बरात मेरे घर पे आयेगी मुझे लेने
जो सच था वह अफ़साना मुझे अफ़सोस देता है
आंसुओं को पी यहाँ मुस्का रही हूँ मैं
और हकीकत यह भी है कि देह मेरी दे दी गयी है
फ़साना छोड़ दो यह फैसला पापा का है मेरी शादी का
मैं जाती हूँ देह रख लो
सहेज कर दहेज़ रख लो
यह घर मेरा कहाँ था ?
वह घर भी तो पराया है
तुम्हारी प्रतिष्टा का हर प्राचीर
प्यार को व्यापार बना कर खुश हुआ होगा
न दहलीज मेरी थी, यहाँ न देह मेरी थी
देह पर मेरी यहाँ कभी संस्कार काबिज था, कभी परिवार काबिज था
कभी पति था मेरा उसका अधिकार काबिज था  
देह तेरी हो मगर यह रूह मेरी है
विदा होती हूँ मैं ..." ---- राजीव चतुर्वेदी

2 comments:

Rajesh Kumari said...

बहुत मार्मिक गहन भाव चित्रण कर रहे हैं उस ह्रदय व्यथा का जहां बिना मर्जी के सौंप दिया जाता है किसी के हाथ माँ अपनी लाडली को चकनाचूर कर दिए जाते हैं सपने !!! बहुत हृदय विव्हल कर दिया रचना ने

विभूति" said...

मन के भावो को शब्द दे दिए आपने...