"मई दिवस पर गर्व से कहो हम पाखंडी हैं ! हमने बचपन में गाय पर निबंध लिखे और बड़े हो कर खूब आधुनिकतम कसाईखाने खोले परिणाम गाय की हालत चिंताजनक है. पोस्टमेन पर निबंध लिखे तो उसकी भी हालत पस्त है. "यत्र नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" की रटंत की और हर छः माह में नौ दिन (नौ देवी पर) कन्या पूजीं तो विश्व की हर सातवीं बाल वैश्या भारत की बेटी है और हर साल ५० हजार से ज्यादा दहेज़ हत्याएं हो रही हैं. इसी क्रम में मजदूर की बारी भी हर साल मई दिवस के बहाने आ ही जाती है. साल दर साल पर मजदूर पर प्रवचन देने वाले मस्त और मजदूर पस्त है. मजदूर दिवस वामपंथी एकाधिकार से ग्रस्त जुमला है. तीस साल तक पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार रही पर जानवर की जगह आदमी को जोत कर रिक्शा कोलकाता में चलता ही रहा--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र का मजदूर था और उसका वोट बैंक नहीं था. देवगोडा जब प्रधानमंत्री थे तब वाममोर्चे के प्रखर नेता चतुरानन मिश्र कृषि मंत्री थे तब कृषि मजदूरों के लिए क्या किया गया ?--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र का मजदूर था और उसका वोट बैंक नहीं था. कोलकाता में वामपंथी सरकार के दौरान तीस साल तक विश्व के सबसे बड़े वैश्यालय (बहू बाजार / सोना गाछी ) धड़ल्ले से चलते रहे और वहां बाल वेश्याएं खुले आम बिकती रही.--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र की मजदूर थी इसलिए मजबूर थीं उनका वोट बैंक नहीं था. बाल श्रमिकों का भी कोई वोट बैंक नहीं है. लड़ाई ट्रेड यूनियनों के झंडे तले लामबंद होते वोट बैंक की है ताकी उद्योग जगत से धन वसूली की जा सके वरना सच-सच बतलाना महाराष्ट्र में दत्ता सामंत को किसने मरवाया ? दरअसल लड़ाई श्रम के आदर और सम्मान की नहीं, श्रमिक को हथियार बनाने की है. सच तो यह है कि नब्बे प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र का मजदूर है और वह इस लिये मजबूर है कि उसका कोई वोट बैंक नहीं. यह मई दिवस के बहाने तो वोट बैंक का इष्ट साधा जा रहा है." ----राजीव चतुर्वेदी
"सो जाते हैं सड़कों पर अखबार बिछा कर,
हम मजदूर हैं नीद की गोली नहीं खाते." (---मुनब्बर राना )
"सो जाते हैं सड़कों पर अखबार बिछा कर,
हम मजदूर हैं नीद की गोली नहीं खाते." (---मुनब्बर राना )
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