Thursday, May 17, 2012

कथित किन्तु व्यथित साहित्यिक परिदृश्य




"पतिताओं की कविताओं पर
वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...
यहाँ लफंगे जन-गण-मन का जश्न मनाते मैंने देखे
हर कायर शायर बन कर संसद पर फायर कर देता है
और शातिरों की हर शर्तें सत्यों को संगीत सुनाती मैंने देखीं
कर्तव्यों के वक्तव्यों में बकवासों के रूप बहुत हैं
यहाँ गली का हर आवारा ईलू -ईलू काव्य कर रहा
प्रोफाइल पर उसकी फर्जी फोटो देख मुग्ध है इतना
देह को उसके भांप रहा है, दर्शन में वह नाप रहा है, शब्दों से वह काँप रहा है
पतिताओं की कविताओं पर
वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...
और यहाँ पर प्रौढ़ उम्र में प्रणय निवेदन करती कविता
सत्य यहाँ शातिर सा दिखता अधिकारों के श्रृंगारों में
कुछ की हिन्दी रति से नहीं विरत हो पाई रीतिकाल में फंसी पड़ी है
श्रृंगारों का श्रेय ले रहे अंगारों की आढ़त उनकी
आत्म मुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगे की ख्वाहिश धरती की पैमाइश की है
करुणा की कविता कातर सी कांख रही है
यहाँ ग्रुपों में बंटा सा अम्बर आडम्बर से अटा पड़ा है
लिख पाओ तो मुझे बताना,
पढ़ पाओ तो मुझे सुनाना, -- कविता की परिभाषा क्या है ? " ---- राजीव चतुर्वेदी

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