Saturday, May 26, 2012

महात्मा गांधी की हत्या की सच्चाई


 इस लेख को पढकर आपके आंखे खुल जायेगी कुछ धर्म के ठेकेदार अपना उल्लू सीधा करने के लिये किस तरह इतिहास को तोड़ मरोड़कर पेश कर रहे है वो भी देखे , महात्मा गांधी की हत्या की सच्चाई आपके सामने ला रहा हूं। अब तक आप जो नही जान पाये वो आज जाने ----
"गांधी ह्त्या के पीछे ये मतान्ध हिन्दुवादी तीन कारण बताते है
* पहला मिथ यह है कि गांधीजी मुसलमानों तथा पाकिस्तान के पक्षपाती थे।*दूसरा 'मिथ' यह है कि गांधीजी की हत्या 55 करोड रुपयों के कारण की गयी * तीसरा 'मिथ' यह है गांधी की हत्या करनेवाले बहादुर, देशभक्त और प्रामाणिक व्यक्ति थे। परन्तु सत्य यह है कि ये तीनों 'मिथ' बिलकुल गलत हैं। आइये इन तीनो कारणो की सच्चाई बताते है
नाथूराम और उसके साथियों ने जान-बूझकर, षड्यंत्रपूर्वक ठण्डे कलेजे से गांधीजी की हत्या की थी।
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'पन्नास कोटीचे बली' नाथूराम का अदालत में दिया हुआ बचावनामा है, और 'गांधी आणि मी' गोपाल गोडसे की, आजीवन कैद की सजा होने के बाद लिखी गयी पुस्तक है। ये दोनों पुस्तकें पढने के बाद मुझे महसूस हुआ कि नाथूराम गोडसे धर्मजनूनी जरूर था, मगर पागल नहीं था। हम जिसको सिरफिरा कहते हैं, ऐसा तो वह हरगिज नहीं था।
मुसलमानों ने भारत का विभाजन करवाया, फिर भी मुसलमानों, उनके संगठन मुस्लिम लीग तथा नवनिर्मित पाकिस्तान के प्रति गांधीजी ने नरम रुख अपनाया था, ऐसी दलीलें उन पुस्तकों में तथा अन्यत्र भी हिन्दुत्ववादी देते रहे हैं। उनकी नजर में, तब तो हद ही हो गयी, जब गांधीजी ने पाकिस्तान को, उसके हिस्से के, 55 करोड रुपये देने की जिद की, और उपवास की धमकी तक दे डाली। पाकिस्तान में हिन्दुओं पर अत्याचार तथा कश्मीर पर हमला करनेवालों को 55 करोड रुपये देने की बात से उनेजित होकर नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या की थी, ऐसा उन पुस्तकों में कहा गया है। आम तौर पर गांधीजी की हत्या के सम्बन्ध में, आम लोगों की भी धारणा ऐसी ही है। अनेक इतिहासकार और पत्रकार भी ऐसा ही मानते हैं। इतिहास की पाठय़पुस्तकों में भी हत्या का यही कारण बताया जाता है।
     गोडसे-बन्धुओं की पुस्तकों को पढने के बाद हत्या का सही कारण जानने के लिए मैंने अन्य अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। प्यारेलाल लिखित 'द लास्ट फेज', गांधी हत्या का केस जिनकी अदालत में चला था उन न्यायमूर्ति खोसला की लिखी पुस्तक, ग्वालियर के बचाव पक्ष के वकील एडवोकेट इनामदार के संस्मरण, और गोडसे- बन्धुओं का प्रतिवाद करनेवाली कई दूसरी पुस्तकें पढने के बाद मुझे यकीन हो गया कि गांधीजी की हत्या 55 करोड रुपये के प्रकरण से उनेजित होकर नहीं की गयी थी। भारत का विभाजन और 55 करोड रुपये का प्रश्न खडा हुआ, उसके बहुत पहले ही इस टोली ने गांधीजी की हत्या करने का निश्चय कर लिया था और कई बार गांधीजी की हत्या करने के प्रयास भी किये
गये थे।
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पाकिस्तान को 55 करोड़ देने के प्रश्न पर की हत्या ?? ये बात पूरी तरह झूठ है
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55 करोड रुपये का प्रश्न तो 12 जनवरी, 1948 को यानी गांधीजी की हत्या के 18 दिन पहले प्रस्तुत हुआ था। इससे पहले, चार बार गांधीजी की- हत्या के प्रयास हिन्दुत्ववादियों ने क्यों किये थे, इसका उनर उनको देना चाहिए।
नाथूराम गोडसे उस समय पूना से 'अग्रणील् नाम की मराठी पत्रिका निकालता था। गांधीजी की 125 वर्ष जीने की इच्छा जाहिर होने के बाद 'अग्रणी' के एक अंक में नाथूराम ने लिखा- 'पर जीने कौन देगा ?' यानी कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा ? गांधीजी की हत्या से डेढ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य है। यह कथन साबित करता है कि वे गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से प्रयासरत थे। 'अग्रणी' का यह अंक शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध है।
फिर 55 करोड़ का सवाल कहा से आया ?
प्रथम बार हत्या का प्रयास :
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गांधी-हत्या के प्रयास 1934 से ही !गांधीजी भारत आये उसके बाद उनकी हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934 को किया गया। पूना में गांधीजी एक सभा को सम्बोधित करने के लिए जा रहे थे, तब उनकी मोटर पर बम फेंका गया था। गांधीजी पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच गये। हत्या का यह प्रयास हिन्दुत्ववादियों के एक गुट ने किया था। बम फेंकने वाले के जूते में गांधीजी तथा नेहरू के चित्र पाये गये थे, ऐसा पुलिसगरिपोर्ट में दर्ज है। 1934 में तो पाकिस्तान नाम की कोई चीज क्षितिज पर थी नहीं, 55 करोड रुपयों का सवाल ही कहा! से पैदा होता ?
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गांधीजी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 में पंचगनी में किया गया।
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जुलाई 1944 में गांधीजी बीमारी के बाद आराम करने के लिए पंचगनी गये थे। तब पूना से 20 युवकों का एक गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा। दिनभर वे गांधी-विरोधी नारे लगाते रहे। इस गुट के नेता नाथूराम गोडसे को गांधीजी ने बात करने के लिए बुलाया। मगर नाथूराम ने गांधीजी से मिलने के लिए इन्कार कर दिया। शाम को प्रार्थना सभा में नाथूराम हाथ में छुरा लेकर गांधीजी की तरफ लपका। पूना के सूरती-लॉज के मालिक मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी नाम के युवक ने नाथूराम को पकड लिया। पुलिस-रिकार्ड में नाथूराम का नाम नहीं है, परन्तु मशिशंकर पुरोहित तथा भीलारे गुरुजी ने गांधी-हत्या की जा!च करने वाले कपूर-कमीशन के समक्ष स्पष्ट शब्दों में नाथूराम का नाम इस घटना पर अपना बयान देते समय लिया था। भीलारे गुरुजी अभी जिन्दा हैं। 1944 में तो पाकिस्तान बन जाएगा, इसका खुद मुहम्मद अली जिन्ना को भी भरोसा नहीं था। ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि 1946 तक मुहम्मद अली जिन्ना प्रस्तावित पाकिस्तान का उपयोग सना में अधिक भागीदारी हासिल करने के लिए ही करते रहे थे। जब पाकिस्तान का नामोनिशान भी नहीं था, तब क्यों नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या का प्रयास किया था ?
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गांधीजी की हत्या का तीसरा प्रयास
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भी इसी वर्ष 1944 सितम्बर में, वर्धा में, किया गया था। गांधीजी मुहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करने के लिए बम्बई जाने वाले थे। गांधीजी बम्बई न जा सके, इसके लिए पूना से एक गुट वर्धा पहु!चा। उसका नेतृत्व नाथूराम कर रहा था। उस गुट के थने के नाम के व्यक्ति के पास से छुरा बरामद हुआ था। यह बात पुलिस-रिपोर्ट में दर्ज है। यह छुरा गांधीजी की मोटर के टायर को पंक्चर करने के लिए लाया गया था, ऐसा बयान थने ने अपने बचाव में दिया था।
" यह बहुत ही उनेजित स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ चिंता होती थी। गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला। (महात्मा गांधी : पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड, पृष्ठ 114)
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गांधीजी की हत्या का चौथा प्रयास
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29 जून, 1946 को किया गया था। गांधीजी विशेष टेंन से बम्बई से पूना जा रहे थे, उस समय नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच में रेल पटरी पर बडा पत्थर रखा गया था। उस रात को डांइवर की सूझ-बूझ के कारण गांधीजी बच गये।
हिन्दुत्ववादियों की आँख में गांधीजी किरकिरी की तरह खटकते थे। 55 करोड रुपयों की तो बात ही क्या, पाकिस्तान किसी के सपने में नहीं था, तब से ये गांधीजी की हत्या करने के प्रयास में जुट गये थे। दुखद तथ्य यह है कि भारत में गांधीजी की हत्या के जो प्रयास हुए हैं, उनमें सबमें अधिक पूना के लोग ही शामिल थे। इस प्रकार के तीन प्रयासों में, और अन्त में हत्या में, खुद नाथूराम गोडसे शामिल था। 55 करोड रुपये का प्रश्न तो 12 जनवरी, 1948 को यानी गांधीजी की हत्या के 18 दिन पहले प्रस्तुत हुआ था। इससे पहले, चार बार गांधीजी की- हत्या के प्रयास हिन्दुत्ववादियों ने क्यों किये थे, इसका उनर उनको देना चाहिए।
पाकिस्तान का निर्माण किसने किया ?
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1937 में हिन्दू महासभा के अहमदाबाद-अधिवेशन में खुद सावरकर ने द्विराष्टंवाद के सिद्धान्त का समर्थन किया था। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के लिए प्रस्ताव किया, उससे तीन वर्ष पूर्व ही सावरकर ने हिन्दू और मुसलमान, ये दो अलग-अलग राष्टींयताए! हैं, यह प्रतिपादित किया था। जब दो साम्प्रदायिक ताकतें एक-दूसरे के खिलाफ काम करने लगती हैं, तब दोनों एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होती हैं, और वह होता है आत्मविनाश का। हिन्दू सम्प्रदायवादियों ने ऐसा करके अंग्रेजों और भारत-विभाजन चाहने वाले मुसलमानों को फायदा ही पहु!चाया था।
मतान्ध हिन्दुत्व वादियो ने किया 1942 की आजादी के आन्दोलन का विरोध
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इन महान देशप्रेमियों ने 1942 की आजादी के आन्दोलन में तो भाग नहीं ही लिया था, उल्टे ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर यह जानकारी भी दी थी कि हम आन्दोलन का समर्थन नहीं करते हैं। गांधीजी आये, उसके पहले राष्टींय राजनीति का नेतृत्व उनके पास ही था। लेकिन तब भी उन्होंने उन दिनों कोई बडा पराव्म नहीं किया था, यह हम सबकी जानकारी में है ही। गांधी के आने के बाद भी इन लोगों ने राष्टंहित में कोई मामूली काम करने की भी जहमत नहीं उठाई।
गुरु गोलवलकर ने ऐडाल्फ हिटलर का अभिनन्दन किया, फिर भी अंग्रेजों ने उनको गिरफ्तार नहीं किया। रु गोलवलकर की लिखी
"We, Our Nationhood Defined" शीर्षक पुस्तक तो हिटलर की भी तारीफ करने वाली एक गन्दी पुस्तक है। यद्यपि आर.एस.एस. ने इस पुस्तक का प्रकाशन अब बन्द कर दिया है, लेकिन इस पुस्तक में व्यक्त विचारों में संघ की आस्था अब नहीं रही, ऐसी घोषणा आर. स. स. ने आज तक नहीं की है।
कारण यह कि अंग्रेज मानते थे कि ये दो कौडी के निकम्मे लोग हैं। ये लोग तो तला पापड भी नहीं तोड सकते ! अंग्रेजों का यह आकलन था उनकी ताकत के बारे में।

भारत-विभाजन के लिए जितने जिम्मेदार मुस्लिम लीग तथा अंग्रेज हैं, उतने ही ये मतान्ध हिन्दुत्ववादी भी जिम्मेदार हैं।
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आजाद भारत में हिन्दू ही हुकूमत करेंगे, ऐसा शोर मचाकर हिन्दुत्ववादियों ने विभाजनवादी मुसलमानों के लिए एक ठोस आधार दे दिया था। ये विभाजनवादी लोग मुहम्मद अली जिन्ना, सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी आदि का भय दिखाकर उनका चालाकीपूर्वक उपयोग करते थे। हिन्दुत्ववादी अभी भी अपनी बेवकूफियों पर गर्व का अनुभव करते हैं। अंग्रेजों को जिन्हें कभी जेल में रखने की जरूरत ही नहीं पडी, उन गोलवलकर की अदृश्य ताकत का उपयोग अंग्रेज गांधीजी के खिलाफ करते थे। शहाबुद्दीन राठौड की भाषा में कहें तो उस समय की राष्टींय राजनीति में यो लोग जयचन्द थे। भारत का विभाजन गांधी के कारण नहीं हुआ है, इन लोगों के कारण हुआ है। गांधीजी ने तो अन्त तक भारत विभाजन का विरोध किया था।
गांधीजी ने अलग राष्ट्र नही पाकिस्तान को स्टेट माना था।
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(देखें प्यारेलाल लिखित 'लास्ट फेज') गांधीजी सर्वसमावेशक उदार राष्टंवादी थे। इसीलिए उन्होंने सब कौमों को अपनाया था, मात्र मुसलमानों को ही नहीं। प्रत्येक छोटी अस्मिता व्यापक राष्टींयता में मिल जाय, यह चाहते थे गांधीजी। एक राष्टींय नेता की यह दूरदृष्टि थी।
विभाजन रोकने के लिए इन लोगों ने क्या किया ?
। गांधीजी को भारत-विभाजन रोकना चाहिए था, यह मांग ये लोग किस मु!ह से करते हैं ? गांधीजी को विभाजन रोकने के लिए उपवास करना चाहिए था, ऐसी अपेक्षा करने का इनको क्या नैतिक-अधिकार है ? जिसको आप देश के लिए कलंक समझते हैं, जिसका वध करना जरूरी मानते हैं, उसी से आप ऐसी अपेक्षाए! भी रखते हैं?
आपने क्यों नहीं विभाजन को रोकने के लिए कुछ किया ? सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर ने विभाजन के विरुद्ध क्यों नहीं आमरण उपवास किया ? क्यों नहीं इसके लिए उन्होंने हिन्दुओं का व्यापक आन्दोलन चलाया ? जिसको गालिया! देते हों, उसी से देश बचाने की गुहार भी लगाते हो ? और जब गांधीजी अकेले पड जाने के कारण देश का विभाजन रोक नहीं पाये, तब आप उनको राक्षस मानकर उनका वध करने की साजिश रचते हो ? इसको मर्दानगी कहेंगे या नपुंसकता ?
गोपाल गोडसे तथा अन्य दूसरे अनेक मतान्ध हिन्दुत्ववादी विद्वानों के समक्ष ऐसे सवाल उठाये गये हैं, लेकिन किसी के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। इन सबके बावजूद भी ये अपनी डिंगे हांकने से बाज नहीं आते हैं। सत्य को जानते हुए भी जो असत्य का प्रचार करे, उसको धूर्त ही कहेंगे। ये मतान्ध हिन्दुत्ववादी पहले दर्जे के धूर्त हैं।
भारत-विभाजन के लिए गांधीजी जिम्मेदार नहीं थे। भारत-विभाजन के लिए कई ऐतिहासिक तथा सामयिक तन्व एवं ताकतें जिम्मेदार थी। ब!टवारा चाहने वाले मुसलमान जिम्मेदार थे, अंग्रेज जिम्मेदार थे तथा उनके कारनामों के लिए अनुकूल राह बनाने-दिखाने वाले मतान्ध हिन्दुत्ववादी जिम्मेदार थे।
ये मतान्ध हिन्दुत्ववादी लगातार जो तीन झूठ बोल रहे हैं, उन झूठों की पोल इस लेख को पढने के बाद खुल गई होगी ।
गांधी-हत्या की प्रेरक शक्तिया और गोडसे जैसे हिन्दू राष्ट्रवादियों को पहचानें
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गांधी की हत्या के साथ 55 करोड रुपयों का कोई सम्बन्ध नहीं हैं, इस बात की स्पष्टता के बाद अब हिन्दुत्ववादियों द्वारा प्रस्थापित तीसरे, 'मिथ' की भी चर्चा कर लें। यह तीसरा, 'मिथ' है कि गांधीजी के हत्यारे प्रामाणिक देशभक्त और बहादूर थे।
जैसा कि इनके द्वारा प्रचारित किया जाता है। 'मी नाथूराम गोडसे बोलतोय' नाटक में नाथूराम की ऐसी ही छवि उभारने की कोशिश की गयी है। जो लोग असत्य तथा अर्धसत्य का सहारा लेते हैं क्या उनको प्रामाणिक और बहादुर कहा जा सकता है ? जो लोग सन्दर्भ को तोड-मरोड कर झूठ फैलाते हैं उनको बदमाश कहते हैं या बहादूर ? इन लोगों ने गांधीजी की हत्या का असली कारण बताने का साहस किया होता तो जरूर उनको प्रामाणिक कहा जा सकता था। गांधीजी की हत्या के लिए किये गये पिछले निष्फल प्रयासों की जिम्मेदारी भी कबूल की होती, तो भी कुछ भिन्न बात होती। एक अहिंसानिष्ठ निःशस्त्र व्यक्ति की हत्या करना कोई मर्दानगी नहीं, कोरी नपुंसकता है। जो लोग तार्किक रीति से अपनी बात दूसरों को समझा नहीं सकते, वे ही लोग हिंसा का सहारा लेते हैं। हिंसा बुजदिलों का मार्ग है, शूरवीरों का नहीं। अपनी निष्फलता और हताशा में ही हिन्दुत्ववादियों ने गांधीजी की हत्या की थी।

जिस व्यक्ति के कारण अपने अस्तित्व पर संकट आता है, वह व्यक्ति कांटे की तरह चुभने लगता है और तब उस कांटे को निकलाने का प्रयत्न होता है। हिन्दुत्ववादी समाचार-पत्रों में गांधीजी की कटु आलोचनाए! छपती थी। गांधीजी को अभद्र गालिया! देने वाली छोटीगछोटी पत्र-पत्रिकाए!,प्रचारगपुस्तिकाए! तो इतनी छपवाते थे कि यदि उनका संग्रह किया जाता तो एक कमरा ही भर जाता। कुछ महान देशभक्त तो इतने शूरवीर थे कि अपना नाम भी छापने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी।

गांधी-द्वेष और मुस्लिम-द्वेष से ये हिन्दू राष्टंवादी इतने पीडित थे कि राष्टंहित किसमें है यह उनकी समझ में ही नहीं आता था। उनके पेट में दर्द तो इस बात का था कि गांधीजी के आने के बाद नेतृत्व उनके हाथ से चला गया था। इतना ही नहीं, उनकी 'हिन्दूगब्राण्डराजनीति' भी कालबाह्य हो चुकी थी। ब्रांणवादी राष्टंवाद की जगह ले ली थी उदार गांधीवादी राष्टंवाद ने। जाति-पा!ति, पंथ, लिंग आदि भेदभावों को भूलकर जनता गांधीजी के पीछे चलने लगी थी। राजनीति की बुनियाद से साम्प्रदायिकता को हटाकर, गांधीजी ने उसकी जगह अध्यात्म को प्रस्थापित कर दिया था। अध्यात्म की बुनियाद पर मानवतावादी राजनीति की इस नयी धारा ने गांधीजी को महात्मा बना दिया और हिन्दुत्ववादी क्षीण होतेगहोते हासिये पर चले गये थे। जो बहुत महन्वाकांक्षी नहीं थे ऐसे कई साम्प्रदायिक लोग राजनीति से अलग हो गये। जनूनी और महन्वाकांक्षी सम्प्रदायवादियों की हालत पतली हो गयी। वे गांधीजी के साथ जा नहीं सकते थे और जनता उनके साथ आने के लिए तैयार नहीं थी।

नाथूराम गोडसे का आर.एस.एस. से सम्बन्ध नहीं रहा है, ऐसा घोषित करने की भीख आर.एस.एस. के नेताओं ने नाथूराम से ही मांगी थी। हकीकत यह है कि गांधी-हत्या के पाच वर्ष पहले तक नाथूराम आर.एस.एस. का प्रचारक था।

ये लोग योजनाबद्ध तरीके से सरदार पटेल को हिन्दुत्ववादी साबित करने की नीच हरकतें कर रहे थे।
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आर.एस.एस. पर से प्रतिबन्ध उठाया जा सके, इसके लिए सरदार पटेल ने नाथूराम को ऐसा घोषित करने के लिए कहा था, यह दावा गोपाल गोडसे करते हैं। इस प्रकार सरदार पटेल हिन्दुत्ववादी थे, और आर.एस.एस. से मिले हुए थे.
ऐसा गन्दा संकेत ये दो लोग बेशर्मी से करते हैं। आरम्भ में गुरु गोलवलकर की लिखी 'Our Nationhood Defined" पुस्तक का उल्लेख किया गया है। इस पुस्तक का प्रकाशन 1939 में हुआ था। इस पुस्तक के कारण जब आर.एस.एस. के लिए कठिनाइया! बढने लगी, तब तुरन्त उससे छुटकारा पाने के लिए गुरु गोलवलकर ने इस पुस्तक के लेखक का नाम बदलकर बाबाराव सावरकर कर दिया। दूसरे के नाम की पुस्तक अपने नाम पर प्रकाशित कराने की बात हमने सुनी है। परन्तु इस आदमी ने तो अपनी चमडी बचाने के लिए अपनी ही पुस्तक दूसरे के नाम कर दी। ऐसे कायर और कपटी आदमी को क्या प्रामाणिक, बहादुर और देशभक्त कहा जा सकता है ? गोपाल गोडसे ने जेल से छूटने के लिए भारत सरकार को एकगदो बार नहीं, 22 बार अर्जी दी थी और ऐसे लोग अपने को शूरवीर कहते हैं।

नाथूराम ने गांधीजी की हत्या करने के प्रयास अधिकतर प्रार्थना-सभाओंमें ही किये। जब सब लोग प्रार्थना में लीन हों, उस वक्त ये 'नरबा!कुरे' गांधीजी की हत्या करना चाहते थे। पूजा-प्रार्थना कर रहे आदमी पर हमला नहीं करना चाहिए, ऐसा हिन्दुत्ववादियों के प्रिय हिन्दू-युद्ध शास्त्र में कहा गया है। ये नामर्द तो अपनी संस्कृति का भी अनुसरण नहीं कर सकते। हजारों लोगों की उपस्थिति वाली, गांधीजी की प्रार्थना-सभा में बम फेंकने में भी इन लोगों को शर्म नहीं आयी। जिन लोगों के लिए निर्दोष व्यक्तियों की जान की कोई कीमत नहीं, उनको क्या प्रामाणिक, बहादुर और देशभक्त कहा जा सकता है ?????"   -----कमल राजपुरोहित

1 comment:

Kishore Nigam said...

Although the truth is still hidden yet the artcle is very logical and informative. Thanks . Many thanks for bold post against mythical wave against Gandhi