"अतीत टकराता है आईने से
टूट जाता है ,
यह दौर ऐसा है यहाँ प्यार भी एक प्रश्न है
पीछे छूट जाता है
वर्तमान नया सामान है उस पर सलवटें कहाँ होंगी ?
ये भोगवादी पीढी है
भूख से करवटें कहाँ होंगी ?
भविष्य के सपने लिए शहर में गुमनाम हुए
अपनी दुनिया में व्यक्ति नहीं सामान हुए
याद की हिचकी तो कलेजे से मुंह तक आती है
पर बीच में अटकी है टाई की गाँठ
फ़्लैट किश्तों में खरीदा और किश्तों में ही कार
यहाँ प्यार भी किश्तों में खरिद जाता है
किश्तों से अभिशिप्त हमारी यह पीढी रिश्तों का रास्ता भूल गयी
किश्तों की कश्ती पर बैठ कर इस दरिया से हम पार हुए
यह दरिया शहर का नज़रिया है
यहाँ गाँव बहुत पीछे छूट जाता है
पुरखों का प्यार तो समंदर है
याद का सैलाब चला
किनारे तक आ के लौट जाता है
शहर शातिर है यहाँ बेटे को खो-खो कर
सो चुके सपनो को
खो चुके अपनों को
गाँव याद आता है
जिन्दगी की शाम सुबकती स्मृतियों का
यही शेष बचा नाता है ." -----राजीव चतुर्वेदी
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