"धर्म सत्ता स्थापित करने का गैर राजनीति उपकरण
जब -जब और जहां-जहां बना संस्कृत विकृति हो ही गयी ...संस्कृति छद्म और
पाखण्ड से परे एक सात्विक परम्परा होती है ...वैदिक युग के बाद त्रेता में
राम के नेतृत्व में धर्म और राजनीति का घाल मेल हुआ परिणाम सामने आया ...जर
(आधिपत्य ), जोरू (पत्नी ) और जमीन के विवादों का वहिरुत्पाद "आध्यात्म "
कहा जाने लगा ...यही द्वापर में दोहराया गया और जर /जोरू /जमीन के विवाद
में महाभारत हुआ एक बार फिर भौतिक वस्तुओं के कब्जे के विवाद का
बहिरुत्पाद अध्यात्म ही बना ...मोहम्मद साहब और मोबीन का धार्मिक बनाम
राजनीतिक वर्चस्व का विवाद कर्बला से गुजर कर बिन लादेन और तालिबान तक जारी
है ...सूली पर टंगे ईसा के अनुयायीयों ने तो पूरी दुनिया को ही सूली पर
टांग दिया जिस पर गैलीलियो की ह्त्या का कलंक और कुछ कहने की गुंजाइश ही
नहीं छोड़ता है . राजनीतिक शासकों ने धर्म को अपना उपकरण बनाया और युद्ध का
जोखिम कम से कम कर उन्होंने धर्म की आड़ में अपना शासन स्थापित रखा
...राजनीति ने धर्म को अपने मंतव्यों में इस्तेमाल करना जान लिया ...धर्म
को अपना उपकरण बनाना सीख लिया ...धर्म का काम था जन कल्याण फिर इसमें
द्वंद्व कैसा ? ...जन कल्याण करने की मंशा में जंग कैसी ? ...और जब जंग
नहीं ...युद्ध नहीं तो हार जीत कैसी ? ...किन्तु अब "धर्म" राजनीति की गोट
बन चुका था और गोट की नियति है पिटना ...राजनीति की गोट बना धर्म पिटने लगा
...मुग़ल आये और भारतीय राजाओं की मूंछ उखाड़ कर ले गए फिर ईसाई आए तो
उन्होंने मुग़ल बादशाहों की दाढी उखाड़ ली ...ईसाईयों के हाथों एशिया के तमाम
देशों में मुगलों की दाढी उखाड़ी गयी जिससे छुब्ध मुगलों ने नयी मजहबी सेना
का गठन किया यह मजहबी तालीम लेने वाले तालिबानों (विद्यार्थीयों ) की सेना
थी ...चाहे न चाहे धर्म राजनीति की गोट बन चुका था और धार्मिक विद्यालय
/मदरसे /स्कूल नए राजनीतिक कार्यकर्ता ढालने के कारखाने बन चुके थे
...अंग्रेजों या यों कहें कि ईसाईयों के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई भी वही लोग
लड़ पाए जो ऑक्सफ़ोर्ड /कैम्ब्रिज के पढ़े थे गांधी ,सुभाष,नेहरू, जिन्ना,
सावरकर आदि और उसके बाद की पीढी में राजीव गांधी और बेनजीर भुट्टो की
परम्परा ...इस बात को मदन मोहन मालवीय ने पहचाना तो काशी हिन्दू विश्व
विद्यालय आया, सर सयीयद ने पहचाना तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय आया
...आर्य समाज विद्यालय आये तो इस्लामिया भी आये ,सरस्वती शिशु मंदिर भी
खुले ...खालसा स्कूल भी खुले पर अब तक विश्व में ईसाई राजनीति धर्म का
इस्तेमाल करने में कुशल हो चुकी थी ...उन्होंने हिन्दूओं को मुसलमानों से
ऐसा लड़ाया कि ईसाईयों से लड़ने की उनको फुर्सत ही नहीं रही ...ईसाईयों ने
राजनीती के माध्यम से स्कूल स्थापित किये और चर्च के माध्यम से चलाये ...इन
स्कूलों को उन्होंने अपनी राजनीतिक कार्य संस्कृति को स्थापित करने के लिए
बखूबी इस्तेमाल किया ...और आज हम सभी इनके गुलाम हैं . क्या कभी आपने सोचा
है कि ऋग वेद के दर्शन के बाद भारतीय हिदू समाज क्यों पतनोन्मुख हो गया ?
...त्रेता में और पतन हुआ ...द्वापर में और अधिक पतन हुआ ...नेहरू -वीपी
सिंह, अटल, लालू -मुलायम-मायाबती के दौर के कलयुग में और अधिक पतन हुआ
...श्रेष्ठ जनों का सृजन ही बंद हो गया --क्यों ? ...कुरआन के अस्तित्व में
आने के बाद फिर दूसरा मुहम्मद नहीं पैदा हो सका और बाइबिल बांचते लोग
दूसरा ईसा मसीह नहीं पैदा कर सके --क्यों ? दरअसल धर्म नैतिकता का व्याकरण
बनने के उद्देश्य से भटक कर राजनीति का उपकरण बन चुका है जहां कार्यकर्ता
/गुलाम ढालने के कारगर कारखाने स्कूल/गुरुकुल/मदरसों/मंदिर /मस्जिद /चर्चों
के स्वरुप में चल रहे थे और यही कारण हैं कि आज सभी "धर्म" बाँझ हो चुके
हैं अब इन धर्मों की सांस्कृतिक कोख से राम -कृष्ण नहीं पैदा होंगे
...मुहम्मद नहीं पैदा होंगे ...ईसा मसीह नहीं पैदा होंगे ...अब पैदा होंगे
बिन लादेन और तोगडिया जैसे लोग ...अंकल सैम जैसे चरित्र."----राजीव
चतुर्वेदी
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