"आसमान की घनीभूत कुंठायें
कोहरा बन कर पहरा करती हैं
धरती को झकझोर रही हैं अनुभवहीन हवाएं
आंधी बनती हैं फिर ठहरा करती हैं
दावानल मैं जले देवदारों से भी पूछो
गमलों के पौधे मानसून का मूल्यांकन क्यों करते हैं
रहती हैं जो स्मृतियाँ अंतर्मन के दालानों में
सपने बन कर अपनों से क्या कुछ कहती हैं
रात गए जब शब्द सहम से जाते हैं
शिलालेख पर ओस इबारत गढ़ती हैं." -----राजीव चतुर्वेदी
Tuesday, February 21, 2012
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