"बलात्कार
एक जघन्यतम अपराध है ...इसकी सजा कठोरतम होनी चाहिए ...नाबालिग अगर
बलात्कार का मुलजिम है तो फिर किस बात का नाबालिग ?...इस देश में बलात्कार
की घटनाओं में चिंताजनक बढ़ोतरी बताती है कि क़ानून ही नहीं समाज भी अपना
दायित्व निभाने में असफल रहा है ...जब हम बलात्कार की बात करते हैं तो
वेश्यालयों की बात क्यों नहीं करते जहां पैसे से देह और सहमती खरीदी जाती
है स्वतः स्फूर्त नहीं होती ? मेरा मानना है क़ि
बलात्कार क़ानून से नहीं सामाजिक नियंत्रण से ही कम किया जा सकता है
...बलात्कार के लिए कठोर क़ानून तभी कारगर होगा जब उसका Substantial Law
जिसे दण्ड सहिंता ,Procedural Law यानी प्रक्रिया संहिता के साथ Code of
Conduct आचार संहिता भी हो यही नहीं फर्जी फंसाने की अवस्था में उस झूठे
आरोप लगाने वाली स्त्री के लिए भी उतना ही कठोर नियम हो ....बॉय फ्रेंड के
साथ देर रात पिक्चर देख कर लौटने की आज़ादी ...उल -जलूल कपडे पहनना
...पब्लिक प्लेस पर दारू /बीयर पीना ..."मैं चाहे ये करूँ मैं चाहे वो करूँ
मेरी मर्जी " के अंदाज़ में जीना सामाजिक मूल्यों को धता बताना है
...सामाजिक मूल्य हमारी सामूहिक सुरक्षा के लिए ही बने हैं और अगर हम
व्यक्तिगत आज़ादी की दरकार में इनकी अनदेखी करेंगे तो कभी समाज से छिप कर
व्यक्तिगत आनन्द भी लेंगे और दुर्घटना ग्रस्त भी होंगे ...तब समाज को क्यों
कोसते हो ? ---अब इस प्रकाश में बात अभी हाल ही में दिल्ली में दुष्कर्म
की शिकार दामिनी के बॉय फ्रेंड की हो जाय ... अवीन्द्र पाण्डेय उस लडकी
दामिनी के बॉय फ्रेंड थे ...अपने -अपने घरवालों (समाज ) की चोरी से दोनों
पिक्चर गए ...रात को घर वापसी की राह ली और जघन्य अपराध के शिकार बने तो अब
उसी समाज को धिक्कार रहे हैं जिसकी सामाजिकता का उलंघन (गर्ल/बॉय फ्रेंड
का घर की चोरी से पढाई के नाम से पिक्चर देखना ) अवीन्द्र और दामिनी भी तो
कर रहे थे ...अवीन्द्र आज समाज को धिक्कार रहे हैं यह तब कहाँ खड़े थे जब
औरों से इसी प्रकार की घटनाएं हो रही थी ?...निठारी काण्ड में यह कहाँ थे ?
निश्चय ही सामाजिक मूल्यों का अनुपालन करते हुए जीने वाली लडकियां भी आज
भयभीत हैं यह राष्ट्र के पौरुष पर कलंक है पर जो लोग व्यक्तिगत मजे लेने के
लिए सामाजिक मर्यादाओं की अवहेलना और उपहास उड़ा रहे हैं वह किस मुंह से अब
समाज को धिक्कार रहे हैं ? "मैं चाहे ये पहनूँ ,मैं चाहे वो पहनूँ मेरी
मर्जी " या "मैं चाहे ये करूँ मैं चाहे वो करूँ मेरी मर्जी " मार्का लोग
फिर समाज से तब अपेक्षा क्यों करते हैं जब कोई रईशजादा या हरामजादा लफंगा
उनसे कहता है --"...आ मेरी गाड़ी में बैठ जा ...". ---- छिनरफंद की आज़ादी की
लड़ाई नहीं लड़िये सामाजिक मूल्यों और आचार संहिताओं को मजबूत कीजिये अपने
-अपने घरों और परिवेश को संस्कारित कीजिये देश की दशा सुधरेगी . क़ानून तो
तब अपना काम करेगा जब बलात्कार जैसी घटना घट जायेगी समाज अगर सशक्त होगा
तो बलात्कार /छेड़छाड़ जैसी घटनाओं में निश्चित ही कमी आयेगी ." ------राजीव
चतुर्वेदी
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1 comment:
सही कहा है आपने जो सामाजिक मर्यादाओं को धता बताते हैं उन्हें समाज से शिकायत का भी कोई अधिकार नहीं है !!
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