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Thursday, March 1, 2012
कलाम -ऐ- पाक की कसमें, आयत और रवायत भी
" कलाम -ऐ- पाक की कसमें, आयत और रवायत भी तुम्हारी शातिराना चुप्पी और मजहब की हिमायत भी सभी ज़िंदा थीं कल काशी के किनारों पर उसी काशी की बेटी को तुमने मार डाला है खून के कतरे और बिखरे चीथड़े आरती के प्रार्थी और अर्थियों के बीच तंग जहनी और तंग गलियों के पेचीदा सफ़र में जो गुजरती है वह मुहब्बत की शहादत के सिवा कुछ भी नहीं.
ये सच की सीढियां जो घाटों को जाती हैं ये सहमी पीढियां जो सच को गुन गुनाती हैं ये खूनी सीढियां जो सुनती थीं विस्मिल्लाह की शहनाई यही बैठा था कबीरा और कविता थी गुनगुनायी उसी काशी की बेटी को तुमने मार डाला है.
खून के कतरे और बिखरे चीथड़े आरती के प्रार्थी और अर्थियों के बीच तंग जहनी और तंग गलियों के पेचीदा सफ़र में जो गुजरती है वह मुहब्बत की शहादत के सिवा कुछ भी नहीं. "-- राजीव चतुर्वेदी (गुजरे साल २०१० में कासी में गंगा के घात पर आतंकवादीयों ने बम के धमाके को अन्जाम दिया था जिसमें एक अबोध बालिका भी मारी गयी थी इस पर मैंने उसी दिन यह कविता लिखी थी)
ये सच की सीढियां जो घाटों को जाती हैं ये सहमी पीढियां जो सच को गुन गुनाती हैं ये खूनी सीढियां जो सुनती थीं विस्मिल्लाह की शहनाई यही बैठा था कबीरा और कविता थी गुनगुनायी उसी काशी की बेटी को तुमने मार डाला है... काशी की पथराई आँखें करेंगी तुमसे हिसाब
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ये सच की सीढियां जो घाटों को जाती हैं
ये सहमी पीढियां जो सच को गुन गुनाती हैं
ये खूनी सीढियां जो सुनती थीं विस्मिल्लाह की शहनाई
यही बैठा था कबीरा और कविता थी गुनगुनायी
उसी काशी की बेटी को तुमने मार डाला है... काशी की पथराई आँखें करेंगी तुमसे हिसाब
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