गौहर रज़ा की नज़्म-
जलियांवाला बाग़
"कभी तो स्वर्ग झुक के पूछता ही होगा ए फलक.
ये कैसी सरज़मीन है, ये कौन लोग थे यहाँ,
जो जिंदगी की बाजियों को जीतने की चाह में,
लुटा रहे थे बेझिझक, लहू की सब अशर्फियाँ.
यहाँ लहू, लहू के रंग में, नया था किस तरह,
न सब्ज़ था, न केसरी, न था सलीब का निशां,
न राम नाम था यहाँ, न थी खुदा की रहमतें,
न जन्नतों की चाह थी, न दोजखों का खौफ था,
न स्वर्ग इनकी मंजिलें, न नर्क का सवाल था,
मसीह-ओ-गौतम-ओ-रसूल, कृष्ण, कोई भी नहीं,
कि जिसके नाम जाम पी के मस्त हो गए हों सब,
ये कौन सी शराब थी, कि जिसका ये सुरूर था,
ये किस तरह की मस्तियों में इसकदर गुरुर था,
ये किस तरह यकीन हो, कि एक मुश्त-ए-खाक है,
जो जिंदगी की मांग में, बिखर गयी सिन्दूर सी,
इन्हें यकीन था कि इनके दम से ही बहार है,
ये कह रहे थे, हम से ही बहार पर निखार है,
बहार पर ये बंदिशें इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं,
इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं ये गैर की हुकूमतें,
ये क्या हुआ कि यकबयक सब खामोश हो गए,
यहाँ पे ओस क्यों पड़ी, ये धूल तप गयी है क्यों,
वो जिससे फूल खिल उठे थे, ज़ख्म भर गया है क्यों,
मुझे यकीन है कि फिर यहीं इसी मक़ाम से,
उठेगा हश्र, जी उठेंगे सारे नर्म ख्वाब फिर,
बराबरी का सब जुनूं सिमटके फिर से आएगा,
बिखेर देगी जिंदगी की हीर अपनी ज़ुल्फ़ को,
यहीं से उठेगी सदा कि खुद पे तू यकीन कर,
यहीं से ज़ुल्म की कड़ी पे पहला वार आएगा..."
----- गौहर रज़ा
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