"इस राख में जो आग थी उसको मेरी श्रद्धांजलि,
सुबकते शब्द हों या शोर कविता मत कहो उनको
ओस के अब बोझ से जो पत्ती कांपती है उसको देखो
झर रहे झरने को देखो बह रही नदियों को देखो
शब्दकोशों की सड़ान्धों से दूर प्यार की परिभाषा किसी तितली से पूछो
गूंजता है जो नगाड़ों सा ह्रदय में
गुनगुनाओ उसको राग बन जाएगा
स्मृतिया जो टहलती हैं दिलों के वीरान दालानों में उनकी पदचाप भी सुनना
दिलों की आग से दहकी सी साँसें दर्ज करना मायूस से मौसम में
लोग समझेंगे तो उसे कविता समझ लेंगे
इस राख में जो आग थी उसको मेरी श्रद्धांजलि,
सुबकते शब्द हों या शोर कविता मत कहो उनको." ----राजीव चतुर्वेदी
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