Friday, July 6, 2012

उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया


"उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया,
आग दिल में थी राग होठों पर
फिर भी मैंने फूस के ढेरों पर घर कर दिया
जिन्दगी में जो भी बीता उसमें गीता ठूंस कर
दाव पर मैं ही लगा था दार्शनिक वह बन गया 
उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया,
अब धुंआ उठाता हुआ सहमे हुए से लोग हैं
फाकामस्ती कर रहे जो फाग गाते लोग हैं
इनके चेहरे की शिकन का कफ़न अखबार हैं
सर्द सी आहें यहाँ की संसदों में कौन सुनता है
माचिशों की शर्त है अंगार का व्यापार करने की
भागीरथी के वंशजो समझो इसे
आग क्या है अब चरागों से न पूछ
आग अब चरित्रों में भी जलने लगी
उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया,
बीतरागी सा चल पड़ा हूँ मैं आग दिल में है राग होठों पर,
उसने माचिश से मेरा मुकद्दर लिख दिया,
अब धुंआ उठाता हुआ सहमे हुए से लोग हैं ." -----राजीव चतुर्वेदी 

1 comment:

विभूति" said...

बहुत ही सहज शब्दों में कितनी गहरी बात कह दी आपने..... खुबसूरत अभिवयक्ति....