Monday, April 30, 2012

आफताब की आफत आ गयी यार !!

"आफताब की आफत आ गयी यार !!
जेनरेटर की मार्केटिंग में लालटेन यह कहती है
सुन कर व्यवहार का सच बाजार के सच पर तरस खाता है
शब्दकोशों में कैद सच को रिहा करो यारो 
पूछ लो अब तितलियों से तथ्य फूलों का
सतह पर जो फतह कर लौटता है ज्ञान के गूलर का भुनगा
कोलंबस की भूल सभी पर भारी है क्यों ?
सत्य तथ्य से उपजेंगे जब सार्वभौमिक होकर समाचार का सूत्र बनेगे
षड्यंत्रों से जब तुम उनको बुन डालोगे
तो विचार के अवशेषों पर खडी प्रचार की प्राचीरें होंगी
और वहां फिर कंदीलों को सूरज कोई कह डालेगा
सच की महक नहीं बदली है मानक मत बदलो तुम." ----- राजीव चतुर्वेदी 

गोरे लोगों ने जो काला धन कमाया है



"सोनिया तुम सच बताना
जो दौलत है तुम्हारे पास वह इटली से तो लाई नहीं थी
क्या किया तुमने, कमाया किस तरीके से इसे ?
                              ---यह सवाल भी अब कम नहीं है
गोरे लोगों ने जो काला धन कमाया है देश को यों लूट कर
मनमोहन सरकार की इस पर जो शातिराना चुप्पी है
वह सोनिया के लिए वफादारी भले हो
                          देश के लिए गद्दारी से कम नहीं है."
                                           ---- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, April 29, 2012

अपने मुस्तकबिल के बावत सोचने दो अब मुझे

"अपने मुस्तकबिल के बावत सोचने दो अब मुझे ,
गुजरती शाम का सूरज मुडेरों पर खडा है.

वहां जिस डाल पर एक चिड़िया का घोंसला है ,
वहां तक एक अजगर जा चढ़ा है .

इबादत और अब मैं क्यों करूं तेरी,
तू उतनी दूर ही मुझसे अब भी खडा है .

ये कहते हैं कि पूरी रात रोया है रहमगर भी,
यजीदी काफिले का रुख अब फिर से मुड़ा है."
-- राजीव चतुर्वेदी

( मुस्तकबिल = भविष्य , इबादत = अर्चना/ पूजा , रहमगर = दयानिधान / भगवान् / अल्लाह ,
यजीदी काफिला = कर्बला में यजीद के काफिले ने ही मुहम्मद साहब के वंश नाश का प्रयास किया था./ कातिल खलनायक की सेना.)

स्वतंत्रताके महास्वप्न का मध्यांतर है यह


"स्वतंत्रताके महास्वप्न का मध्यांतर है यह. एक-एक कर व्यवस्था के खम्बे गिर रहे हैं. वह विधायिका बाँझ है जो आज तक देश को देसी क़ानून भी न दे सकी. न्यायपालिका नपुंसक तो थी ही बेईमान भी है. उच्च न्यायालयों के जज कैसे बनते थे यह अभी तक अन्दर की बात थी पर अभिषेक मनु सिंघवी की सीडी के बाद सभी को पता चल गया है उच्च न्यायालयों के जजों का विस्तार विस्तर के जुगाड़ से होता है.सिघवी के पहले एक महेश्वरी जी भी उच्च न्यायालय के दर्जनों जज बिस्तरों के विस्तार और देह दर्शन पर बना चुके हैं.  कार्यपालिका यानी नौकरशाहीकर्महीन (कमीन) है यह सभी जानते है.... कहाँ रोयें ? मीडिया में ? मीडिया अब...मंडी बन चुकी है.उठो नया सृजन करो ! यह देश इन घोटालेबाजों के बाप का नहीं आप का भी है.शब्द युद्ध करो, शस्त्र युद्ध करो !!"  ----राजीव चतुर्वेदी


अफ़सोस के अफ़साने सुने हैं मैंने भी बहुत

"तू मेरी तकदीर की तश्वीर होती तो बेहतर होता
वरना अफ़सोस के अफ़साने सुने हैं मैंने भी बहुत ." --- राजीव चतुर्वेदी

Saturday, April 28, 2012

दर्ज होना चाहती हैं खूबसूरत सी खरासें

"सहमती शाम का सूरज संकोची सा नज़र आया
रात में दहशत अँधेरा ओढ़ के बैठी रही 
शब्द लाशें बन के सुबह बिखरे थे अखबार में
दिन के सूरज की उंगली पकड़ के मैं निकला था घर से
शाम होते मैं कहीं गुम हो गया था 
जिन्दगी की इस तश्वीर को तहरीर मत समझो
आज मेरे खून से तर दिख रहे हैं उन्हीं काँटों पर
दर्ज होना चाहती हैं खूबसूरत सी खरासें."          -----राजीव चतुर्वेदी

यह वैश्वीकरण किसका है ?


"यह वैश्वीकरण किसका है -- अमीरी का कि गरीबी का ? --- आनंद का कि दुखों का ?--- हिंसा का कि शान्ति का ?--- बुद्धि का कि मूर्खता का ? ---भले आदमी का कि गुंडों का ? ---देवताओं का कि दैत्यों का ? उत्पादक का कि उपभोक्ता का ?---- कहीं यह दलालों , आढतियों  का तो नहीं है ?" ---- राजीव चतुर्वेदी   




केन्द्रीय मंत्रिमंडल पर रोजाना का खर्चा औसत भारतीय की आमदनी का 1 लाख 5 हजार गुना है

"महात्मा गांधी ने नमक क़ानून तोड़ने की नोटिस 2 March'1930 देते हुए अंग्रेज वायसराय को लंबा पत्र लिखा था -- "...जिस अन्याय का उल्लेख किया गया है वह उस विदेशी शाशन को चलाने के लिए किया जाता है, जो स्पष्टतह संसार का सबसे महँगा शासन है. अपने वेतन को ही लीजिये यह प्रतिमाह 21 हजार रुपये से अधिक पड़ता है, अप्रत्यक्ष भत्ते आदि अलग. यानी आपको प्रतिदिन 700 रूपये से अधिक मिलता है ,जबकि भारत की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी दो आने प्रति दिन से भी कम है. इस प्रकार आप बारात की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी से पांच हजार गुने से भी अधिक ले रहे हैं. ब्रिटिश प्रधान मंत्री ब्रिटेन की औसत आमदनी का सिर्फ 90 गुना ही लेते हैं...यह निजी दृष्टांत मैंने एक दुखद सत्य को आपके गले उतारने के लिए लिया है...."
गुजरी सदी में उठाया गया गांधी का यह सवाल इस सदी में भारत के राष्ट्रपति- प्रधानमंत्री और शाशन व्यवस्था के सन्दर्भ में प्रासंगिक है. औसत भारतीय की रोजाना की आमदनी 32 रुपये के लगभग है जबकि राष्ट्रपति पर रोज 5 लाख 14 हजार से ज्यादा खर्च होता है जो औसत भारतीय की तुलना में 16063 गुना अधिक है .इसी प्रकार प्रधानमंत्री पर रोजाना 3 लाख 38 हजार रूपये खर्च आता है जो औसत भारतीय की आमदनी का 10562 गुना अधिक है .केन्द्रीय मंत्रिमंडल पर रोजाना का खर्चा लगभग 25 लाख रुपये है जो औसत भारतीय की आमदनी का 1 लाख 5 हजार गुना है." --- राजीव चतुर्वेदी        


Thursday, April 26, 2012

आहत मन की आहट का आलेख ----यही कविता है


"यह राग रंग की आवाजें
यह शब्दों की अंतरध्वनियाँ
यह खून शिराओं से चल कर दिल पर दस्तक जो देता है
स्मृतियों की पदचाप सुनो तुम अपने बीराने में
आहत मन की आहट का आलेख ----यही कविता है
भाषा के पहले शब्दों के नाद हुए अनुवाद जहां
कविता उसके पहले भी आई थी
वह दस्तक दर्ज हुयी है दस्तावेजों में
कुछ अपने आंसू
कुछ खुशियाँ , कुछ खून की बूँदें
शब्दों की नज़रों से ओझल प्यार तुम्हारा
लिख पाओ तो मुझे बताना
कह पाओ तो मुझे सुनाना
जीवन की इस पृष्ठ भूमि पर कविता और लिखी जानी है
यह राग रंग की आवाजें
यह शब्दों की अंतरध्वनियाँ
यह खून शिराओं से चल कर दिल पर दस्तक जो देता है
स्मृतियों की पदचाप सुनो तुम अपने बीराने में
आहत मन की आहट का आलेख ----यही कविता है ." -----राजीव चतुर्वेदी

Friday, April 20, 2012

ऐ उड़ते हुए फरिश्तो,--- मेरी फेहरिस्त देख लो

" ऐ उड़ते हुए फरिश्तो,--- मेरी फेहरिस्त देख लो
हैं नाम इसमें दर्ज वही लोग हैं यहाँ
जिनका ज़मीर जिंदा है जज़्वात हैं वहां
अभी ऐतबार बाकी है मुझे कुछ और दिन रहना है
अभी प्यार बाकी है कुछ लोगों को उसे देना है
वो मोहब्बत, वो इमारत, वो इबारत डूबती है आँख में मेरी
मैं और रहना चाहता था, जिन्दगी से प्यार मेरे यार मुझको भी था
मैं जाता हूँ ,...सफ़र है यह, ...गुजरता हूँ गुजारिश से
मैं नहीं रहूँगा फिर भी कर सको तो मेरी वफाओं पे ऐतबार कर लेना
ऐ उड़ते हुए फरिश्तो मेरी फेहरिस्त देख लो
सफ़र लंबा है,...मुझे जाना है ,...चल रहा हूँ मैं ..."    -----राजीव चतुर्वेदी (20 April'12)

भावना तेरी यहाँ पर भाप सी उड़ जायेगी


"अर्ध्य देती आस्था से सूर्य बोला चीख कर,
भावना तेरी यहाँ पर भाप सी उड़ जायेगी."
----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, April 18, 2012

क़त्ल हो चुके तेरे कारीगरों ने भी मुहब्बत की थी


"ऐ ताज !! शहंशाहों की मोहब्बत में बरक्कत न मांग,
क़त्ल हो चुके तेरे कारीगरों ने भी मुहब्बत की थी. "
                        ---- राजीव चतुर्वेदी

आओ कुछ अच्छा लिखें

"आओ कुछ अच्छा लिखें
राष्ट्रपति पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
इन्द्र गांधी की रसोइया का राष्ट्रपति बन जाना उनके लिए गर्व की बात है
प्रधानमंत्री पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
हालांकि उन्हें देश की जनता ने कभी नहीं चुना किन्तु वह प्रधानमंत्री हैं
सोनिया पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि वह देश राजनीति से नहीं देह राजनीति के रास्ते यहाँ तक पहुँची हैं
राहुल गांधी हों या महाजन पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
अर्थ नीति पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि हमारी अर्थ व्यवस्था की अर्थी ही निकल गयी है
राजनीति पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि राजनीति हो ही नहीं रही है बस दुकाने चल रही हैं और गिरोह पल रहे हैं
खेल नीति पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि कलमाडी लम्बी जेल यात्रा के बाद स्वदेश रवाना हुए हैं और बढेरा को किसी ने घेरा नहीं है
क़ानून व्यवस्था पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि घूस तो पेशकार लेता है, पहुँचती कहाँ तक है क्या बताएं
पुलिस पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
मायाबती/ मुलायम/ करूणानिधि/ यदुरप्पा /कल्माणी / कनीमोझी पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
"शीला" कहो तो "शीला की जवानी" याद आती है दिल्ली की मुख्यमंत्री नहीं
रोबर्ट्स बढेरा हों या चटवाल सभी हैं मालामाल पर देश हो रहा है कंगाल उस पर अच्छा नहीं लिखा जा सकता
कोंग्रेस /भाजपा /माकपा पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
अपने और पराये काले धन का अनुलोम विलोम करते स्वामी रामदेव पर भी अब अच्छा लिखने का मन नहीं करता
अपने गुरु की रहस्यमय ह्त्या का राज्याभिषेक रामदेवनुमा राजनीति को रोमांचित करता है
जनता यानी कि हमारे आपके चितकबरे चरित्र पर भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता
NGO के टेस्ट ट्यूब बेबी अग्निवेश,संदीप पाण्डेय,तीस्ता सीतलवाद,किरण बेदी, केजरीवाल, शबाना आजमी , महेश भट्ट
अनुदानों के कीचड़ में किलोलें कर रहे हैं, इन पर भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता
अन्ना का पन्ना अभी लिखा जाना शेष है
आसान किश्तों में जेल जा रहे और जनता से जूते थप्पड़ खा रहे
मनमोहन मंत्रिमंडल के बारे में भी कुछ अच्छा नहीं लिखा जा सकता
आतंकवाद में शामिल मौलवियों के बारे में भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता
और यौनशोषण के आरोपों में लिप्त महंतों और पादरियों के बारे में भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता
क्रिकेट पर दाउद की दया है, उसका हर मैच फिक्स है बाकी खेल दयनीय से हैं उनकी दशा पर अच्छा नहीं लिखा जा सकता
इसी लिए आज छुट्टी
आज कुछ नहीं लिखूंगा. " -- राजीव चतुर्वेदी





"गिरे हुए लोग उठते हैं बड़ी खूबी से ,
और हम भी हैं कि चुनते हैं उन्हें बेवकूफी से."

---राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, April 17, 2012

सावधान !! यह शिक्षा प्रणाली हमारी पीढियां नष्ट कर रही है



"सावधान !! यह शिक्षा प्रणाली हमारे बच्चों का बचपना और युवाओं की तरुणाई छीन रही है और पूरी की पूरी पीढी को कुंठित बना रही है. जिनको हम मास्टर / शिक्षक कहते हैं उनके बारे में भ्रम यदि हो तो दूर कर लें. जो मेडीकल एंट्रेंस की परिक्षा में फेल हो जाता है वह जीव विज्ञान का मास्टर बनता है, जो इन्जीनियरिंग की एंट्रेंस परिक्षा में फेल हो जाता है वह फिजिक्स  या गणित का मास्टर बनता है. हिन्दी का मास्टर हिन्दी का बड़ा कवि या साहित्यकार नहीं हुआ और अंगरेजी का मास्टर अंगरेजी का बड़ा लेखक नहीं हुआ. अमेरिका अर्थशास्त्र के 62 मास्टरों /प्रोफेसरों को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरष्कार मिला तो उसकी अर्थ व्यवस्था गर्त में चली गयी. पूरी दुनिया में राजनीति शास्त्र का कोइ मास्टर सीनेट या संसद या विधान सभा का सदस्य होना तो दूर सभासद भी नहीं हो सका है.मतलब साफ़ है या तो वह जिस विषय को पढता-पढाता आ रहा है वह राजनीति नहीं है या वह राजनीति समझता ही नहीं है और अपने ही विषय में अयोग्य है. जो मास्टर विधि (Ll.B.) पढ़ाते हैं वह अछे वकील नहीं हैं. इस तरह के मास्टरों के दिए अंकों से हम किसी की योग्यता भला कैसे नाप सकते हैं ? जो बेचारी लडकीयाँ शोध करती हैं वह अपने गाइड के किन देहिक /दैविक /भौतिक ताप को हरने को मजबूर की जाती हैं यह सार्जनिक सच सत्यापन का मोहताज नहीं. "वो क्या बताएंगे राह हमको, जिन्हें खुद अपना पता नहीं है" . इस तरह की शिक्षा प्रणाली हमारी पीढियां नष्ट कर रही है." ---राजीव चतुर्वेदी
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गुरु गोविन्द दोऊ खड़े ...गुनगुनाते बच्चे बड़े होते हैं ....गुरु को पूजते महाविद्यालयों / विश्व विद्यालयों तक पंहुचते है ...स्नातक बनते-बनते गुरुओं के प्रति उनका नजरिया बदलने लगता है. उनको मिलते हैं मटुकनाथ के कई संस्करण जो अवसर मिलते ही द्विआर्थी बातें करने में भी नहीं चूकते और क्लास में उनकी नज़रें नृत्य करती हैं ...नजराना भी वसूलती हैं, ... उन क्षात्रों को गुरु के नाम पर मिलते हैं कोचिंग के नाम से शिक्षा की दुकान चलाने वाले गुरु घंटाल जिनके पूरे सत्र में कितना पढ़ाएंगे यह घंटे ही तय नहीं हैं. उन क्षात्रों को इन गुरुओं की कथित योग्यता का रहस्य भी पता चल जाता है कि Ph.D. करने के लिए योग्य नहीं चहेता होना जरूरी है...बिना रीढ़ का केंचुआ जैसा होना जरूरी है...क्षात्राओं के शोषण की तो कहानी बहुआयामी है जो गुरु के प्रति घृणाभाव से भर देती है. परिणाम जो बच्चे-- "गुरु गोविन्द दोनो खड़े..." गुनगुनाते बड़े हुए थे ...गुरु को पूजते उनके पैर छूते महाविद्यालयों / विश्व विद्यालयों तक पंहुचे थे स्नातक होते होते तक उनके गुरु के पैर छूने के लिए पैरों की तरफ बढ़ने वाले हाथ गुरु के गिरहवान तक जा पंहुचते हैं और गाहे- बगाहे हो ही जाती है लातों की गुरु दक्षिणा. शिक्षक दिवस पर आत्म मुग्ध होने के वजाय शिक्षक आत्म प्रवंचना करें तो बेहतर होगा. शिक्षक दिवस की बधाई !! " ----राजीव चतुर्वेदी

जन्म पत्र

(प्रस्तुत है --"इंडिया टुडे" साहित्य वार्षिकी 1994 में प्रकाशित संजय चतुर्वेदी की कविता जो आज भी प्रासंगिक है )
  " जातक जब इस संसार में आया
विनी मंडेला और इमेल्डा मार्कोस में फर्क करना मुश्किल हो चुका था
और पचासी प्रतिशत जमीन पर पंद्रह प्रतिशत गोरों के बाज़ार ने
नेल्सन मंडेला का प्यार की दुनिया में स्वागत किया
दोनों के पास दूसरा कोई रास्ता बाकी नहीं था
रवांडा की लाशें झील में इकट्ठा होने लगी थीं
विचारों पर हरकतुल हथियार थी
कश्मीर में कभी हरकतुल अंसार थी कभी हरकतुल सरकार
लाखों लोग अपने ही देश में शरणार्थी थे
बुद्धिखोरों में मक्कार चुप्पी थी
या फिर उन्होंने जोर- जोर से बताया
यह हरकतुल संसार है इसे साम्प्रदायिक न माने
ये और बात है कि एक सम्प्रदाय के बहुजन
मैदानी इलाके में पिकनिक मनाने को आमादा हैं

हिन्दुस्तान में कमुनिस्ट एक दुसरे पर थूकने में मशगूल थे
और एक अखबारनुमा माफिया के लफंगों ने
जनता के सामने औरतों को पीट डाला
और कुछ लोगों को अचानक मालूम हुआ
नागरिक कितना निहत्था है
और कस्बे में भले आदमी की तरह रहना
अपराधी की तरह रहने से अधिक दुश्बार है
और अपनी बुनियादी इज्जत को बचाना
एक रोजाना की लड़ाई है
और रोजाना लड़ना दंडनीय है
एक दरोगा चेक से रिश्वत ले कर मुस्कुरा रहा था
कि यह उसकी मॉडर्न सेंसिबिलिटी थी
अपराधी हमारे पैर पर खड़े होकर पेशाब कर रहे थे
और कवियों ने एक कार्यशाला का आयोजन किया था
लौकियों की मोहब्बत और कद्दू के गीत की गहराईयाँ

जिनके पास सब कुछ था
वे अपराधी हो चुके थे
जिनके पास बहुत कम था
उन्हें क़ानून से डरना सिखाया जा रहा था
अस्पतालों में बीमारों की फजीहत थी
सड़कों पर बेकारों को नसीहत
देश के चकलों में फंसी चालीस प्रतिशत स्त्रीयां
अठारह साल से कम उम्र की थीं
और मुट्ठी भर लोगों की पर्चेसिंग पावर बढ़ा कर
जादूगर हमें लिबर्टी की और ले चला
आठ आने की दवा अस्सी रुपये में मिलती थी
और अस्सी करोड़ रुपये एक फोन पर मिल जाते थे
भारतीय संस्कृत की कुछ खाश चीजें
कुछ ख़ास लोगों में कुछ ख़ास तरीके से बिकती थीं
और पद्म्खोरों की हरामखोरी के लम्बे इंतजाम थे
दिल्ली में इंडिया एक सेंटर था
जो इंटरनेशनल था
उधर प्रधानमंत्री ने बिल क्लिंटन से हाथ मिलाया
और अचानक हमने सुष्मिता सेन के बारे में जाना
जो पिछले दस सालों में बदहाल देशों से आई सातवीं विश्व सुन्दरी थी
जादू इंसान की अक्ल पर कादिर था
और मुफलिसों के पिछले दरवाजे से धडाधड हूरें निकल रही थीं
कि सेक्स और संस्कृत
आर्थिक बदलाव में
स्ट्रकचरल एडजस्टमेंट का हिस्सा थे
कि सेक्स में सही होना बहुत जरूरी था
कि सेक्सी होना
सेक्स में सही होना था
कि कितनी बार ऐसा लगता था
कि राजनीति में सही होने का कोई मतलब नहीं रह गया है
और सेक्स में जो विचार है उसको क्या हो जाता है
और इंद्र के किले अगर मजबूत हो गए तो कामदेव एक भडुआ बन कर रह जाएगा

बहुजन के नाम पर लफंगई
और क्रांति के नाम पर दलाली स्थापित संस्थाएं थीं
नौकरशाही में अचानक नायक पैदा होने लगे थे
एक बददिमाग और बदजुबान आदमी
जो तिकड़म और कॉलगर्ल चरित्र की बजह से शीर्ष तक पहुंचा था
धीरे -धीरे सारे हिन्दुस्तान को कॉलगर्ल बता चुका था
मजोली समझ के मझोले लोगों को लगा यह आया हीरो हमारा
और उन्हें ठीक ही लगा
एक लगभग अनजान युवती की गर्दन पकड़ कर
उसे प्रधानमंत्री बनाने की कोशिशें हो रही थीं
एक निर्वस्त्र और प्रजा पीड़ित राजा
अपनी तिकड़म में मार खाने के बाद
अब सुकरात के समाधि लेख की प्रूफ रीडिंग कर रहा था
खून के अंतिम बूँद तक जनता की सेवा करने का ऐलान
करिश्मा कपूर ने किया

मानव समाज में समझदारी की ऊटपटांग स्थिति थी
कुछ दिन पहले बिना किसी व्यापक दबाव के
पोप ने गैलीलियो से मांफी माँगी
और पवित्र पुस्तकों पुनर्व्याख्या होनी चाहिये ऐसा कहने पर
मुल्लाओं ने एक औरत की मौत का फरमान जारी कर दिया
ब्राजील के खिलाफ जो भी खेलता था
खेल को जेल बना कर खेलता था
और गालीयाँ ब्राजील को पड़ती थीं
जैसे कि दूसरों के खेल मैं भी सकारात्मक तर्क का प्रवेश
ब्राजील की ही जिम्मेदारी थी
मुशायरा मंच के पीछे होने लगा था
और कवियों के चेहरे देख कर लगता था
जैसे मुशायरा लूटने में शायरी लुटी हो
धीरे- धीरे विचार की जगह ख़बरें ले चुकी थीं
और ख़बरों की जगह विज्ञापन
यह माना जाने लगा था
कि विचार दो घंटे मैं पुस्तकालय से प्राप्त किये जा सकते हैं
और यह भी माना जाने लगा था
कि उनसे दूर रहना कोस्ट इफेक्टिव रहेगा
फिर भी दक्षिण अफ्रीका के अधिकाँश लोगों ने
गज़ब का धीरज और समझदारी दिखाई
और दुनिया के तमाम लोगों को निराश कर दिया

सुखों और उम्मीदों से भरी इस वसुंधरा पर फैला समर्थ मानव समाज
जो अन्य प्राणियों पर कब्जा कर चुका था
और जिसे सितारों से कोई ख़ास ख़तरा नहीं था
प्लास्टिक को लेकर चिंतित था
जो पर्यावरण में प्रदूषण
और गरीबों के पैर मैं चप्पल बन कर आई थी
समेकित संसार मैं जब संचार ने विश्व को एक गाँव बना दिया था
बहुजन अभिजन के लिए प्रदूषण थे
अभिजन बहुजन के लिए
इनका पेट फाड़ कर निकला मध्य वर्ग
दोनों के लिए प्रदूषण बन चुका था
और ऐसे में जातक ने सांस ली
उसके माता पिता के पास
यह बता पाने की प्रचलित सुविधा नहीं थी
कि रास्ता इधर से है
प्रज्ञा और प्रचुरता के साथ उसे प्रदूषण मिला
उसके हाथों में कुतुबनुमा
पैरों मैं चप्पलें थीं ." -------- संजय चतुर्वेदी

हम गवाही देते हैं

यहाँ प्रस्तुत कविता 1997 "इंडिया टुडे" साहित्यिक वार्षिकी में प्रकशित "संजय चतुर्वेदी" की कविता है जो आज भी प्रासंगिक है.
" ई उन्नीस सौ छियानवे में
मतपेटियों से जिन्न निकला
जिसने हुक्म आने से पहले ही
एक -एक के कपड़े उतारने शुरू कर दिए
लफंगों से नहीं हम ऋषियों के नाम से शुरू करते हैं

सीपीएम के सर्वोच्च नेता ने

सारे देश के सामने दूरदर्शन को बताया
कि उनकी साठ से ज्यादा कोंग्रेसीयों से
गुप्त बातचीत चल रही है
समय आने पर इसका पता चल जाएगा

जो भी भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ हो

उसे धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील माना जाता था
और सामाजिक न्याय के नाम पर
चालू कमुनिस्ट
जबरदस्त जातियों और मौकापरस्त लोगों के
मध्यस्थ बन कर रह गए थे
वैचारिक समय इतना पेचीदा
और प्रगतिशील होना इतना आसान
शायद इससे पहले कभी नहीं था

कम्युनिस्टों वाले मंत्रिमंडल में

वित्तमंत्री क्लिंटन वाला था
और यह बताया जा रहा था
कि साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए
आर्थिक नीतियाँ अमेरिका की ही उचित हैं
और यह भी बताया जा रहा था
कि संसदीय राजनीति एक बड़ी करवट ले रही है
और बिना अमेरिका की मदद के
मार्क्सवाद को प्रासंगिक रख पाना मुश्किल होगा
बिजनेस स्कूलों से निकल अपवर्ल्डली मोबाइल लड़के
कम्युनिस्टों के अस्तबल में घुस चुके थे
बूढ़े तो पहले से ही तैयार थे
सो शानदार वरयात्रा शुरू हुई
यह कोई लॉन्ग मार्च नहीं था , न कोई जनादेश

दिल्ली में कोंग्रेस अध्यक्ष ने बताया कि यह सरकार चलेगी

क्योंकि हमारा बिना शर्त समर्थन का वादा है
लेकिन उनके पार्टी अध्यक्ष ने बंगलूर में बताया
कि सरकार जल्दी ही गिर जायेगी
क्योंकि वर्तान प्रधानमंत्री संसद नहीं है
और चुनाव लड़ते ही हम उसे हरा देंगे

सत्तरूढ़ दल का अध्यक्ष जो अपने को लोहिया का शिष्य बताता था

टीवी पर भी भद्दी जवान में बात करता था
और इस फूहड़पन को
ऊंचे स्टार का फिनोमिनन बताया जा रहा था
एक सफल राजनैतिक दलाल ने
जो अपने को धाकड़ सांसद और रिकोर्ड तोड़ मसीहा मानता था
हमें बताया कि फूलनदेवी अपराधी नहीं है
जैसे कि बेहमई में जो लोग मारे गए
वे सभी पुरुष प्रधान समाज के घृणित प्रतिनिध थे
और गावों में
अचानक मर्दों को इकट्ठा करके गोली मर देना
एक क्रांतिकारी काम होगा
और सामाजिक न्याय का कोई बड़ा अनुयाई
अगर गृह मंत्री बन गया
तो यह काम सरकारी स्टार पर चलाया जाएगा
और एक दिन हमें अचानक पता चला
कि बिहार में अपनी पत्नी को छोड़ कर
दिल्ली मैं दूसरी शादी करके
सारे देश के सामने मौज मस्ती करते एक दढ़ियल को
कैसी पिस्तौल सुन्दरी ने गोली मार दी

सामाजिक न्याय के नाम पर

हम सभी मूल्यों को नष्ट करने की राह पर चल पड़े थे
और मानवसुलभ सुन्दरता और संस्कृत की बात करने को
बिना बहस के सवर्ण मानसिकता का मान लिया जाता था

रक्षा मंत्री गृह मंत्री को अफ़सोसनाक

और गृह मंत्री रक्षा मंत्री को शर्मनाक बताता था
और अगर कोई कहता कि यह देश के लिए ठीक नहीं है
तो कहा जता था कि यह तो ठीक है
लेकिन इस पर ज्यादा सोचना
साम्प्रदायिक संतुलन के लिए ठीक नही है
धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रधानमंत्री ने झूठ बोला
तो गृह मंत्री ने माफी मांगी
और गृह मंत्री ने सच बोला
तो प्रधान मंत्री ने मांफी मांगी
एक दिन रक्षा मंत्री ने झूठ बोला
लेकिन प्रधानमंत्री ने माफी मांगने से इनकार कर दिया
अगले दिन पता चला
कि सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष ने
दस साल के लिए
प्रधानमंत्री को पार्टी से निकाल बाहर किया

सरकार में तेरह घटक थे

मंत्रिमंडल में पच्चीस
केंद्र में चार घटक खिसकाने से

राज्य में बारह घटक मजबूत होते थे

और राज्यों के घटकों को जोड़ने पर
केंद्र में पांच नये घटक पैदा होने की संभावना थी
विचारों में जो घटक थे
उन्हें सिद्धांतों में रखते थे
तो लटक पैदा होती थी
और आचारों को मिलाते थे
तो अचार बनता था
लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा को सभी प्रतिबद्ध थे
लेकिन लोकतांत्रिक तरीकों से अगर बीजेपी सत्ता में आई
तो सभी फ़ौजी हुकूमत की बकालत करेंगे
ऐसा भी एक प्रस्ताव था

हम घटिया रास्तों से अच्छा उद्देश्य चाहते थे

केन्द्रीय समिति मुझे क्षमा करे
और अगर यह काम संसदीय परम्पराओं के विरुद्ध न हो
तो कुछ रोज मैं ऋत्विक घटक के बारे मैं सोचना चाहूंगा."
---संजय चतुर्वेदी

आंसू मेरी आँख में इबादत की तरह महके थे

"जख्म उसने दिए थे मगर सलीके से,
आंसू मेरी आँख में इबादत की तरह महके थे
दिमाग में इबारत और दिल में इमारत जितनी भी थीं ढह गयीं
लडखडाते पाँव मेरे रास्तों पर बहके थे
रात लम्बी थी ग़मों की चांदनी ओढ़े हुए
हर सुबह हम याद तेरी करके फिर से चहके थे. " ------राजीव चतुर्वेदी

बड़ी उदास है यह रात, सर्द हैं रिश्ते

"बड़ी उदास है यह रात, सर्द हैं रिश्ते,
हवाएं हांफती है, खिड़कियाँ भी खौफ में हैं,
सर्द होते जा रहे रिश्तों के रास्ते लम्बे हैं यहाँ,
सत्य का साहस लिए, संताप से सहमा हुआ गुजरता हूँ गुजारिश सा
घटनाएं भी गुजरती हैं घटाओं की तरह जैसे अनुभव हो मरुथर में भी बारिस का,
यादों के अलावों में सुलगती थी जो याद तेरी अब बुझती जा रही है, --ताप लूं .
कल सुबह हर याद को फिर राख बानना है
दौर ऐसा है दिया दयनीय है हर याद का
सो भी जाने दो मुझे, दरवाजों पर अब दस्तक न दो
आस आंसू से बही थी, ओस पंखुड़ियों पे न देख
अब तो दीपक बुझ रहा है जल चुके विश्वास का." ----राजीव चतुर्वेदी     

Monday, April 16, 2012

प्यार की पैमाइश के कब पैमाने मिलेंगे ?

" हो सके तो देख लेना चाँद तुमभी आज छलनी से छलकता 
चांदनी की चादर जब हटाना ख्वाब मेरे छत पे ही बैठे मिलेंगे
अगरबत्ती सी सुलगती है जहन में आत्मा मेरी पुकारा तुमने क्या ?
देह की पैमाइश की नुमाइश हो चुकी अब
प्यार की पैमाइश के कब पैमाने मिलेंगे ?"
----राजीव चतुर्वेदी

प्यार की परिभाषा पानी ने पूछी पत्थरों से

 "प्यार की परिभाषा पानी ने पूछी पत्थरों से,
रेत चीखी और यह कहने लगी
तू तो बहता जा रहा था एक रवानी की तरह
मैं टूटती ही रह गयी जिंदगानी की तरह." ----राजीव चतुर्वेदी 


Saturday, April 14, 2012

और हम अफ़सोस का तकिया लगा कर सो गए


सच के सूचकांक पर अखबार औंधे मुंह गिरा

शब्द सहमे से बयानों में कहीं गुम हो गए


जुबां को रूमाल सा तह कर दिया तहजीब से

ख्वाहिशों को दिल में दफ़न करके हम रो गए


फासले पर फैसला था और संसद मौन थी

और हम अफ़सोस का तकिया लगा कर सो गए."
 -- राजीव  चतुर्वेदी 

Tuesday, April 10, 2012

संस्कृति के नाम पर विकृति का यशोगान ---मेरा भारत महान

"राम और मरा में अंतर क्या है ?
पहला जीवन की शर्तों का आगमन है और दूसरा बहिर्गमन
अल्लाह और मल्लाह के बीच जो जिस्मानी दरिया बहता है
जमीन पर नूर और जन्नत में हूर पर फातिमा के लिए क्या फतवा है ?
स्वामी विवेकानंद की संस्कृति और पीटर इंग्लॅण्ड की शर्ट का समीकरण समझो
इनके बीच फंसा बाजार का सेंसेक्स और व्यवहार का फेयर सेक्स धराशाही है
मंदिर में काली और बाज़ार में फेयर एण्ड लवली  का बोलबाला है
इस बीच दसवीं भी न पास कर सका एक बल्लेबाज शतकों के शतक पर अटका
फिर उसने एक भुखमरे देश में शतको का शतक बनाया
उस दिन देश तो हार गया था पर वह जीत गया था
फिर उसने ली उस पेप्सी की डकार जो उसे देख कर हमारे नौजवान और ज्यादा पीते हैं
सुना है सचिन अपने बच्चों को पेप्सी नहीं पिलाता
भगवानो में महेश जो युगों को अमृत और पापियों को दारू पीने की व्यवस्था करते थे
यहाँ तो अब क्रिकेट का धोनी है जो नौजवानों में कर रहा है दारू का प्रचार
सुना है भारत में सर्वाधिक बोर्नविटा पी जाती है तभी तो खेल में हम फिसड्डी हैं
और चालीस फीसदी बच्चे हैं कुपोषण का शिकार
कातिल थे वह जिन्होंने ईसा मसीह के क़त्ल के लिए सलीब बनाई थी और उसे टांगा था
हम साल दर साल नई नई सलीबें बना रहे हैं और  ईसा को सलीब पर टांग रहे हैं
माल्थूजियन थ्योरी ऑफ़ पोपूलेसन बारह बच्चों के बाप कलीम मियाँ के आगे नतमस्तक है
4 बीबी और महज 16 बच्चों के बाप कलीम मियाँ को वेलेंटाइन को जानने की जरूरत भी क्या है ?
शिव की पूजा पद्धति मुझे विकृति लगती है आपको संस्कृति लगे तो बताना
और अपनी माँ बहनों को एक बार फिर किसी के लिंग उपासना के लिए लेजाना
मैं तो चला शिव का चरित्र पूजने
तुम्हें चरित्र नही पूजना था तो पूजते चित्र
तुम जिसे पूजते हो वह न चरित्र है न चित्र
न चरित्र ,न चित्र यह है विचित्र
संस्कृति के नाम पर विकृति का यशोगान ---मेरा भारत महान ."
---- राजीव चतुर्वेदी

Monday, April 9, 2012

रास्ते ले कर चल पड़े हैं मुझको रिश्तों से बहुत दूर

"रास्ते ले कर चल पड़े हैं मुझको रिश्तों से बहुत दूर, ---आवाज़ मत दो.
रिश्ते कलेंडर से टंगे हैं मेरे जेहन में
तकदीर में जो दर्ज थीं तारीख अब तहरीर में तपती हुई हैं 
बदलते मौसमों का रंग ...रंग में राग शामिल है
हवन  की अग्नि साक्षी है की जिसकी आग शामिल है
दुआएं दूसरों की और अपना दहकता सा दंभ
घृणा की बारूद से सुलगे प्यार के थे वही जुमले
वह गमले में रोपा था जिसे तुलसी का वह पौधा 
वह इमारत जिसमें लिखी थी प्यार की कितनी इबारत, ---छोड़ आया हूँ
हौसले अब लौटने के हासिये पर हैं अदालत की मिसिल में
अब चलूँ मैं गलती अगर मेरी थी तो गलतियां तेरी भी थी
राहगीरों को हम सफ़र समझो तो तेरी भूल है
अब छलकते छल के रिश्ते हैं यहाँ हर मोड़ पर
कुछ आह, कुछ आशा बटोरे मैं चला उस ओर सूरज डूबता है अब जहां
और चन्दा उग रहा है अब पराजित सा
रास्ते ले कर चल पड़े हैं मुझको रिश्तों से बहुत दूर, ---आवाज़ मत दो.
मैं जानता हूँ ...मानता हूँ --- क्षितिज का छल मुझे निश्छल बना देगा." ---- राजीव चतुर्वेदी (9March'12)   

Sunday, April 8, 2012

हम राष्ट्र के लिए क्या करते हैं ?




"राष्ट्र निर्माण में हमारी सामूहिक / सामाजिक भूमिका क्या है ? हम राष्ट्र के लिए क्या करते हैं ? राष्ट्र निर्माण का आधार होता है "सकल घरेलू उत्पाद" (Gross Domestic Product) . इस से जुड़े किसी भी व्यक्ति को देश में प्रतीक नहीं बनाया जाता. यहाँ हीरो बनते हैं फ़िल्मी कलाकार के छद्मवेश में रंडी /भडुए. क्रिकेट के खिलाड़ी जिनका Gross Domestic Product यानी सकल घरेलू उत्पाद में कोइ योगदान नहीं होता. मनोरंजन तो थके हुए योद्धाओं और उत्पादकों की दैहिक / मानसिक थकान मिटाने के लिए और उनमें ऊर्जा का नया संचार करने के लिए होता है पर हमारे देश में उत्पादन करनेवाले किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं और सत्ता / शेयर के दलाल गोलमाल और मालामाल हैं. नाचने गानेवाले / रंडी /भडुए /क्रिकेट खिलाड़ी ऐश कर रहे हैं. जिस देश का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व रंडी- भडुए नुमा चरित्र करते हों उस देश का चरित्र गर्त में चला जाता है."
                                                                                                                   ---- राजीव चतुर्वेदी








हम टैक्स क्यों देते हैं ?


"हम टैक्स क्यों देते हैं ? हमारे दिए धन को विभिन्न टैक्स के रूप में वसूल कर उस खजाने पर नौकर शाह और नेता गुलछर्रे उड़ाते हैं और बचा खुचा हम पर खर्च कर देते हैं फिर बताते हैं कई हमने यह पुल, वह पुलिया, वह सड़क, यह बिजलीघर बनवाया---जैसे जो धन उस पर खर्च हुआ वह इनके बाप का था हमारा आप का नहीं . संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत एक कल्याणकारी राष्ट्र है पर हमारे टैक्स से कल्याण तो इन भ्रष्टाचारीयों का ही हो रहा है. 70% ग्रामीण भारत से होने वाली आमदनी को 30% शहरों की सुख सुविधा के लिए खर्च किया जाता है. कल्याणकारी राज्य में न्याय, चिकित्सा , शिक्षा, सुरक्षा निःशुल्क देना राज्य का दायित्व होता है पर यहाँ न्याय, चिकित्सा, शिक्षा हम खरीद रहे हैं. गुजरे दस सालों से बजट का घाटा और घोटालों की धन राशि में समानुपातिक रिश्ता है. बजट में निरंतर दवा महगी और दारू सस्ती हो रही है, रोडवेज़ का किराया बढ़ रहा है और एयरवेज़ का किराया घट  रहा है. कोट सस्ते और कफ़न महगा हो रहा है. जिस तरह आज़ादी के लिए सिविल नाफ़रमानी (सविनय अवज्ञा )आन्दोलन चलाया गया था उसी तरह अब हमको टैक्स न देने का आन्दोलन चलाना होगा. हम टैक्स तभी देंगे जब टैक्स से जुड़े विभागों के अधिकारी कर्मचारियों की संपत्ति की जांच हो जिनपर घूस का अथाह धन है और सरकार ईमानदारी से हमारे धन को खर्च करने का विश्वास दिलाये. भ्रष्टाचार के कारण कमजोर होते तन, सस्ते होते वतन और महगे होते कफ़न के लिए लड़ो." ----राजीव चतुर्वेदी




हिन्दी क्यों क्रमशः मर रही है ?


"हिन्दी क्यों क्रमशः मर रही है ? उर्दूभाषी समाज हो या अंगरेजी भाषी समाज सभी अपनी भाषा के आचरण और व्याकरण के प्रति सतर्क है पर हिन्दी जगह जगह गलत लिखी जा रही है, न भाषाई आचरण सही है न व्याकरण और न ही कोई मानकीकरण. परिणाम कि आप कहना कुछ चाहते हैं कहते कुछ हैं. कई बार यह किसी व्यक्ति के लिए अनापेक्षित रूप से अतिक्रमण होता है और प्रायः संक्रमण. हिन्दी हमारे राष्ट्रीय गौरव और संस्कृति की प्रतीक पताका है. इसे अपने ज्ञान की उत्ताल हवाओं में निर्बाध फहराइए पर भाषा के संस्कार, आचरण और व्याकरण को ध्यान में रख कर.---- सादर !!" ----- राजीव चतुर्वेदी

"पेड न्यूज"

" आज़ादी के दौर में पत्रकारिता परवान चढी थी. "उद्दंड मार्तंड" और "सरस्वती" के दौर में एक विज्ञापन निकलता है --"आवश्यकता है सम्पादक की, वेतन /भत्ता - दो समय की रोटी -दाल, अंग्रेजों की जेल और मुकदमें" लाहौर का एक युवक आवेदन करता है और प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी उसको सम्पादक नियुक्त करते हैं. सरदार भगत सिंह इस प्रकार अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत करते हैं. तब पत्रकारिता प्रवृत्ति थी अब आज़ाद...ी के बाद वृत्ति यानी आजीविका का साधन हो गयी. पहले पत्रकारिता मिसन थी अब कमीनो का कमीसन हो गयी. भगत सिंह ने जब असेम्बली बम काण्ड किया तो अंग्रेजों को उनके विरुद्ध कोइ भारतीय गवाह नहीं मिल रहा था. तब दिल्ली के कनाटप्लेस पर फलों के जूस की धकेल लगाने वाले सरदार सोभा सिंह ने अंग्रेजों के पक्ष में भगत सिंह के विरुद्ध झूटी गवाही देकर भगत सिंह को फांसी दिलवाई और इस गद्दारी के बदले सरदार शोभा सिंह को अंग्रेजों ने पुरुष्कृत करके " सर" की टाइटिल दी और कनाट प्लेस के बहुत बड़े भाग का पत्ता भी उसके हक़ में कर दिया. मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह इसी सरदार शोभा सिंह के पुत्र हैं. अब पत्रकारों को तय ही करना होगा कई वह पुरुष्कृतों के प्रवक्ता हैं या तिरष्कृतों के. यानी पत्रकारों की दो बिरादरी साफ़ हैं एक -- गणेश शंकर विद्यार्थी /भगत सिंह के विचार वंशज और दूसरे सरदार शोभा सिंह के विचार बीज. 2G की कुख्याति में हमने बरखा दत्त, वीर सिंघवी, प्रभु चावला और इनके तमाम विचार वंशज पत्रकारों को "दलाल" के आरोप से हलाल किया फिर भी पत्रकारिता के तमाम गुप चुप पाण्डेय अभी बचे हैं. विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया की मंडी की फ्राडिया राडिया रंडीयाँ और दलाल अभी भी सच से हलाल होना शेष हैं. "पेड न्यूज" और "मीडिया मेनेजमेंट" जैसे शब्द संबोधन वर्तमान मीडिया का चरित्र साफ़ कर देते हैं कि मीडिया का सच अब बिकाऊ है टिकाऊ नहीं. क्या है कोई संस्था जो पत्रकारों पर आय की ज्ञात श्रोतों से अधिक धन होने की विवेचना करे ? पहले सच मीडिया बताती थी और न्याय न्याय पालिका करती थी. मीडिया और न्याय पालिका ही दो हाथ थे जो रोते हुए जन -गन -मन के आंसू पोंछते थे. अब ये दोनों हाथ जनता के चीर हरण में लगे हैं. पत्रकारों से प्रश्न है --"सच" में तो सामर्थ्य है पर क्या वर्तमान में मीडिया सच की सारथी है या इतनी स्वार्थी है कि सच की अर्थी निकाल रही है." ---- राजीव चतुर्वेदी

योद्धा नक्षत्र के मोहताज़ नहीं होते

"धरती की हथेली पर सड़क जब दौड़ती हो भाग्यरेखा सी,
पंचांग के पन्नो को पढ़ता ज्योतिषी बांचता हो एक ठहरी सी इबारत,
असमर्थता की ओस मैं नहाते नक्षत्र नज़रें जब चुराते हों,
तो ऐसे मैं तुझे कैसे बताऊँ कि योद्धा नक्षत्र के मोहताज़ नहीं होते,
सरताज और मोहताज़ के बीच सड़क तो दौड़ती है भाग्य रेखा सी
सफलता की सूचकांक को देखो तो, पराक्रमी पंचांग नहीं पढ़ते
छत्र पाने को उठे हैं पैर जिनके नक्षत्र पर होती नहीं उनकी निगाहें,
धरती की हथेली पर सड़क जब दौड़ती हो भाग्यरेखा सी." -------राजीव चतुर्वेदी

Friday, April 6, 2012

आओ फरिश्तों से कुछ बात करें बहुत उदास है ये रात


"आओ फरिश्तों से कुछ बात करें
बहुत उदास है ये रात
कोहरे के लिहाफ ओढ़ कर शायद तुम हो जो झांकती हो मुंडेरों से अभी

चाँद की बिंदी लगा लो अपने माथे पर
समझलो तुम सुहागिन हो

तुम्हारी मांग में शफक सिन्दूर भर कर खोगई है भोर में
मैं लौट के आऊँगा देख लेना

तन्हाईयों में गूंजती रुबाईयों जैसा
धूप में सूखती रजाईयों जैसा
मैं लौट के आऊँगा देख लेना

हादसे में हाँफते सुबह के अखबार में सिमटा
देख लो तुम्हारी गोद में सर रखे सूरज सा लेटा हूँ मैं

एक रोशन सच चरागों से चुरा लाया हूँ मैं
तुम्हारी आँख में काजल लगा दूं रात का

मैं खो जाऊंगा तह किये कपड़ों में रखे स्नेह के सुराग सा
मैं याद आऊँगा सूनी मांग से सिन्दूर के संवाद सा 

तुम्हारी आँख में काजल लगा दूं रात का
मैं जाता हूँ सितारों ने बुलाया है दूर से मुझको

ओढ़ लो कोहरे की चादर
बहुत सर्द है रात.
"    ----राजीव चतुर्वेदी


वह जो रिश्ते सूख कर थे गिर गए


"वह जो रिश्ते सूख कर थे गिर गए,
पेड़ के पीले से पत्तों की तरह
झाड़ कर दालान से बाहर भी तुमने कर दिया
अब क्या कोपल उगेंगी फिर नए विश्वास की ?
वक्त की आंधी से जो अब गिर रहे हैं सूखे पत्ते से
वह रिश्ते हमारे
सुना है मिट्टी में मिल कर खाद बन जाते यहाँ हैं
इस खाद में फिर ख्वाब का पौधा उगेगा
पत्तीयाँ उसमें भी होंगी
सभ्यता के इस सफ़र में सहमते लोगो सुनो तुम
वह जो रिश्ते सूख कर थे गिर गए,
पेड़ के पीले से पत्तों की तरह
झाड़ कर दालान से बाहर भी तुमने कर दिया
अब क्या कोपल उगेंगी फिर नए विश्वास की ?" ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, April 5, 2012

हर मेहनतकश को गधा कह रहे शातिर सुन

"यह सौन्दर्य असीम प्रभु की यह भी कृति है,
यह खोट नज़र की मेरी ही है जो विकृत है.
हर मेहनतकश को गधा कह रहे शातिर सुन
घूसखोर को सत्यापित करती यह संस्कृति है."
                                 ---- राजीव चतुर्वेदी 

आहत है वह

"मैं नहीं हूँ अब वहां
हो सके तो अक्स को अहसास दो
  आहत है वह."

-----राजीव चतुर्वेदी 

हर हरामखोर के चेहरे पे नूर था

"सब जानते हैं वह गटर थी,
गंगा में क्या मिली कि उसको गुरूर था. 
वह लड़खड़ा गया था किसी हादसे को सुन,
लोगों की राय में उसको सुरूर था.
वह घूसखोर जिसके लिए पेशकार ले रहा था घूस,
वकीलों की अब निगाह में वह भी हुजूर था.
मेहनतकशों के मुकद्दरों में थीं मायूसियां लिखी,
 हर हरामखोर के चेहरे पे नूर था. "                ----राजीव चतुर्वेदी   

Wednesday, April 4, 2012

तह करके रख ले अपना आसमान ऊपर वाले

"मुझे फक्र है मेरे पाँव ज़मीन पर हैं,
तह करके रख ले अपना आसमान ऊपर वाले."
----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, April 3, 2012

प्यार के छल की नमी क्यों नापते हो

"मेरी आवाज़ खो जाने दो अंधेरों में,
अनंतों की अवधि क्यों नापते हो .
आसमानों का अहसास तो है हमको
असमानों से आस तो है ओस जैसी
सत्य का सूरज जब हो निगाह में तेरी
प्यार के छल की नमी क्यों नापते हो." -- राजीव चतुर्वेदी 

Sunday, April 1, 2012

ये कविता मेरी है गर वेदना तेरी हो तो बताना तू भी मुझको

" यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे ,
अमावस को तारे भी अवकाश में हैं
मुसाफिर सो गए हैं सोचते सुनसान से सच को
यह सच है कि सूरज डूबा था महज हमारी ही निगाहों में
 चीखती चिड़िया का चेहरा और गिद्धों का चरित्र
फूल की पत्ती पे वह जो ओस है अक्स आंसू का
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे
सहेजोगे तो कविता कागजों पर शब्द बन कर वेदना का विस्तार नापेगी
वह जो घर पर आज सहमी सी खड़ी है छोटी बहन सी भावना मेरी
आसमान को देखती है एक चिड़िया सी
उसकी निगाहों में सिमटा आसमान शब्दों में समेटो तो नदी की मछलियाँ भी मुस्कुरायेंगी
पीढियां भी संवेदना की साक्षी बन कर तेरी कविता गुनगुनायेंगी
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे.
ये कविता मेरी है गर वेदना तेरी हो तो बताना तू भी मुझको
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे." ----राजीव चतुर्वेदी

सहमती शाम का सूरज संकोची सा नज़र आया

"सहमती शाम का सूरज संकोची सा नज़र आया
रात में दहशत अँधेरा ओढ़ के बैठी रही 
शब्द लाशें बन के सुबह बिखरे थे अखबार में
दिन के सूरज की उंगली पकड़ के मैं निकला था घर से
शाम होते मैं कहीं गुम हो गया था 
जिन्दगी की इस तश्वीर को तहरीर मत समझो
आज मेरे खून से तर दिख रहे हैं उन्हीं काँटों पर
दर्ज होना चाहती हैं खूबसूरत सी खरासें."          -----राजीव चतुर्वेदी

उन बहते शब्दों को लोग कहेंगे कविता है यह

"कुछ कविता की पैरोडी कहने के आदी हैं
पहले कविता का गबन किया फिर वमन किया कुछ शब्दों का
मौलिकता का सौंधापन तो स्वाभाविक समझा जाता है
शब्दों की सामर्थ्य, शास्त्र की समझ, प्रतीकों का पैनापन
अंगारों की आग, झुलसती बस्ती, दावानल से दूर पिघलती वर्फ पहाड़ों की
छा जाती है जब अंतर्मन में कोलाहल सी तो कविता आहट करती है खामोशी से
जो इत्र दूसरों से ले कर ही महके हैं
बेचारे इतने हैं कि हर विचार पर बहके हैं
कागज़ के फूल टिके हैं बरसों तक, पर हर बसंत में बेबस है
हम तो जंगल के पौधे से हैं खिले यहाँ मिट जाएँगे
चर्चे मेरी मौलिकता के बंगले के गमले गायेंगे
ये पैरोडी के गीत गुनगुनाने वाले सुन
कोयल की पैरोडी कौओं के बस की बात नहीं
कुछ चिंगारी, कुछ अंगारे, कुछ तारे, कुछ सूरज , थोड़ा सा चन्दा, शेष चांदनी
धूल गाँव की, शूल मार्ग के, भूखा पेट, उदास चूल्हे की चीख चीरती है जब दिल को
इतिहासों के उपहासों के तल्ख़ तस्करे,
वह महुआ की तरुणाई, प्यार का मुस्काना, वह नागफनी का दंश, वंश बबूलों का
वह नाव नदी मैं तैर रही आशंकित सी,
दूर चन्द्र के आकर्षण से लहरों का शोर मचाते सागर का भी इठलाना
वह देवदार के पेड़, चिनारों के पत्ते, वह मरुथल की झाड़ी में खरगोशों का छिप जाना
वह बहनों की मुस्कान अमानत सी मन में, वह बेटी का गुड़िया पर ममता जतलाना
वह नन्हे से बच्चे को ममता का घूँट पिलाती माताएं
वह बाहर जाते बेटे को बूढ़ी आँखों का उल्हाना
वह संसद में बेहोश पड़ा सच भी देखो
मकरंदों की बातें भौरों को करने दो
इन सब तत्वों पर तेज़ाब गिराओ अपने मन का
जो धुंआ उठेगा वह कविता बन जाएगी
जो रंग बनेगा वह तेरी कविता का मौलिक रंग कहा जाएगा
जो राग उठेगा उसको पहली बार सुना होगा तुमने
यह राग रंग की आवाजें जब गूंजेंगी तो शब्द बहेंगे
उन बहते शब्दों को लोग कहेंगे कविता है यह." ----राजीव चतुर्वेदी