" यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे ,
अमावस को तारे भी अवकाश में हैं
मुसाफिर सो गए हैं सोचते सुनसान से सच को
यह सच है कि सूरज डूबा था महज हमारी ही निगाहों में
चीखती चिड़िया का चेहरा और गिद्धों का चरित्र
फूल की पत्ती पे वह जो ओस है अक्स आंसू का
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे
सहेजोगे तो कविता कागजों पर शब्द बन कर वेदना का विस्तार नापेगी
वह जो घर पर आज सहमी सी खड़ी है छोटी बहन सी भावना मेरी
आसमान को देखती है एक चिड़िया सी
उसकी निगाहों में सिमटा आसमान शब्दों में समेटो तो नदी की मछलियाँ भी मुस्कुरायेंगी
पीढियां भी संवेदना की साक्षी बन कर तेरी कविता गुनगुनायेंगी
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे.
ये कविता मेरी है गर वेदना तेरी हो तो बताना तू भी मुझको
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे." ----राजीव चतुर्वेदी
1 comment:
Bahut hi sunder… class apart! Shubhkamnaayen :-)
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