"सहमती शाम का सूरज संकोची सा नज़र आया
रात में दहशत अँधेरा ओढ़ के बैठी रही
शब्द लाशें बन के सुबह बिखरे थे अखबार में
दिन के सूरज की उंगली पकड़ के मैं निकला था घर से
शाम होते मैं कहीं गुम हो गया था
जिन्दगी की इस तश्वीर को तहरीर मत समझो
आज मेरे खून से तर दिख रहे हैं उन्हीं काँटों पर
दर्ज होना चाहती हैं खूबसूरत सी खरासें." -----राजीव चतुर्वेदी
No comments:
Post a Comment